चारबाग रेलवे स्टेशन के पास बेसहारा बच्चों का आशियाना
ऐसे में उन्होंने लखनऊ के चारबाग स्टेशन के पास बच्चों के लिए एक सेंटर खोला जिसमें शुरुआती दौर में 5 बच्चे आए और धीरे-धीरे बढ़कर यह संख्या महीने में 50 से ऊपर हो गई.
लखनऊ:
बाल मजदूरी देश की एक बड़ी समस्या है. रेलवे स्टेशनों के पास बाल मजदूरों की संख्या देखी जा सकती है. दरअसल ये ऐसे बच्चे होते हैं जो अपने घरों से या तो भूल-भटक कर या किसी नाराजगी की वजह से निकल जाते हैं और चूंकी रेलवे ट्रांसपोर्ट ऐसे लोगों के लिए सबसे आसान ट्रांसपोर्ट होता है लिहाजा एक ट्रेन से सफर करके किसी दूसरे स्टेशन पर पहुंच जाते हैं. वहां कुछ दिन गुजारने के बाद या तो वे नशे की आदी हो जाते हैं या छोटे-मोटे अपराध की तरफ बढ़ जाते हैं. हालांकि इसमें से अधिकतर बच्चे बाल मजदूरी करने लगते हैं. लखनऊ में एक अकेली महिला ने इन बच्चों के दर्द को समझा और एक बड़े बदलाव की पटकथा लिख दी.
लखनऊ की रहने वाली शची सिंह को बचपन से ही सामाजिक कार्य में रूचि थी. जैसे जैसे वह बड़ी होती गई वैसे वैसे वैसे उम्र के साथ उन्होंने लोगों की मदद का दायरा और बढ़ा दिया. एक समय ऐसा आया जब शची सिंह ने अपना ग्रेजुएशन कंप्लीट करने के बाद बेसहारा और अनाथ बच्चों को पढ़ाने शुरू कर दिया. इस दौरान शची सिंह चारबाग स्टेशन पर इधर-उधर घूमने वाले बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. इसी दौरान उन्होंने देखा कि धर चल जिन्हें लोग एक अपराधी यह नशेबाज की तरह देखते हैं दरअसल वह एक तरह के विक्टिम है.
उन बच्चों को पढ़ाते हुए शची सिंह और उनके साथ के लोगों ने तय किया कि इन बच्चों को जितना जरूरत शिक्षा की है उतने ही जरूरत दो वक्त के भोजन की. अगर इनको दो वक्त के भोजन का इंतजाम कर दिया जाएगा तो बच्चे शिक्षा से अपने आप जुड़ेंगे. ऐसे में उन्होंने लखनऊ के चारबाग स्टेशन के पास बच्चों के लिए एक सेंटर खोला जिसमें शुरुआती दौर में 5 बच्चे आए और धीरे-धीरे बढ़कर यह संख्या महीने में 50 से ऊपर हो गई एक समय ऐसा आया जब 700 बच्चे शची सिंह के साथ जुड़ गए.
इनको पढ़ाना-लिखाना और उनके परिवार वालों से इनको मिलाना ही शची सिंह का मकसद बन गया. स्टेशन पर काम करने वाले भिंडर कुली और यात्रा करने वाले लोगों को सबसे पहले शची सिंह ने इस बात का एहसास दिलाया कि स्टेशन पर जो बच्चे मिलते हैं दरअसल वह पीड़ित हैं. और उनकी मदद करनी चाहिए. ऐसे में सभी उनके साथ आए और स्टेशन और आसपास के होटलों और दुकानों पर जो बच्चे काम कर रहे थे धीरे-धीरे उनके मालिकों ने भी उन्हें शची सिंह के पास पहुंचाना शुरू कर दिया.
स्टेशन पर जो बच्चे आते थे उनके लिए तो 1 दिन पहले से तैयार रहती थी. धीरे धीरे 10 साल बीत गए और एक समय ऐसा आया शची सिंह कि मेहनत की वजह से चारबाग स्टेशन उसके आसपास के इलाकों में चाइल्ड लेबर पूरी तरह से खत्म हो गया. जिसके लिए उन्हें पुरस्कृत भी किया गया.
वयस्क हो चुका राजू इस संस्था में उस वक्त आया था जब उसकी उम्र महज 5 से 6 साल तक थी. वह न कुछ सही बता पाता था और ना ही सही कुछ बोल पाता था. आज वह फुटबॉल में नेशनल खेल चुका है.शची सिंह को अपना सब कुछ मानने वाला राजू का मानना है कि पढ़ने में उसकी बहुत रूचि नहीं थी, खेल में थी.ऐसे में शची सिंह उसकी पूरी मदद कीं उसे इस बात की जानकारी नहीं है कि उसके मां-बाप कहां रहते हैं वह किस शहर का रहने वाला है. लेकिन अब इसी संस्था को अपना घर मानता है.
आज भी शची सिंह और उनकी टीम चारबाग रेलवे स्टेशन और उसके आसपास कुली वेंडर और आम यात्रियों को अपना पंपलेट बांटते रहते हैं. ताकि किसी को भी अगर कोई इस तरह का बच्चा मिले तो उसकी जानकारी उनको मिल सके. इस टीम का यह मानना है कि जब तक लॉकडाउन चल रहा था तब तक बच्चों की संख्या कम थी लेकिन पिछले कुछ महीनों में अब संख्या बढ़ गई है. लगभग हर महीने 30 से 40 बच्चे टीम को स्टेशन के आसपास मिल जाते हैं. जिन्हें वह चाइल्ड लाइन सेंटर भेज कर उनके घर परिवार वालों से संपर्क करने की कोशिश करते हैं.
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