'चीन को अपनी आक्रमकता का अंजाम भुगतना ही पड़ेगा, पड़ोसी हो रहे एकजुट'
चीन की दुस्साहसपूर्ण गतिविधियां उन पड़ोसी देशों में राष्ट्रवादी जवाबी-प्रतिक्रिया पैदा कर सकती है, जो वर्चस्व स्थापित करने की किसी कोशिश को स्वीकार नहीं करेंगे.
नई दिल्ली:
रणनीतिक मामलों के विशेषज्ञ सी. राजामोहन ने कहा कि चीन (China) को पूर्वी लद्दाख (Ladakh) और एशिया (Asia) के अन्य हिस्सों जैसी गलत जगहों पर अपनी आक्रमकता दिखाने का अंजाम भुगतना पड़ेगा. उन्होंने कहा कि चीन की दुस्साहसपूर्ण गतिविधियां उन पड़ोसी देशों में राष्ट्रवादी जवाबी-प्रतिक्रिया पैदा कर सकती है, जो वर्चस्व स्थापित करने की किसी कोशिश को स्वीकार नहीं करेंगे. सिंगापुर (Singapore) में एक प्रतिष्ठित अध्ययन संस्थान का नेतृत्व कर रहे प्रो. सी राजामोहन ने यह भी कहा कि पूर्वी लद्दाख में चीन की दुस्साहसपूर्ण गतिविधियों तथा कहीं अधिक जमीन हथियाने की उसकी अस्वीकार्य लालसा ने उसके साथ भारत के संबंधों को बुनियादी स्तर पर नये सिरे से निर्धारित करने की परिस्थितियां पैदा की हैं और परस्पर विश्वास बहाली की तीन दशकों की कोशिशों को नुकसान पहुंचाया है.
राष्ट्रवादी जवाबी प्रतिक्रियाएं होंगी शुरू
चीन, दक्षिण चीन सागर और पूर्वी चीन सागर में भी समान रूप से आक्रामक रहा है तथा वियतनाम, इंडोनेशिया, फिलिपीन और मलेशिया जैसे देशों के लिये संकट की स्थिति पैदा की है. प्रो. राजामोहन ने कहा कि चीन गलत जगहों पर अपनी आक्रामकता दिखाने का अंजाम भुगतेगा क्योंकि यह क्षेत्र में शक्ति को पुनर्संतुलित करने की मुहिम सहित राष्ट्रवादी जवाबी प्रतिक्रियाएं शुरू कर सकती है. उन्होंने कहा, ‘हम यह देखने जा रहे हैं कि शेष विश्व किसी एक शक्ति के वर्चस्व को कहीं से भी स्वीकार नहीं करेगा.’
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चीन ने किया गलत आकलन
उन्होंने सिंगापुर से कहा, ‘मुझे लगता है कि यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि चीन ने एशिया में राष्ट्रवाद के स्वभाव का बुनियादी रूप से गलत आकलन किया है. एशिया में ज्यादातर देश राष्ट्रवादी हैं, भारत राष्ट्रवादी है. समूचे दक्षिण पूर्व एशिया में राष्ट्रवाद की मजबूत भावना है.’ प्रो. राजामोहन ने कहा, ‘एक राष्ट्र की इच्छा को दूसरों पर थोपे जाने की कोशिश का उलट नतीजा निकलने जा रहा है क्योंकि चीन जैसे ज्यादातर एशियाई देशों ने औपनिवेशिक शक्तियों के खिलाफ लड़ाई लड़ी है. इसलिए वे एशिया में किसी नयी शक्ति के वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश स्वीकार नहीं करने जा रहे हैं.’
चीन से त्रस्त देश पास आ रहे अमेरिका के
रणनीतिक मामलों के प्रख्यात विशेषज्ञ राजामोहन अभी राष्ट्रीय विश्वविद्यालय सिंगापुर में एशियाई अध्ययन संस्थान के निदेशक के तौर पर सेवा दे रहे हैं. उन्होंने कहा कि चीन अपने आक्रामक व्यवहार से विभिन्न देशों को अमेरिका के नजदीक ला रहा है. बीजिंग को रोकने के लिये शेष विश्व का प्रतिरोध होगा क्योंकि वैश्विक समुदाय एक शक्ति के वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश यूं ही स्वीकार नहीं कर सकता. उन्होंने कहा, ‘चीन ने जो कुछ किया है उसने ज्यादातर देशों को अमेरिका की ओर अग्रसर किया है. हालांकि, ये देश अमेरिका के पास जाने में हिचकते थे या ऐसा करने को अनिच्छुक थे. चीन अपने कई पड़ोसी देशों को अमेरिका के साथ रक्षा एवं सुरक्षा सहयोग सहित मजबूत संबंध बनाने के लिये विवश कर रहा है.’
