चुनावों में करारी हार के बाद अब समाजवादी पार्टी के सामने ये है सबसे बड़ी चुनौती
राजनीतिक दृष्टि से पार्टी की जमीन सरकती जा रही है और पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव को भी अब पार्टी के भविष्य को लेकर चिंता सता रही है.
लखनऊ:
समाजवादी पार्टी के लिए पिछले कुछ साल सही नहीं बीते. राजनीतिक दृष्टि से पार्टी की जमीन सरकती जा रही है और पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव को भी अब पार्टी के भविष्य को लेकर चिंता सता रही है. जहां एक ओर लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद समाजवादी पार्टी (सपा) को मुस्लिम वोट बैंक को संजोए रखने की चिंता सता रही है वहीं, पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव अब इस कवायद में जुटे हैं कि कैसे अपने इस परंपरागत वोट बैंक को संभाला जाए.
अखिलेश की तैयारी है पार्टी संगठन में प्रतिनिधित्व बढ़ाने के साथ ही अल्पसंख्यकों की समस्याओं को लेकर आंदोलन चलाने की. विधानमंडल के मानसून सत्र के बाद चलाए जाने वाले इस अभियान में अल्पसंख्यकों, पिछड़ों और किसानों पर ही केंद्रित रहने की रणनीति बन रही है.
सूत्र बताते हैं कि प्रदेश की जिन 12 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं, उनमें से केवल एक रामपुर ही सपा के कब्जे में है. ऐसे में रामपुर पर कब्जा बरकरार रखने के साथ समाजवादी अन्य सीटों पर भी बेहतर प्रदर्शन चाहती है. इसके सपा मुखिया अखिलेष यादव विदेश से लौटने के बाद लगातार कार्यकर्ताओं के साथ बैठक कर रहे हैं. उपचुनाव के लिए सीटवार समीक्षा भी कर रहे हैं.
राजनीतिक विश्लेषक राजकुमार सिंह ने बताया कि बसपा मुखिया मायावती ने जिस तरह लोकसभा में ज्यादा सीटें जीती हैं, मायावती की रणनीति है दलित और मुस्लिम को एकत्रित किया जाए. मुस्लिमों को लगता है कि अखिलेश के साथ जुड़ने से सिर्फ यादव वोट बैंक के साथ जुड़ते थे. अगर मायावती के साथ जुड़ेंगे तो दलित और मुस्लिम का अच्छा गठजोड़ होगा. उससे अखिलेश का मुस्लिम वोट बैंक प्रभावित होगा. अखिलेश के सामने बसपा से मुस्लिम वोट बचाए रखने की चुनौती है. अखिलेश के पास मुस्लिम की कोई बड़ी आवाज भी नहीं बची है. आजम हैं भी तो वह अपने ढंग से काम करते हैं.
राजकुमार ने बताया कि अखिलेश को उपचुनाव में अच्छी लड़ाई लड़नी है तो मुस्लिम वोट को बचाना होगा. पिछड़ा वोट बैंक उनसे पूरा खिसक गया है. मुस्लिमों का मानना है कि जो भाजपा को हराएगा, उसी ओर वह अपना रुख करेंगे.
मायावती की आवाज मायने रखती है, क्योंकि वह जोर-जोर से बोल रही हैं कि अखिलेश दलितों को भी अपने साथ नहीं रख पाए और मुस्लिमों को भी नहीं संभाल पाए. ऐसे में सपा के साथ जाना बेकार है. लिहाजा, अब अखिलेश के सामने कई तरह की चुनौतियां हैं, जिनसे उन्हें निपटना होगा.
एक अन्य विश्लेषक रतनमणि लाल ने बताया कि गठबंधन में सपा के जो मुस्लिम में जीते हैं दोनों पार्टियां एक दूसरे का श्रेय लेने में लगे हैं. अब मुस्लिम किसकी वजह से गठबंधन में गए, इसकी होड़ में मायावती ने श्रेय ले लिया. अखिलेश देर से आए. अब वह अपने को मुस्लिम हितैषी बताने में जुटे हैं. यह बसपा के मुस्लिम को जोड़ने का फालोअप है. लेकिन अभी सपा के लिए बहुत देर हो गई है. अखिलेश को ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी.
उन्होंने बताया कि मुस्लिमों को लगता है कि सपा को साथ लेकर चलने की हिम्मत मुलायम और आजम की थी. मुलायम निष्क्रिय हो गए हैं. आजम अब दिल्ली की राजनीति कर रहे हैं. इसीलिए अखिलेश यह भांप गए थे. इसीलिए उन्होंने विष्णु मंदिर बनाने की बात या अन्य मंदिरों में जाना शुरू किया था. यह मुस्लिमों को नगवार गुजरी है, इसीलिए वह अपना रुख बसपा की ओर कर सकते हैं.
बसपा के एक मुस्लिम कार्यकर्ता ने नाम जाहिर न करने की शर्त पर बताया कि "सपा का यादव वोटबैंक भी अब डगमगाता दिख रहा है. यादव बिरादरी के अन्य दलों में गए कई पुराने नेता भी सपा में वापसी के बजाय बसपा को ही पसंद कर रहे है. ऐसे में मुसलमानों को 2022 तक सपा से जोड़ने रखना आसान नहीं होगा."
एक वरिष्ठ मुस्लिम सपा नेता ने कहा कि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) से मुस्लिमों का प्रेम स्थायी नहीं हो सकता, क्योंकि भाजपा से कई बार समझौता कर चुकी मायावती का कोई भरोसा नहीं है. अल्पसंख्यकों के लिए समाजवादी पार्टी ने बहुत काम किया है. इसीलिए यहां मुस्लिमों का स्थायित्व और लगाव दोनों है.
सपा प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा, "सपा में मुस्लिम पदाधिकारी बहुत पहले से हैं. वे लगातार हमसे जुड़ रहे हैं. कोई कहीं और नहीं जा रहा है. सपा हमेशा से अल्पसंख्यकों की हितैषी रही है."
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