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Lok Sabha Election 2019 : योगी के गढ़ गोरखपुर में क्या निर्णायक की भूमिका निभा पाएंगे निषाद वोटर?

भविष्य की संभावनाओं की तलाश में इस समय हर सियासी पार्टी में नए लोग आ रहे हैं और पुराने नाराज होकर जा रहे हैं.

Updated on: 12 Mar 2019, 03:38 PM

नई दिल्ली:

लोकसभा चुनाव 2019 (Lok Sabha Election 2019) : कहते हैं कि राजनीति संभावनाओं का खेल है. भविष्य की संभावनाओं की तलाश में इस समय हर सियासी पार्टी में नए लोग आ रहे हैं और पुराने नाराज होकर जा रहे हैं. बात अगर गोरखपुर लोकसभा सीट की करें तो यहां पर पिछले उपचुनाव से निषाद वोट काफी तेजी से खुलकर सामने आया है और उपचुनाव में इस ताकत का एहसास भी इन्होंने बीजेपी के गढ़ में प्रवीण निषाद को सांसद बनाकर कर दिया है. इस लोकसभा चुनाव में हर सियासी दल इस वोट बैंक को अपने हिस्से में लाने का पूरा प्रयास कर रहा है और यही कारण है कि बीजेपी को भी अपने गढ़ को बचाने के लिए गोरक्षपीठ के खिलाफ कई दशकों से चुनावी ताल ठोकने वाले जमुना निषाद के परिवार को बीजेपी में शामिल करना पड़ा है. गोरखपुर में आखिर निषाद वोट क्यों इतना महत्वपूर्ण हो गया है. पढ़ें इस विशेष रिपोर्ट को.

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अमरेंद्र निषाद और उनकी पूर्व विधायक मां राजमती निषाद गोरखपुर के गोरक्षपीठ में पूजन करते हैं. निषादों के कद्दावर नेता और समाजवादी पार्टी में मंत्री रहे स्व. जमुना निषाद का परिवार 23 साल बाद एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी के साथ है. लखनऊ में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र नाथ पांडेय ने स्व. जमुना की पत्नी पूर्व विधायक राजमती निषाद व उनके पुत्र अमरेंद्र निषाद को पार्टी की सदस्यता दिलाई. इस परिवार के भाजपा में आने के साथ ही नए राजनीतिक समीकरण चर्चा में आ गए हैं. कभी गोरक्षपीठ के खिलाफ सियासी विरोध करने वाला यह परिवार आज पूरी तरह से भगवामय हो चुका है.

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गोरखपुर लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में मिली हार के बाद भाजपा आगामी लोकसभा चुनाव में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहती है. इस सीट पर शुरू से ही निषाद समाज के मतदाताओं की प्रभावी भूमिका रही है. गोरखपुर संसदीय सीट पर 1999 में हुए चुनाव में जमुना प्रसाद निषाद ने योगी आदित्यनाथ को कड़ी टक्कर दी थी. इस चुनाव में सपा प्रत्याशी के तौर पर वह करीब सात हजार मतों से चुनाव हारे थे. 2010 में उनके निधन के बाद उनकी पत्नी समाजवादी पार्टी के टिकट पर उपचुनाव में पिपराइच विधानसभा से विधायक बनी और 2012 में फिर से उनको जनता ने विधायक बनाया. राजमती निषाद व अमरेंद्र निषाद को पार्टी में लाकर रणनीतिकारों ने निषाद समाज के मतदाताओं को रिझाने की कोशिश की है. अमरेंद्र के पिता स्व. जमुना निषाद अपने समाज के प्रभावी नेता रहे हैं. यही कारण है कि उनके निधन के बाद भी इस परिवार का राजनीतिक रुतबा बरकरार है. इसी रुतबे को भुनाने के लिए बीजेपी ने इनको पार्टी में लिया है और अब अमरेन्द्र ने लोकसभा चुनाव की तैयारी भी शुरू कर दी है.

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ऐसा नहीं है कि इस सीट पर निषाद वोट पहले से इतनी चर्चा में है. बीजेपी की इस वर्तमान मजबूरी को समझने के लिए हमें थोड़े अतीत में जाना होगा. साल 2015 के पहले तक निषाद वोट बिखरे हुए थे और सही नेतृत्व नहीं मिलने के कारण इनका इस्तेमाल सिर्फ चुनाव में वोट लेने के लिए ही किया जाता था. गोरखपुर लोकसभा में निषाद वोटों की संख्या सवा चार लाख है, जो कुल 20 लाख वोटों में निर्णायक भूमिका निभाती है. निषाद पार्टी की स्थापना कर डॉ. संजय निषाद ने इनको एकजुट किया और निषाद वंशीय जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल कर उन्हें आरक्षण देने की मांग को लेकर निषाद पार्टी ने आंदोलन छेड़ दिया. 7 जून 2015 को आरक्षण की मांग को लेकर गोरखपुर के कसरवल में रेलवे ट्रैक जाम करने के दौरान पुलिस फायरिंग में अखिलेश निषाद नाम के एक युवक की मौत हो गई थी. उस समय समाजवादी पार्टी की सरकार थी. अखिलेश सरकार ने इस घटना पर सख्ती की और डॉ संजय कुमार निषाद सहित तीन दर्जन लोगों पर मुकदमा दर्ज किया.

