लद्दाख की गलवान घाटी (Galwan Valley) में भारत-चीन सैनिकों के बीच हुई हालिया हिंसक झड़प के बाद चीन मसले पर केंद्र की मोदी सरकार (Modi Government) और कांग्रेस (Congress) आमने-सामने है. कांग्रेस नेता खासकर पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी (Rahul Gandhi) इस मसले पर सीधे-सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेर रहे हैं, तो बीजेपी (BJP) नेता कांग्रेस शासनकाल खासकर पंडित नेहरू (Jawaharlal Nehru) के कार्यकाल में होने वाली गलतियों को गिना रहे हैं. चीन मसले पर केंद्र की मोदी सरकार के मंत्रियों और कांग्रेसी नेताओं के बीच चल रही बहस के बीच एक वीडियो सामने आया है. इस वीडियो के आधार पर कह सकते हैं कांग्रेस खासकर प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के दौर में उनकी गलतियों का खामियाजा भारत को सामरिक लिहाज से अपने कई महत्वपूर्ण इलाकों को खोकर चुकाना पड़ा.
The follies of Lord Nehru. pic.twitter.com/Y29bHleh0M
— Shefali Vaidya. (@ShefVaidya) June 25, 2020
सेना को नजरअंदाज किया नेहरू ने
1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के 'शेर' एयर मार्शल डेंजिल किलोर (रिटायर्ड) का यह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है. इसमें रिटायर्ड एयर मार्शल खुद कहते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की गलतियों की वजह से 1962 के भारत-चीन युद्ध में भारत को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा. इस वीडियो को वाइल्डफिल्म्स इंडिया ने 2015 में पोस्ट किया था, जो फिलवक्त फिर से चर्चा और बहस के केंद्र में है. इस वीडियो में एयर मार्शल डेंजिल किलोर खुलेतौर पर कहते हैं जवाहरलाल नेहरू की नाकामियों की वजह से भारत को चीन के हाथों करारी शिकस्त झेलनी पड़ी. वह कहते हैं कि पंडित नेहरू कूटनीति पर यकीन करते रहे और इस फेर में भारतीय सेना को नजरअंदाज करते रहे. इसका खामियाजा भारतीय सेना को भुगतना पड़ा.
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राजनीतिक नाकामियों ने दिलाई चीन से हार
वह कहते हैं, 'भारतीय सैनिकों को चीनी आक्रमण के समय जिस वक्त पहाड़ों पर लड़ने के लिए 'झोंका' गया, उस वक्त उनके पास गर्म कपड़े तक नहीं थे. भारतीय वायुसेना को कार्रवाई नहीं करने दी गई. हम आसानी से चीनी सेना के छक्के छुड़ा सकते थे, लेकिन उन्होंने (पंडित नेहरू ने) पूरा बंटाढार कर दिया. इसकी बहुत भारी कीमत भारत को चुकानी पड़ी.' यही नहीं, इस वीडियो में एयर मार्शल डेंजिल किलोर यह भी कहते हैं कि तत्कालीन सरकार नहीं चाहती थी कि उसकी नाकामी की भनक आमजनता तक को लगे. इसकी वजह यह थी कि चीन से युद्ध राजनीतिक नाकामियों की वजह से भारत हारा था.
पंडित नेहरू ने संसद में स्वीकारी थी गलती
गौरतलब है कि भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन ने अपनी सरकार पर गंभीर आरोप तक लगा दिए थे. उन्होंने चीन पर आसानी से विश्वास करने और वास्तविकताओं की अनदेखी के लिए सरकार को कठघरे में खड़ा किया था. जवाहरलाल नेहरू ने भी ख़ुद संसद में खेदपूर्वक कहा था, 'हम आधुनिक दुनिया की सच्चाई से दूर हो गए थे और हम एक बनावटी माहौल में रह रहे थे, जिसे हमने ही तैयार किया था.' इस तरह उन्होंने इस बात को लगभग स्वीकार कर लिया था कि उन्होंने यह भरोसा करने में बड़ी ग़लती की कि चीन सीमा पर झड़पों, गश्ती दल के स्तर पर मुठभेड़ और तू-तू मैं-मैं से ज़्यादा कुछ नहीं करेगा. हालांकि चीन के साथ लगातार चल रहा संघर्ष नवंबर 1959 के शुरू में हिंसक हो गया था, जब लद्दाख के कोंगकाला में पहली बार चीन ने ख़ून बहाया था.
