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यूपी चुनाव 2017: संविधान के ख़िलाफ़ है मुस्लिम धर्म गुरुओं का फ़तवा जारी करना

भाजपा ने यूपी चुनाव में एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया है।

Updated on: 11 Feb 2017, 01:02 PM

नई दिल्ली:

राजनीतिक लिहाज से यूपी का अलग अस्तित्व है। आम चुनावों को लेकर सभी दलों की निगाह यहां के मतदाताओं पर टिकी है। भाजपा को छोड़ सपा-कांग्रेस और बसपा मुस्लिमों को लुभाने की सारी पराकाष्ठाएं लांघती दिखती है।

भाजपा ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया है। जिस पर पार्टी के स्लोगन सबका साथ सबका विकास पर तीखी टिप्पणियां भी हुई, लेकिन उसका एक निर्धारित एजेंडा है, जिस पर चलने का फैसला किया। 

दिल्ली स्थित जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी बहुजन समाज पार्टी के पक्ष में खुल कर आए हैं। एक टीवी इंटरव्यू के दौरान उन्होंने सपा पर वादा खिलाफी का आरोप लगाते हुए मुसलमानों से वीएसपी को वोट करने की अपील की है। इमाम बुखारी को फतवों का बुखार चढ़ा है। 

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राजनीति में फतवों के लिए उनकी अलग पहचान बन गई है। यह कोई पहला मौका नहीं है, जब उन्होंने किसी पार्टी विशेष के पक्ष में वोट करने की अपील की है। 2012 में उनकी तरफ से समाजवादी पार्टी को वोट करने की अपील की गई थी और दामाद उमर अली खान को टिकट दिलाने के लिए मुलायम सिंह के साथ मंच भी साझा किया था लेकिन पब्लिक को इमाम की पॉलटिक्स पसंद नहीं आई और अलीखान चुनाव हार गए। 

2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए भी फतवा जारी कर चुके हैं। अब बीएसपी के साथ खड़े हैं। फतवा उस वक्त जारी किया गया जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वोटिंग में सिर्फ दो दिन का वक्त बचा था। मुस्लिम वोटरों के लिहाज से पश्चिमी यूपी काफी अहमियत रखा जाता है।

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इमाम के फतवों का कितना असर होगा यह वक्त बताएगा। लेकिन राजनीति में धर्म की अड़ंगेबाजी ने नई बहस पैदा कर दी है। पंजाब चुनावों में भी सिख समुदाय में अच्छी पकड़ रखने वाले एक धर्मगुरु की तरफ से अकाली दल को समर्थन की बात सामने आई थी।

हालांकि संबंधित संस्थान ने बाद में इसका खंडन किया था। सर्वोच्च अदालत ने धर्म, जाति, भाषा और नस्ल के आधार पर प्रचार करने और वोट मांगने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है। 

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अदालत के फैसले बाद चुनाव आयोग भी इस पर सख्त है। लेकिन इस तरह की बयानबाजी के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई होती नहीं दिखती है। सभी दलों ने संवैधानिक चीरहरण किया है। सांप्रदायिक आधार पर मतों का ध्रुवीकरण के लिए जाति और धर्म की माला जपी जा रही है।

संवैधानिक संस्थाओं की किसी को चिंता नहीं है। सवाल उठता है कि क्या इस तरह की संस्थाओं का खत्म कर देना चाहिए। निश्चित तौर पर कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच एक अघोषित टकराहट दिख रही है।

यह हमारी लोकतांत्रित व्यवस्था के लिए उचित नहीं है। मतदान हमारे मौलिक अधिकारों में आता है फिर धार्मिक फतवों के जरिए इसे प्रभावित करने की कोशिश क्यों की जाती है। 

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संविधान और उसकी मयार्दाओं का गला क्यों घोंटा जाता है। आचार संहिता का अनुपालन कराने वाली संस्थाएं मौन क्यों हो जाती हैं। धर्मगुरुओं के खिलाफ कानूनी हथौड़ा कमजोर क्यों पड़ जाता है। अपने आप में यह सबसे बड़ा सवाल है।

धर्म और राजनीति से कोई ताल्लुक नहीं होना चाहिए। राजनीति का धर्म होना चाहिए लेकिन राजनीति में धर्म का समावेश नहीं होना चाहिए। 

राजनीतिक संस्थाओं का पतन हो चला है। उनके भीतर इतना आत्मबल नहीं है कि वह अपनी नीतियों और विचारों से लोगों को प्रभावित कर एक अच्छे लोकतंत्र की स्थापना में भूमिका निभाएं। धर्म और जाति से लोकतंत्र का भला होने वाला नहीं है।

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दिल्ली के शाही इमाम की अहमियत क्या है उन्हें खुद चुनाव मैदान में आकर अपनी वजनदारी तौलनी चाहिए। धर्म और उसकी धारणा का गलत इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। बुखारी को अगर मुसलमानों से इतनी हमदर्दी है तो भाजपा के पक्ष में फतवा क्यों नहीं जारी करते है। 

भाजपा ने मुसलमानों का क्या बिगाड़ा है। 2002 के गुजरात दंगों के बाद उस पर कोई धब्बा नहीं लगा। यूपी में तो मुजफरनगर, कैराना, अखलाख जैसे सैकड़ों उदाहरण पड़े हैं। एनसीआरबी के आंकड़ों पर भरोसा करें तो यूपी में सबसे अधिक दंगे हुए हैं। फिर बुखारी भाजपा और मोदी के लिए फतवा क्यों नहीं जारी करते? 