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इस घटना के बाद डॉ. संजय फरार हो गए, लेकिन अन्य लोग गिरफ्तार हुए और जेल गए. बाद में डॉ. संजय ने सरेंडर किया और जमानत पर रिहा हुए. इस घटना से उन्हें काफी चर्चा मिली. इस शोहरत को उन्होंने निषाद पार्टी ( निर्बल इंडियन शोषित हमारा आम दल) को मजबूत बनाने में उपयोग किया. गांव-गांव निषाद पार्टी का संगठन बनाया. महिलाओं और युवाओं को विशेष रूप से जोड़ा गया. 2017 के चुनाव में निषाद पार्टी ने पीस पार्टी के साथ गठबंधन किया और 72 स्थानों पर चुनाव लड़ा. निषाद पार्टी सिर्फ एक सीट ज्ञानपुर जीत पाई. यहां पर बाहुबली नेता विजय मिश्र विजयी हुए, लेकिन जीतने के बाद वह निषाद पार्टी के साथ नजर नहीं आए. निषाद पार्टी ने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया. निषाद पार्टी को 2017 के विधानसभा चुनावों में 5,40,539 वोट मिले. यह चुनाव तो वह नहीं जीत पाए, लेकिन मार्च 2017 में गोरखपुर संसदीय सीट के उपचुनाव में सपा के कोटे से अपने बेटे प्रवीण निषाद को चुनाव लड़ाकर उन्हें जीत दिलाकर कर इतिहास बना दिया.

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निषाद पार्टी की मुख्य मांग है कि निषाद वंशीय जातियों को अनुसचित जाति में शामिल कर आरक्षण दिया जाए. अभी निषाद वंशीय दो जातियां मझवार और तुरैहा देश के अनुसूचित जातियों की सूची में हैं, लेकिन मझवार और तुरैहा की पर्यायवाची वंशानुगत या उपजातियां ओबीसी में शामिल हैं. वर्ष 1992 के पहले इन सभी जातियां को अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र जारी किया जाता था, लेकिन इसके बाद विसंगति तब सामने आई जब मझवार व तुरैहा की समकक्षी, पर्यायवाची जातियों को ओबीसी में रखा दिया गया. इससे निषाद वंशीय सभी जातियों का आरक्षण का लाभ मिलना बंद हो गया.

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अपने हक और अधिकार की राजनीति में जबसे निषादों ने सक्रिय भूमिका निभानी शुरू कर दी है तब से गोरखपुर की राजनीति में निषादों का कद बढ़ गया है. प्रवीण निषाद के सांसद बनने के बाद आज सभी पार्टियां किसी ऐसे निषाद चेहरे को सामने ला रही हैं, जो इस वोट को उनकी तरफ मोड़ा जा सके. जानकारों का कहना है कि बीजेपी ने हमेशा इस वोट बैंक को अपना नहीं माना और अपनी पार्टी के कई बड़े निषाद नेताओं को तवज्जो नहीं दी, जिससे बीजेपी को उपचुनाव में हार का सामना करना पड़ा.

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अमरेंद्र और बीजेपी दोनों को इस समय एक दूसरे की जरूरत है. इस लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और बीएसपी के संयुक्त उम्मीदवार के रूप में सांसद प्रवीण निषाद को फिर से दोहराने की बात की जा रही है तो वहीं बीजेपी के टिकट पर अमरेंद्र निषाद ने भी चुनाव मैदान में जाने की तैयारी शुरू की है. गोरखपुर लोकसभा सीट पर पिछले कई दशकों से बीजेपी और समाजवादी पार्टी में ही मुकाबला होता रहा है. हालांकि, इसके पहले योगी आदित्यनाथ के कद की वजह से इस सीट पर मठ का नेतृत्व रहा है, लेकिन अब योगी आदित्यनाथ के लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने से इस सीट पर मुकाबला काफी दिलचस्प होने वाला है और निषाद वोट एक बार से निर्णायक भूमिका निभाएगा.