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कोरोनावायरस ने दिव्यांगों के जीवन को बुरी तरह किया प्रभावित, जूझ रहे हैं इन दिक्कतों से

52 साल के रमेश बाबू दिव्यांग है, देख नहीं सकते. पेशे से से लेक्चरार रमेश जी इंतजार में हैं कि कोई आए और इनका हाथ पकड़ कर इन्हें यह दौड़ती सड़क पार करा दें लेकिन ये ऐसा वक़्त है जहां किसी का हाथ पकड़ना मना है छूना मना है.

Updated on: 29 Jul 2020, 03:49 PM

नई दिल्ली:

52 साल के रमेश बाबू दिव्यांग है, देख नहीं सकते. पेशे से से लेक्चरार रमेश जी इंतजार में हैं  कि कोई आए और इनका हाथ पकड़ कर इन्हें यह दौड़ती सड़क पार करा दें लेकिन ये ऐसा वक़्त है जहां किसी का हाथ पकड़ना मना है छूना मना है. महामारी कोरोनावायरस ने पूरी दुनिया की जिंदगी को बुरी तरह प्रभावित कर दिया है. लेकिव इस कोरोना काल में दिव्यांगों को खासा दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. इनकी जिंदगी हर दिन समस्याओं से जूझ रहा हैं. 

रमेश बाबू का कहना है कि अब सब इतना आसान नहीं रहा कि सड़क पर कोई आपका हाथ पकड़ कर सड़क पार करा दें, लोग छूने से बचते हैं. वहीं  मैं स्कूल में एक मीटिंग में गया था लेकिन मीटिंग हॉल में मेरा हाथ पकड़ कर कोई वहां तक ले जाने को तैयार नहीं था. पहले जो टीचर मदद करते थे वह भी कोरोना के डर से पीछे हट रहे थे. हालांकि इसमें किसी की गलती नहीं ये बीमारी ही ऐसी है.

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वहीं नीरज जो कि ब्लाइंड है और बैंक में काम करते हैं. वह कहते है कि हम जैसों के लिए सोशल डिस्टेंसिंग के लिए बनाए गए सर्कल मायने नहीं रखते. हम तो जब तक किसी से टकराते नहीं है हमें पता ही नहीं पड़ता कि हमारे आस पास भी कोई है. ऐसे में बाजार में निकलना सामान लाना बहुत मुश्किल हो गया है.

नीरज की पत्नी रंजू भी दिव्यांग है. वो कहती हैं कि सरकारी सिस्टम की तरफ से  हम जैसों को कोरोना के दौर में पूरी तरह अकेला छोड़ दिया गया  है ..पेशे से टीचर रंजू जी कुछ वाजिब सवाल खड़ा करती हैं. वो कहती है कि मान लीजिए कोई हम जैसा कोरोना से संक्रमित हो जाए तो उसके लिए अस्पताल में क्या व्यवस्था है? क्या ब्लाइंड लोगों के लिए वहां कोई खास इंतजाम किया गया.  वहां हमें कौन बाथरूम तक ले जाएगा, ऐसी कोई व्यवस्था सरकार के स्तर पर नहीं की गई है.

दिल्ली में स्थित एक ऐसी संस्था जो कि दिव्यांग बच्चों को पढ़ाने, लिखाने और प्रोफेशनल ट्रेनिंग देने का काम करता है. यह ट्रेनिंग ले रहे कई बच्चे सरकारी नौकरी में अपनी जगह बनाते हैं. इन बच्चों का भी कहना है कि जब उन्हें पता चला कि कुछ भी छूना नहीं है तो लगा जिंदगी में कोई बड़ी मुसीबत आ गई. कई बच्चे ऐसे हैं जो महीनों से अपने होम टाउन नहीं जा पाए.

ब्लाइंड बच्चों के लिए संस्था चलाने वाले और पद्मश्री से सम्मानित जवाहरलाल कौल जी बताते हैं कि पिछले 4 महीने से संस्था को कोई मदद नहीं मिली है कई लोग जो पहले डोनेशन देते थे, वो भी इस समय गायब हो गए ऐसे में बच्चों को सुविधाएं दे पाना बहुत मुश्किल हो गया है.

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कोरोना काल में देश दुनिया के तमाम लोग वर्क फ्रॉम होम कर रहे हैं लेकिन दिव्यांग लोगों के लिए यह काम भी आसान नहीं है. साल  2011 के एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 60 लाख से ज्यादा लोग देख नहीं सकते जबकि डब्ल्यूएचओ के हिसाब से यह आंकड़ा डेढ़ करोड़ के ऊपर है. ब्लाइंड लोग जो पहले रोजगार में थे वह कोविड के इस दौर में लगभग बेरोजगार हो चुके हैं.

हम सभी को यह बात समझनी होगी यह दिव्यांग लोग भी हमारे समाज का एक हिस्सा है. किसी हिस्से को ऐसे मुसीबत के वक्त छोड़ना नाइंसाफी है इसलिए बहुत जरूरी है कि सरकारी सिस्टम समाज के लोग उनकी मदद के लिए आगे आए.