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चीन से हार के अन्य जिम्मेदार लोग
जिन लोगों को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, उनकी सूची काफ़ी लंबी है. शीर्ष पर जो दो नाम होने चाहिए, उनमें पहले हैं कृष्ण मेनन, जो 1957 से ही रक्षा मंत्री थे. दूसरा नाम लेफ़्टिनेंट जनरल बीएम कौल का है, जिन पर कृष्ण मेनन की छत्रछाया थी. लेफ़्टिनेंट जनरल बीएम कौल को पूर्वोत्तर के पूरे युद्धक्षेत्र का कमांडर बनाया गया था. उस समय वह पूर्वोत्तर फ्रंटियर कहलाता था और अब इसे अरुणाचल प्रदेश कहा जाता है. बीएम कौल पहले दर्जे के सैनिक नौकरशाह थे. साथ ही वे गजब के जोश के कारण भी जाने जाते थे, जो उनकी महत्वाकांक्षा के कारण और बढ़ गया था, लेकिन उन्हें युद्ध का कोई अनुभव नहीं था. ऐसी ग़लत नियुक्ति कृष्ण मेनन के कारण संभव हो पाई. प्रधानमंत्री नेहरू की अंधश्रद्धा के कारण वे जो भी चाहते थे, वह करने के लिए स्वतंत्र थे. एक प्रतिभाशाली और चिड़चिड़े व्यक्ति के रूप में उन्हें सेना प्रमुखों को उनके जूनियरों के सामने अपमान करके मज़ा आता था. वे सैनिक नियुक्तियों और प्रोमोशंस में अपने चहेतों पर काफ़ी मेहरबान रहते थे.
गढ़ी गई पराजय
उस समय के सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों द्वारा लिखे गए संस्मरणों से पता चलता है कि नेहरू सेना की ज़रूरतों के प्रति किस कदर उपेक्षा का भाव रखते थे. नेहरू कहते थे कि हम तो अहिंसावादी हैं, हमें किसी से युद्ध नहीं करना. हमारा काम तो पुलिस से चल जाएगा. आज विश्वास करना मुश्किल है लेकिन नेहरू के प्रधानमंत्री काल में सीमा की सुरक्षा के लिए सेना या अर्धसैनिक बलों के स्थान पर पुलिस थाने स्थापित किए गए. तीनों सेनाओं के प्रमुख सेना की ज़रूरतों की सूची लेकर प्रधानमंत्री के कक्ष में जाते थे और सर झुकाए खाली हाथ लौट आते थे. कई रक्षा उत्पादन कारखानों में कप-प्लेट सौंदर्य प्रसाधन आदि बनवाए जा रहे थे, क्योंकि हथियारों के उत्पादन के लिए आदेश और आवंटित बजट नहीं थे और कर्मचारियों से कोई न कोई काम तो करवाना था. याद रहे इन्हीं कारखानों ने प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्धों में भारी मात्रा में गोला बारूद बनाया था.
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सरदार पटेल की चेतावनी भी अनसुनी की नेहरू ने
भारत ने चीन से युद्ध में अपने वीर सैनिकों के अलावा एक बड़ा इलाका अक्साई चिन भी खोया. तमाम चेतावनियों के बाद भी नेहरू 'हिंदी-चीनी, भाई-भाई' की लोरी में खोए रहे. साथ ही चीन के कम्युनिस्ट तानाशाह माओ और प्रधानमंत्री झाऊ एनलाइ की बातों पर आंख बंद करके आगे बढ़ते रहे. पहली चेतावनी आई थी सरदार पटेल की ओर से, जिन्होंने भारत-चीन युद्ध के 12 साल पहले, 1950 में, अपनी मृत्यु के दो माह पूर्व नेहरू जी को पत्र लिखा और कहा कि चीन पर बिलकुल भी विश्वास मत करो. शब्दशः उन्होंने कहा था कि ‘चीन शत्रुता की भाषा बोल रहा है और तुम दोस्ती निभाए जा रहे हो.’
मिलता दुनिया का समर्थन
उस समय अमेरिका और यूरोपीय देश कम्युनिस्ट चीन के इस साम्राज्यवादी विस्तार को दक्षिण एशिया में अपने हितों के लिए ख़तरा मान रहे थे. कई बातें इशारा करतीं हैं कि ये देश चाहते थे कि भारत सैनिक कार्यवाही कर तिब्बत को स्वतंत्र करवाए और अपनी सीमाएं सुरक्षित कर ले. वो इसके लिए शस्त्र-सैन्य सहायता देने को तत्पर थे. 1950 का चीन भारत से उलझने की स्थिति में भी नहीं था, पर नेहरू उदासीन बने रहे. अब कई नेहरू भक्त विश्लेषक बहाना बनाते हैं कि यदि नेहरू अमेरिका-ब्रिटेन को साथ लेकर चीन के खिलाफ जाते तो गुटनिरपेक्ष नीति का क्या होता, और भारत-रूस संबंध कैसे सधते, आदि-आदि.
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मनमोहन सरकार भी कठघरे में
कांग्रेस को विदेश नीति पर कठघरे में खड़ा करने वाला एक और खुलासा भूतपूर्व सैन्य प्रमुख जनरल जेजे सिंह ने किया था. उन्होंने कहा था कि 2006 में मनमोहन सरकार अमेरिका के दबाव में पाकिस्तान से अपने मतभेद दूर करने के लिए सियाचिन ग्लेशियर तक पर अपना दावा छोड़ने को तैयार हो गई थी. इसी तरह का एक सनसनीखेज बयान भूतपूर्व विदेश सचिव श्याम शरण ने दिया था. उन्होंने भी कहा था कि यूपीए और कांग्रेस पार्टी ने कई मौकों पर भारत की संप्रभुत्ता और भौगोलिक अखंडता से समझौता किया था.