हिंदू-सिखों से खाली हुआ अफगानिस्तान, भारत और यूरोपीय देशों से शरण की गुहार
एक गुरुद्वारे में मौजूद करीब 70-80 अफगान सिख और हिंदू भारत नहीं बल्कि कनाडा या अमेरिका जाना चाहते हैं.
नई दिल्ली:
अफगानिस्तान (Afghanistan) में तालिबान (Taliban) का कब्जा होने के बाद से ही कई देश अपने नागरिकों और अफगान लोगों को काबुल से निकालने की कोशिशें कर रहे हैं. भारत भी उनमें से एक है. अफगानिस्तान से हिंदू-सिख लगभग निकल चुके हैं. तालिबान के काबुल पर कब्जा के स्थिति खराब है. लेकिन ऐसे में भी कई अफगान सिख और हिंदू वहां से जल्दी निकलने की बजाय भविष्य सुरक्षित करने पर फोकस कर रहे हैं. नतीजा ये हो रहा है कि वो भारत की फ्लाइट न लेकर अमेरिका या कनाडा जाने के इंतजार में हैं. लेकिन कुछ हिंदू-सिख ऐसे भी हैं जो किसी भी सूरत में अपना देश नहीं छोड़ना चाहते हैं.
इंडियन वर्ल्ड फोरम के अध्यक्ष पुनीत सिंह चंढोक ने 24 अगस्त को बताया कि एक गुरुद्वारे में मौजूद करीब 70-80 अफगान सिख और हिंदू भारत नहीं बल्कि कनाडा या अमेरिका जाना चाहते हैं. वहीं सन फाउंडेशन के चेयरमैन विक्रमजीत सिंह साहनी ने बताया कि कम से कम 20 सिख काबुल में रह गए हैं और एक समूह स्थानीय गुरुद्वारे से कनाडा के रिफ्यूजी सेंटर में चला गया है. ये फाउंडेशन काबुल से लोगों की निकासी में सहयोग कर रहा है.
संख्या के लिहाज से देखें तो अफगानिस्तान में हिन्दू धर्मावलम्बियों की संख्या कम थी. एक अनुमान के मुताबिक अफगानिस्तान में हिंदुओं की संख्या लगभग 1,000 थी. ये लोग अधिकतर काबुल एवं अफगानिस्तान के अन्य प्रमुख नगरों में रहते थे.
अफगानिस्तान में हिंदुओं की अपेक्षा सिख धर्म के मानने वालों की संख्या ज्यादा थी. तालिबान के काबुल पर कब्जा करने के पहले में वहां सिखों की कुल संख्या 8,000 थी. जो विशेष रूप से वहां प्रमुख शहरों जलालाबाद, गजनी, काबुल और कंधार में रहते थे. ये सिख अफगान नागरिक हैं जो आम तौर पर देशी पश्तो बोलते हैं. लेकिन दारी, हिंदी या पंजाबी भी बोलते हैं.
1980 के दशक में काबुल में 20,000 से ज्यादा सिख थे. और 1990 के दशक से पहले अफगान सिख जनसंख्या का अनुमान लगभग 50,000 था. लेकिन 1992 में गृहयुद्ध की शुरुआत के बाद कई सिख परिवारों ने भारत, उत्तरी अमेरिका, यूरोपीय संघ, यूनाइटेड किंगडम सहित अन्य देशों में पलायन कर गये. गृहयुद्ध के दौरान काबुल के आठ गुरुद्वारों में से सात को नष्ट कर दिया गया था. काबुल के कार्त परवान खंड में स्थित केवल गुरुद्वारा करते परवान बनी हुई है.
अफगानिस्तान पर इस्लाम के आगमन से पूर्व अफगानिस्थान की जनता बहु-धार्मिक थी. वहां पर हिंदू और बौद्ध धर्म मानने वालों का बहुमत था. 11 वीं सदी में अधिकांश हिन्दू मंदिरों को नष्ट कर दिया गया या मस्जिदों में परिवर्तित कर दिया गया.
