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मानवाधिकार दिवस: भारत में मानव अधिकार उल्लंघन की बड़ी घटनाएं

1990 के दशक में आतंकवाद की वजह से काफी सारे कश्मीरी पंडित घाटी से अपना घर-बार छोड़कर चले गए।

Updated on: 23 Dec 2017, 03:09 PM

नई दिल्ली:

मानवाधिकार दिवस के मौके पर सभी जगह अधिकारों की जानकारी को साझा करने और इसे संरक्षित करने पर चर्चा हो रही है।

संविधान में भी मानव अधिकार को बरकरार रखने के लिए बाकायदा क़ानून बनाया गया है। इसके बावजूद कई ऐसे मौके आये हैं जहां खुले आम मानव अधिकारों का हनन किया जा रहा है।

आज हम कुछ ऐसे ही बड़े मामले का ज़िक्र करेंगे जहां बड़े स्तर पर लोगों के अधिकार का हनन हुआ है।

कश्मीर से पंडितों का बड़े पैमाने पर पलायन

1990 के दशक में आतंकवाद की वजह से काफी सारे कश्मीरी पंडित घाटी से अपना घर-बार छोड़कर चले गए। कश्मीरी पंडितों का आरोप है कि जो थोड़ी बहुत आबादी वहां बची रही सरकार ने उसकी भी ख़बर नहीं ली। इतना ही नहीं जो लोग घाटी छोड़कर चले गए थे उनके पुनर्वास की भी व्यवस्था नहीं की गई।

अतिवादियों द्वारा हिन्दू पंडितों के साथ निर्मम हिंसा और उनकी महिलाओं के साथ दुर्वव्यहार की कई घटनाएं सामने आई। जिसके बाद भारी संख्या में घाटी से पंडितों का पलायन हुआ। इससे बतौर नागरिक उनके अधिकारों का उल्लंघन किया गया।

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हालांकि इस दौरान कश्मीरी आतंकवादियों ने मुसलमानों को भी निशाने पर लिया।

5 फरवरी 1992 को द टाईम्स ऑफ़ इंडिया में सरकारी आंकड़ों के हवाले से छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी 1990 से अक्टूबर 1992 के बीच आतंकवादियों ने कश्मीर घाटी में कुल मिलाकर 1585 व्यक्तियों की हत्या की। इनमें से 982 मुसलमान थे 218 हिन्दू 23 सिक्ख और 363 सुरक्षाबलों के जवान।

बता दें कि 1985 में मकबूल भट्ट को फांसी दिए जाने की घटना और घाटी में अलकायदा के लड़ाकों के घुसपैठ के चलते माहोल सांप्रदायिक हो गया था।

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1984 का सिख विरोधी दंगा

31 अक्टूबर 1984 को भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की उनके अंगरक्षकों द्वारा हत्या किए जाने के बाद देशभर में सिख विरोधी दंगा भड़का। इस दंगे में आधिकारिक रूप से 2733 सिखों को निशाना बनाया गया। हालांकि गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मरने वालों की संख्या 3870 थी।

इस घटना के विरोध में देश के सभी हिस्सों में सिखों के घरों और उनकी दुकानों पर हमला किया गया। हालांकि दंगों का सबसे अधिक असर दिल्ली पर हुआ, खासकर मध्यम और उच्च मध्यमवर्गीय सिख इलाकों को योजनाबद्ध तरीके से निशाने पर लिया गया।

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रोहित वेमुला आत्महत्या मामला

हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे पीएचडी के छात्र रोहित वेमुला ने पहले तो अपने अधिकारों के लिए प्रोटेस्ट किया बाद में 17 जनवरी 2016 को आत्महत्या कर ली थी।

बता दें कि इससे पहले यूनिवर्सिटी के अधिकारियों ने 28वर्षीय रोहित को उनके अन्य साथी छात्रों के साथ हॉस्टल से बाहर निकाल दिया था। साथ ही यूनिवर्सिटी कैंपस में एंट्री पर भी रोक लगा दी थी। जिसके बाद रोहित वेमुला काफी दिनों तक खुले आसमान के नीचे रह रहा था।

बताया जाता है कि इन सभी छात्रों ने यूनिवर्सिटी में ‘मुज़फ्फरनगर बाकी है’ नाम की एक फिल्म के प्रदर्शन के दौरान हुए हमले के ख़िलाफ़ विरोध किया था।

इतना ही नहीं इनके संगठन अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन (दलित समुदाय के हित के लिए बना संगठन) ने याकूब मेमन की फांसी के मामले पर बहस छेड़ दी थी और मृत्युदंड का विरोध भी किया था। जिसके बाद इन सभी छात्रों और संगठन को राष्ट्रविरोधी ठहराया गया था।

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बाल मजदूरी हज़ारों बच्चों के भविष्य को कर रहा ख़राब

बाल मजदूरी एक ऐसा अभिशाप है जो हज़ारों बच्चों के भविष्य को ख़राब कर रहा है।

बाल मज़दूरी में ज़्यादातर ऐसे बच्चे धकेले जाते हैं जो बहुत ही निम्न परिवार से आते हैं। ऐसे मां-बाप अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए अपने बच्चों को काम पर लगा देते हैं।

लेकिन मां-बाप के इस क़दम से बच्चे का न केवल भविष्य ख़राब होता है बल्कि उनकी मासूमियत भी छीन ली जाती है जो उनके अधिकारों का हनन है।

मानवाधिकार आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 5 में से दो बच्चे अपनी 8वीं तक की पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाते हैं। जिससे बड़ी संख्या में बच्चों को शिक्षा पाने का अधिकार नहीं मिल पाता है। जो सीधे-सीधे उनके अधिकारों का हनन है।

सुरक्षाकर्मियों द्वारा नक्सलविरोधी अभियान के तहत कार्रवाई के दौरान कई आदिवासी समुदाय के लोग मारे जाते हैं। इस दौरान उनके बच्चों की भी मौत हो जाती है।

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