पत्रकारिता दिवस: अंग्रेजी अनुवाद के वेंटिलेटर पर सांस लेती 'हिंदी पत्रकारिता'
पत्रकारिता की दुनिया में हिंदी के साथ अंग्रेजी का ज्ञान होना भी जरूरी है लेकिन पूरी तरह उस पर निर्भरता होना हिंदी पत्राकरिता को अंधेरें में धकेलना जैसा है.
नई दिल्ली:
सो कर ठीक से उठी भी नहीं थी कि आंख मलते हुए मैंने अपना मोबाइल खोला तो देखा कई लोगों के बधाई संदेश आए थे. मैसेज पढ़ने के बाद याद आया अरे हां आज तो 'हिंदी पत्रकारिता' दिवस है. इसे पढ़ते ही मैं कुछ साल पीछे चली गई जब मैंने कॉलेज के समय में अंग्रेजी को अंग्रेजों की भाषा मानते हुए इसका त्याग कर दिया था और हिंदी भाषा से सच्चा इश्क कर लिया था. हालांकि साहित्यिक हिंदी की पहुंच से अब भी दूर हूं शायद इसलिए क्योंकि पत्रकारिता आम बोलचाल वाली भाषा पर ज्यादा आधारित है. कॉलेज के समय में अपने दोस्तों से कहती कि अंग्रेजी नहीं हिंदी में अपनी महारथ हासिल करों हिंदुस्तान की जड़ें इसी पर आधारित है न कि अंग्रजी पर. अचानक से मैंने अंग्रजी से बहुत दूरियां बना ली यहां तक कि कम्प्यूटर का पेपर भी मैंने हिंदी में ही दिया था, घर से सारी अंग्रजी की किताबें अलमारी के एक कोने में रख दी.
साल बीतते गए और अंग्रजी से मेरा रिश्ता टूटता गया लेकिन जब ग्रेजुएशन के बाद आगे की पढ़ाई करनी थी तो उस समय अंग्रेजी मुंह खोले खड़ा था. लेकिन पंसदीदा कॉलेज का रास्ता भी यहीं से होकर गुजरता था इसलिए मैंने जरूरत के हिसाब से अंग्रेजी पढ़ना शुरू कर दिया. कॉलेज की पढ़ाई के बाद जब नौकरी खोजने का दौर शुरू हुआ तब महसूस हुआ जरूरत के हिसाब से अंग्रेजी दोबारा पढ़ लेनी चाहिए. पत्रकारिता में अनुवाद के हिसाब से मैंने अंग्रेजी समझना सीख लिया फिर भी इसमें महाराथ हासिल नहीं होने की वजह से कई जगह से रिजेक्ट होती रही. हालांकि कड़ी मेहनत, थोड़ा बहुत किताबी ज्ञान और जरूरत जीतनी अंग्रेजी के दम पर नौकरी लग गई. दो साल के पत्रकारिता के करियर में समझ आ चुका है कि हिंदी पत्रकारिता अंग्रेजी अनुवाद पर कितना निर्भर हो चुकी है.
मजबूरी वश ही सही आपको हिंदी पत्रकारिता में जगह बनाने के लिए हिंदी से ज्यादा अंग्रेजी ज्ञान का बोध होना आवश्यक है. आज अधिकतर मीडिया संस्थान नौकरी विज्ञापन में बड़े-बड़े अक्षरों में अंग्रेजी भाषा में महारथ हासिल की बात लिखते है. कई पत्रकार हिंदी में अच्छा लिखते हुए भी बहुत पीछे नजर आते है क्योंकि उनका अंग्रेजी सेक्शन वीक है, शायद ये मजबूत होता तो वो भी हिंदी की जगह अंग्रेजी पत्रकारिता का हिस्सा होते. क्योंकि वैसे भी अंग्रेजी मीडिया हाउस सैलेरी से लेकर सुविधा तक हिंदी से बेहतर स्थिति में है.
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कई मीडिया कंपनी तो ये भी कहती नजर आती है कि आपको बस अंग्रेजी अनुवाद और टाइपिंग आना चाहिए बस फिर आपकी नौकरी पक्की. क्या इसे सुनने के बाद आपको वाकई लगता है हिंदी पत्रकारिता का भविष्य उज्जवल है. लेखनी से ज्यादा अंग्रेजी अनुवाद पर निर्भरता आखिर हिंदी पत्रकारिता में कब तक सांस भर सकती है .
पत्रकारिता में काम कर चुके एक वरिष्ठ पत्रकार ने एक बार मुझसे कहा था कि कभी भी फॉलोवर्स मत बनो बल्कि तुम खुद लीडर बनो, दिशा दिखाओं जिससे लोग तुम्हें फॉलो करें. उनकी बात मुझे हिंदी पत्रकारिता के सापेक्ष में एकदम सटीक लगती है कि हम अंग्रेजी मीडिया के फॉलोवर्स बन चुके है जबकि हिंदी मीडिया का रीडर और दर्शक हिंदी भाषी है. अंग्रेजी से पहले हिंदी भाषा पर पकड़ जरूरी है. कई खबरें ऐसी होती है जो हिंदी मीडिया पहले ब्रेक कर सकते है लेकिन एक अनुवादक तो अंग्रेजी मीडिया के लिखने तक का ही इंतजार कर पाएगा.
माना पत्रकारिता की दुनिया में हिंदी के साथ अंग्रेजी का ज्ञान होना भी जरूरी है लेकिन पूरी तरह उस पर निर्भरता होना हिंदी पत्राकरिता को अंधेरें में धकेलना जैसा है, क्योंकि किसी भी चीज के जरूरत और उस पर निर्भर होने में अंतर होता है. सिर्फ अंग्रेजी अनुवाद में महारथ नहीं होने पर हिंदी पत्रकार को पीछे धकेलना , हिंदी पत्रकारिता को गर्त में ले जाना समान है. बता दें कि आज ही कि दिन यानि कि 30 मई 1826 कानपूर के पं. जुगल किशोर शुक्ल ने प्रथम हिन्दी समाचार पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' का प्रकाशन आरम्भ किया था.
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