हिंदू धर्म का वहां कब आरम्भ हुआ इसकी कोई विश्वसनीय जानकारी नहीं है, परन्तु इतिहासकारों का मत है कि, प्राचीन काल में दक्षिण हिन्दूकुश का क्षेत्र सांस्कृतिक रूप से सिंधु घाटी सभ्यता के साथ जुड़ा था. 330 ई. पू. सिकंदर महान और उनकी ग्रीक सेना के आने से पूर्व अफगानिस्तान हख़ामनी साम्राज्य के अधीन हो गया था. तीन वर्ष के पश्चात् सिकन्दर के प्रस्थान के बाद सेलयूसिद साम्राज्य का अंग बन गया.
5 वीं और 7 वीं शताब्दी के मध्य में जब चीनी यात्री फ़ाहियान, गीत यूं और ह्वेन त्सांग ने अफगानिस्तान की यात्रा की थी, तब उन्होंने कई यात्रा वृत्तांत लिखे थे, जिनमें अफगानिस्तान पर विश्वसनीय जानकारी संकलित हुई थी. उन्होंने कहा कि, उत्तर में अमू दरिया (ऑक्सस् नदी) और सिंधु नदी के मध्य के विभिन्न प्रान्तों में बुद्धधर्म के अनुयायी रहते थे.
अफगानिस्तान प्रथम बार हिंदू शब्द 982 ईं में प्रकट हुआ ऐसे प्रमाण मिलते हैं. अफगानिस्तान में हिंदू धर्म का अनुसरण करने वाले अधिकांशत: पंजाबी और सिंधी हैं. 1996 से 2001 में तालिबान के शासन काल में हिंदुओं को अनिवार्य रूप से पीले बैज पहनने का आदेश दिया गया था. वो इस लिये क्योंकि, मस्जिदों में प्रार्थना के समय न जाने वाले मुस्लिमों को दण्डित करते समय गैर-मुसलमानों के रूप में उनका परिचय हो सके. हिन्दू महिलाओं को अनिवार्य रूप से बुर्का पहनने का आदेश था. सार्वजनिक स्तर पर उनकी "रक्षा" और उत्पीड़न को रोकने के लिये ये नियम निर्धारित किये गये थे. परन्तु ये तालिबान की योजना का एक भाग था, जिससे वे "गैर-इस्लामी" और "मूर्तिपूजक" समुदायों को इस्लामी लोगों से पृथक् कर सकें.
उस निर्णय की निंदा भारतीय और अमेरिकी सरकारों ने धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन के आधर पर की थी. जुलाई 2013 में, अफगान संसद ने अल्पसंख्यक समूह के लिये आरक्षित स्थानों के विधेयक (bill) को अस्वीकृत कर दिया था. उस विधेयक के विरुद्ध मतदान किया गया था. तत्कालीन राष्ट्रपति हामिद करजई के शासन में उस विधेयक में जनजातीय लोगों और "महिला" के रूप में "असक्षम वर्ग" को आरक्षण मिला था, परन्तु धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति धार्मिक समानता का अनुच्छेद संविधान में नहीं है.
हिंदू-सिखों से खाली हुआ अफगानिस्तान
अफगानिस्तान में तालिबानी क्रूरता के भयावह दौर में अल्पसंख्यकों का पलायन लगभग पूरा हो चुका है. काबुल पर तालिबानी कब्जे वाली 14 अगस्त की रात से पहले ही यहां रहने वाले हिंदू और सिख परिवार देश छोड़ चुके हैं. उनमें से ज्यादातर लोग भारत, यूरोप, अमेरिका और कनाडा का रूख किया. अभी कुछ काबुल के आसपास छिपकर बुरा वक्त गुजरने का इंतजार कर रहे हैं. इन परिवारों की यहां 50 से ज्यादा दुकानें हैं. इनमें से कुछ अब भी खुली हुई हैं. इन्हें स्थानीय अफगानी चला रहे हैं.
काबुल के पास एक गुरुद्वारे में सिखों के साथ हिंदुओं ने भी शरण ले रखी है. ये लोग अलग-अलग प्रांतों में अपना सबकुछ छोड़कर यहां जुटे हैं. अलग-अलग देशों से शरणार्थी बनाने की गुहार लगा रहे हैं.
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