भाजपा और मोदी को 17 करोड़ लोगों ने मतदान किया। यह बात अगल है कि मुसलमानों ने भाजपा को वोट नहीं दिया। आज भी भाजपा की नीतियों से इत्फाक रखने वाले मुसलमान भाजपा को वोट करते हैं। मुसलमान क्या फलवों पर नाचता है।

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अगर ऐसा होता आज स्थिति कुछ और होती। यूपी की राजनीति में मुसलमान इतना प्रिय क्यों है। इसकी गणित समझने के लिए आंकड़ों का सफर तय करना होगा। 

यूपी में 2011 की आबादी को अधार बनाएं तो यहां 19 फीसदी से अधिक मुसलमान हैं। जिसमें 34 फीसदी मुसलमान रुहेलखंड जबकि 27 फीसदी मुस्लिम पश्चिमी यूपी से हैं। इसलिए राजनीतिक लिहाज से पश्चिमी यूपी अहम हैं।

70 फीसदी से अधिक मुस्लिम आबादी रामपुर जिले की है। प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में तकरीबन 150 पर मुस्लिम निर्णायक भूमिका निभाते हैं। इसकी वहज है सियासी दलों के लिए मुसलमानों को काफी दिललगी से लिया जाता है।

लेकिन यह भी जमीनी सच्चाई है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी मुसलमान संसद तक नहीं पहुंचा। 1992 में रामजन्म भूमि विवाद के यहां की सियासत में मुस्लिम मतों का ध्रवीकरण हुआ। 

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मुसलमान कांग्रेस का वोटर माना जाता रहा लेकिन विवादित ढांचा ढहने के बाद स्थिति बदल गई और कांग्रेस से मुसलमानों को भरोसा उठ गया। जिसका फासदा सीधे सपा को पहुंचा। हालांकि आज की स्थिति में भी राज्य में मुसलमानों की पहली पसंद सपा है।

अब यह मिथक टूट रहा है। आहिस्ता-आहिस्ता उनका मोहभंग हो रहा है। राजनीतिक स्थितियों के बदलने से सोच में भी बदलाव आ रहा है। शिक्षा और सामाजिक जागरुकता के चलते वह एक ठप्पे से बाहर निकलना चाहता है और मुख्धारा की राजनीति करना चाहता है।

आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो 2002 में 54 फीसदी मुसलमानों ने सपा, 9 फीसदी ने बसपा और 10 फीसदी ने कांग्रेस पर भरोसा जताया था। जबकि पांच साल बाद यह स्थिति बदल गई और 2007 में सपा को 45 बसपा और कांग्रेस को 17 से 14 फीसदी मुसलमानों ने पसंद किया। 

2012 में यह स्थिति काफी बदल गई। 39 फीसदी सपा जबकि बसपा 20 पर पहुंच गई और कांग्रेस की पसंद 18 फीसदी बने। इस लिहाज से देखा जाए तो स्थितियां बदल रही हैं। यह किसी फतवों और अपीलों का असर नहीं है। यह बदलाव की मुहिम की तरफ साफ इशारा करता है। 

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इस दौरान हालांकि भाजपा पर पांच फीसदी से भी कम मुस्लिम वोटरों ने भरोसा जताया। लेकिन मुस्लिम प्रभाव वाले इलाकों का अध्ययन करें तो यहां भाजपा कम वोट पाकर भी बसपा और कांग्रेस से अच्छा प्रदर्शन किया। 2012 के आम चुनावों में 69 मुस्लिम विधायक दारुलसफा पहुंचे जबकि 2002 में संख्या 56 की थी। 

लोकतांत्रित अधिकारों और संवैधानिक संस्थाओं की रक्षा के लिए राजनीति में धर्म की अडंगेबाजी बंद होनी चाहिए। भारतीय संविधान में इस तरह के फतवों और अपीलों की कोई जगह नहीं है। फिर इमाम बुखारी को यह अधिकार किसने दिया है।

राजनीति में धर्म की सियासत बंद होनी चाहिए। लोकतांत्रित अधिकारों का गला घोंटने वाले ऐसे लोगों के खिलाफ संवैधानिक कार्रवाई होनी चाहिए।