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भारत से संबंधों को बड़ा झटका
प्रो. राजामोहन ने कहा, ‘इस तरह उसके कार्यों का प्रभाव उसके लिये ही नुकसानदेह है, भले ही क्यों न चीन अपने दृष्टिकोण से इसे विशुद्ध रूप से एक विश्लेषणात्मक चीज के रूप में देख रहा हो. इसलिए मेरा मानना है कि चीन के अंदर भी, मैं इस बात को लेकर आश्वस्त हूं कि ऐसे लोग हैं जो इसे गलत आकलन के रूप में देख रहे हैं और गैर जरूरी गतिविधि की कीमत चीन को चुकानी पड़ेगी.’ उन्होंने कहा कि गलवान घाटी में झड़प सहित पूर्वी लद्दाख में चीन की दुस्साहसपूर्ण गतिविधियों का प्राथमिक प्रभाव भारत-चीन संबंधों को सामान्य बनाने की तीन दशकों की कोशिशों पर पड़ा है. ये कोशिशें 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की चीन यात्रा से और इसके बाद अनेक समझौतों पर हस्ताक्षर किये जाने से शुरू हुईं थी.
आम लोगों में भी विश्वास टूटा
प्रो. राजामोहन ने कहा, ‘सीमा को बदलने की एकतरफा कोशिश कर और लद्दाख सीमांत तथा अन्य स्थानों पर आक्रामक रुख अख्तियार कर चीन ने भारतीय लोगों द्वारा बीजिंग में विकसित किये जा रहे विश्वास को नाटकीय ढंग से नुकसान पहुंचा दिया और इसने संबंधों को बुनियादी स्तर पर नये सिरे से निर्धारित करने के लिये परिस्थितियां पैदा कर दी हैं.’ उन्होंने कहा, ‘क्षेत्र में चीन भले ही कुछ जमीन हथिया ले, लेकिन उसने भारतीय जनमानस में चीन के प्रति क्रमिक रूप से बन रही सद्भावना और भारत के साथ आर्थिक सहयोग के व्यापक फायदों को तिलांजलि दे दी है.’
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बदल रही चीन की नीतियां
भारतीय सीमा पर चीन के व्यवहार के बारे में पूछे जाने पर प्रो. राजामोहन ने कहा कि यह काफी संख्या में भारत के लोगों के लिये भी आश्चर्यजनक हो सकता है, लेकिन यह एक सामान्य पद्धति प्रतीत होती है, जो अन्य स्थानों पर भी दिखी है. उन्होंने कहा कि तंग श्याओपिंग के तहत चीन ने 1980 और 1990 के दशक में क्षेत्रीय विवादों को ठंडे बस्ते में रखने पर सहमति जताई तथा क्षेत्रीय सहयोग पर ध्यान केंद्रित किया. उन्होंने कहा, ‘यह चीन के व्यापक रूपांतरण का हिस्सा है जो शी के नेतृत्व में हो रहा है.’
अमेरिका के खिलाफ खड़ा हो रहा चीन
यह पूछे जाने पर कि क्या चीन विश्व-व्यवस्था बदलने की कोशिश कर रहा है, प्रो. राजामोहन ने कहा कि चीन खुद को अमेरिका के खिलाफ स्थापित कर रहा है और खुद को अमेरिका से आगे निकलने वाले देश के तौर पर देखता है. उसका मानना है उसके पास तरीके हैं और वह वैश्विक-व्यवस्था को पुनर्गठित करने की क्षमता रखता है. उन्होंने कहा कि चीन के व्यवहार का एक नकारात्मक परिणाम यह हुआ है कि यह एशिया में अमेरिका को राष्ट्रवादी भावनाओं का सहयोगी देश बना रहा है. ‘आज, उसकी गतिविधियों की वजह से, अमेरिका एशिया में राष्ट्रवाद का एक स्वाभाविक सहयोगी बन रहा है.’ उन्होंने कहा, ‘क्षेत्र के एकतरफा बदलाव और एकपक्षीय तरीके से शक्ति हासिल करने की आक्रामक कोशिश कर चीन शेष विश्व को अपने खिलाफ खड़ा कर रहा है.’
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चीन पड़ रहा है अलग-थलग
उन्होंने कहा कि पूरा एशिया चीन की ओर देख रहा था क्योंकि उस देश के साथ कहीं अधिक व्यापक आर्थिक अंतरनिर्भरता है, लेकिन आज, चीन के दबाव के चलते शेष विश्व (उससे) अपने कदम पीछे खींच रहा है. उन्होंने कहा कि ज्यादातर देश चीन के साथ आर्थिक सहयोग चाहते रहे हैं लेकिन अब उसकी विस्तारवादी नीतियों के चलते इस तरह के वाणिज्यिक संबंध पर पुनर्विचार कर रहे हैं. उन्होंने कहा, ‘शायद चीन ने यह आकलन किया है कि अन्य देश प्रतिक्रिया नहीं करेंगे या उनके लिये प्रतिरोध करना संभव नहीं है, लेकिन हम 5जी के मामले में देख चुके हैं.’
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