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भारत से रिश्ता नाता तोड़ने पर आमादा नेपाल, अब संसद में हिन्दी बोलने पर भी लगेगी पाबंदी?

भारत के साथ अपने सीमाओं को बंद करने के बाद नेपाल की कम्यूनिष्ट सरकार अब अदालत का सहारा लेकर नेपाल की संसद में हिन्दी में बोलने पर पाबंदी लगाने की योजना में है.

Updated on: 26 Jun 2020, 10:27 AM

काठमांडू:

भारत से सदियों पुराने संबंधों को तोड़ने पर अमादा नेपाल, अब अपने संसद में सांसदों को हिन्दी में बोलने पर भी पाबन्दी लगाने की दिशा में आगे बढ़ रहा है. भारत के साथ राजनीतिक और कूटनीतिक बातचीत के सारे रास्ते बन्द करने, भारत के साथ रहे पारिवारिक रिश्तों पर आघात पहुंचाने, भारत के साथ अपने सीमाओं को बंद करने के बाद नेपाल की कम्यूनिष्ट सरकार अब अदालत का सहारा लेकर नेपाल की संसद में हिन्दी में बोलने पर पाबंदी लगाने की योजना में है.

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सत्तारूढ़ दल नेपाल कम्यूनिष्ट पार्टी के वैचारिक संगठन के रूप में रहे नेपाल लयर्स एसोसिएशन से जुड़े वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट में एक पीआईएल दाखिल करते हुए नेपाली संसद के किसी भी सदन में हिन्दी में बोलने पर पाबंदी लगाने की मांग की थी. जिस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने संसद में हिंदी बोलने देने का कारण देते हुए 15 दिनों के भीतर लिखित जवाब प्रस्तुत करने का आदेश दिया है.

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न्यायमूर्ति प्रकाश कुमार ढुंगना की एकल पीठ ने आज अटॉर्नी जनरल के कार्यालय के माध्यम से नेपाल की संघीय सरकार और संसद सचिवालय को लिखित रूप से स्पष्टीकरण देने का आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि संसद में नेपाली भाषा के अलावा अन्य भाषाओं में बोलने की इजाजत क्यों दी जाती है? अधिवक्ता केशर जंग केसी और लोकेंद्र ओली ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर मांग की थी कि नेपाल के संविधान में देवनागरी लिपि की नेपाली भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए.

रिट याचिका में, सांसदों को संघीय संसद के दोनों सदनों में केवल नेपाली भाषा बोलने की इजाजत देने की मांग की गई है क्योंकि यह सरकारी काम की श्रेणी में आता है. रिट याचिका में अब तक जिन सांसदों द्वारा संसद में हिन्दी में भाषण दिया है उसे संसद के रिकॉर्ड से हटाने की भी मांग की गई है. नेपाल की संसद में मधेशी दल के सांसद ही अधिकांश हिन्दी में बोलते हैं या बहस में हिस्सा लेते समय हिन्दी भाषा का इस्तेमाल करते हैं. हिन्दी को लेकर भी काठमांडू में जबरदस्त विरोध होता आया है.

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नेपाल में गणतंत्र की स्थापना के बाद जब यहां पहली बार उपराष्ट्रपति ने हिन्दी भाषा में शपथ ली थी उस समय काफी बबाल मचा था और सर्वोच्च न्यायालय ने उनके शपथ ग्रहण को ही अमान्य कर दिया था. बाद में उपराष्ट्रपति परमानन्द झा को दुबारा नेपाली में शपथ लेकर ही उपराष्ट्रपति के पद की पुनर्बहाली हो पाई थी.