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आजाद हूं और रहूंगा... आजाद की लाश पास जाने से डर रहे थे ब्रितानी

उन्होंने संकल्प लिया था कि वे कभी अंग्रेजों के हाथ नहीं आएंगे और उन्हें फांसी लगाने का मौका अंग्रेजों को कभी नहीं मिल सकेगा. अपने इस वचन को भी आजाद ने पूरी तरह से निभाया.

Updated on: 27 Feb 2021, 11:37 AM

highlights

  • प्रण किया था जीते जी नहीं हाथ आएंगे अंग्रेजों के
  • निस्तेज शव के पास बावजूद डर के नहीं गए सैनिक
  • एक समय महात्मा गांधी के अनन्य अनुयायी

नई दिल्ली:

आज हम जिस आजाद भारत (India) में जी रहे हैं वह कई देशभक्तों की देशभक्ति और त्याग की वेदी से सजी हुई है. भारत आज जहां भ्रष्टाचारियों से भरा हुआ नजर आता है वहीं एक समय ऐसा भी था जब देश का बच्चा-बच्चा देशभक्ति के गाने गाता था. भारत में ऐसे भी काफी देशभक्त तो ऐसे थे, जिन्होंने छोटी सी उम्र में ही देश के लिए अतुलनीय त्याग और बलिदान देकर अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में में अंकित करवाया. इन्हीं महान देशभक्तों में से एक थे चंद्रशेखर आजाद (Chandra Shekhar Azad). चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 को उत्तर प्रदेश के जिला उन्नाव (Unnao) के बदरका नामक गांव में ईमानदार और स्वाभिमानी प्रवृति के पंडित सीताराम तिवारी और श्रीमती जगरानी देवी के घर में हुआ था.

नाम आजाद, पिता स्वतंत्रता और घर जेल
बचपन से ही उन्हें देशभक्ति में रुचि थी. 1920-21 के वर्षों में वे गांधीजी के असहयोग आंदोलन से जुड़े. वे गिरफ्तार हुए और जज के समक्ष प्रस्तुत किए गए, जहां उन्होंने अपना नाम ‘आजाद’, पिता का नाम ‘स्वतंत्रता’ और ‘जेल’ को उनका निवास बताया. उन्हें 15 कोड़ों की सजा दी गई. हर कोड़े के वार के साथ उन्होंने, ‘वंदे मातरम्‌’ और ‘महात्मा गांधी की जय’ का स्वर बुलंद किया. इसके बाद वे सार्वजनिक रूप से आजाद कहलाए. 1922 में गांधीजी द्वारा असहयोग आंदोलन को अचानक बंद कर देने के कारण उनकी विचारधारा में बदलाव आया और वे क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य बन गये. इस संस्था के माध्यम से उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में पहले 9 अगस्त, 1925 को काकोरी कांड किया और फरार हो गये. बाद में एक–एक करके सभी क्रांतिकारी पकड़े गए; पर चंद्रशेखर आज़ाद कभी भी पुलिस के हाथ नहीं आए.

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काकोरी कांड जिसने होश उड़ाए ब्रितानी शासकों के 
चंद्रशेखर आजाद कहते थे कि 'दुश्मन की गोलियों का, हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे'. एक वक्त था जब उनके इस नारे को हर युवा रोज दोहराता. वो जिस शान से मंच से बोलते थे, हजारों युवा उनके साथ जान लुटाने को तैयार हो जाते थे.  चंद्रशेखर आजाद ने 1928 में लाहौर में ब्रिटिश पुलिस ऑफिसर एसपी सॉन्डर्स को गोली मारकर लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया था. आजाद रामप्रसाद बिस्मिल के क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन (एचआरए) से जुड़ने के बाद उनकी जिंदगी बदल गई. उन्होंने सरकारी खजाने को लूट कर संगठन की क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन जुटाना शुरू कर दिया. उनका मानना था कि यह धन भारतीयों का ही है जिसे अंग्रेजों ने लूटा है. रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आजाद ने काकोरी कांड (1925) में सक्रिय भाग लिया था. 

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कहानी आखिरी पलों की
27 फ़रवरी 1931 का वह दिन भी आया जब इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में देश के सबसे बड़े क्रांतिकारी को मार दिया गया. 27 फ़रवरी, 1931 के दिन चंद्रशेखर आज़ाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ बैठकर विचार–विमर्श कर रहे थे कि तभी वहां अंग्रेजों ने उन्हें घेर लिया. चंद्रशेखर आजाद ने सुखदेव को तो भगा दिया पर खुद अंग्रेजों का अकेले ही सामना करते रहे. अंत में जब अंग्रेजों की एक गोली उनकी जांघ में लगी तो अपनी बंदूक में बची एक गोली को उन्होंने खुद ही मार ली और अंग्रेजों के हाथों मरने की बजाय खुद ही आत्महत्या कर ली. आजाद ताउम्र अपने नाम के मुताबिक आजाद ख्याल के रहे और हमेशा ही अपने दृढ़, समर्पित विचारों से ओतप्रोत रहे. उन्होंने संकल्प लिया था कि वे कभी अंग्रेजों के हाथ नहीं आएंगे और उन्हें फांसी लगाने का मौका अंग्रेजों को कभी नहीं मिल सकेगा. अपने इस वचन को भी आजाद ने पूरी तरह से निभाया. कहते हैं मौत के बाद अंग्रेजी अफसर और पुलिसवाले चंद्रशेखर आजाद की लाश के पास जाने से भी डर रहे थे.