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OPEC+ Cuts दुनिया चिंता में, लेकिन भारत निश्चिंत क्यों... जानें क्यों

सऊदी अरब के ऊर्जा मंत्री अब्दुल अजीज बिन सलमान के मुताबिक ओपेक प्लस गठबंधन तेल और अन्य उत्पादों की मांग में संभावित गिरावट आने से पहले आपूर्ति को समायोजित करने की दिशा में काम कर रहा है.

Updated on: 08 Oct 2022, 08:09 PM

highlights

  • ओपेक प्लस गठबंधन दिसंबर से करेगा 2 बैरेल की दैनिक कटौती
  • इससे दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं में महंगाई बढ़ने से टूट की आशंका
  • हालांकि भारत इस कटौती से काफी हद तक रहेगा सुरक्षित

नई दिल्ली:

वॉशिंगटन डीसी में मीडिया से बात करते हुए भारत सरकार के केंद्रीय पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री हरदीप सिंह पुरी (Hardeep Singh Puri) ने भारतीय समयानुसार शनिवार को दो बड़ी बातें कहीं. पहली तो यही कि भारत अपनी सुविधा के अनुसार जहां से ठीक लगेगा वहीं से तेल (Oil) खरीदेगा और भारत को रूस से तेल खरीदने से किसी ने नहीं रोका है. दूसरी बात उन्होंने कही कि भारत (India) कच्चे तेल उत्पादक देशों के समूह ओपेक प्लस और रूस की ओर से तेल उत्पादन में की जाने वाली कटौती को लेकर पहले से आश्वस्त था. इस कटौती से भारत को कोई भी समस्या नहीं होने वाली है. यह अलग बात है ओपेक प्लस और रूस (Russia) की तेल कटौती से जुड़ी घोषणा से वैश्विक स्तर पर मांग और आपूर्ति सिद्धांत के तहत भारी अंतर आने से दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं चिंताओं के बादलों से घिर गई हैं. वजह भी है तेल उत्पादन में कटौती से तेल उत्पादों और गैस की कीमतें आने वाले समय में और बढ़ेंगी, इसका सीधा असर महंगाई (Inflation) पर पड़ेगा. कुछ आर्थिक विशेषज्ञ पहले से ही अगले साल आर्थिक मंदी की आशंका जता रहे हैं. ऐसे में अगले महीने से ओपेक प्लस गठबंधन की हर रोज 2 बिलियन बैरल की कटौती ने स्थितियों के और विकट होने के संकेत दे दिए हैं. ओपेक प्लस के इस निर्णय के पीछे के कारणों को समझते हैं और जानते हैं कि इससे अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा...

ओपेक प्लस क्यों कर रहा है तेल उत्पादन में कटौती
सऊदी अरब के ऊर्जा मंत्री अब्दुल अजीज बिन सलमान के मुताबिक ओपेक प्लस गठबंधन तेल और अन्य उत्पादों की मांग में संभावित गिरावट आने से पहले आपूर्ति को समायोजित करने की दिशा में काम कर रहा है. मांग में संभावित गिरावट को और स्पष्ट करते हुए अब्दुल अजीज कहते हैं कि वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं के धीमा पड़ने से यात्रा और उद्योगों के लिए कम ईंधन की जरूरत पड़ेगी. उन्होंने कहा, 'हम आगे के रास्ते में आने वाली संभावित विविध अनिश्चितताओं के दौर से गुजर रहे हैं. यह बादलों के घने होने जैसा है और ओपेक प्लस इस गिरावट से परे रहना चाहता हैं.' इसके साथ ही उन्होंने ओपेक प्लस समूह की भूमिका संयमी बल बतौर निरूपित की, जो स्थायित्व लाने के लिए काम कर रहा है. काफी समय तक ऊंचाई पर विद्यमान रहने के बाद तेल की कीमतों में गिरावट आई है. अंतरराष्ट्रीय बेंच मार्क ब्रेंट क्रूड में जून के मध्य में 24 फीसदी की गिरावट देखी गई, जब वह 123 डॉलर प्रति बैरल से 93.50 डॉलर प्रति बैरल पर आ गया. इस गिरावट के पीछे एक बड़ा कारण डर रहा. इस डर के पीछे तेल, प्राकृतिक गैस और बिजली की आसमान छूती कीमतों से वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी की आशंका है. इससे मुद्रास्फीति बढ़ेगी और उपभोक्ताओं की खर्च करने की शक्ति कम हो जाएगी.  दूसरा कारण यूक्रेन से युद्ध के फेर में रूस का अधिकांश तेल उत्पादन वैश्विक बाजार तक नहीं पहुंच पाने की संभावना थी. हालांकि पश्चिमी व्यापारियों ने प्रतिबंधों से पहले ही रूसी तेल  खरीदना बंद कर दिया था. खैर, पश्चिम ने रूसी तेल से इंकार किया तो भारत और चीन ने जबर्दस्त डिस्काउंट पर रूसी तेल खरीदा. यानी आपूर्ति पर जिस चोट की संभावना जताई जा रही थी, वैसा कतई नहीं हुआ. इसके अलावा तेल उत्पादक देश वैश्विक अर्थव्यवस्था के अपेक्षा के विपरीत तेजी से नीचे जाने की स्थिति में अभी से सावधान हैं, क्योंकि इससे तेल उत्पादकों की कीमतें भी कहीं तेजी से नीचे आएंगी. ठीक वैसे ही जैसे 2020 कोरोना महामारी काल में हुआ या इससे पहले 2008-2009 में छाई वैश्विक आर्थिक मंदी के दौरान हुआ. 

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पश्चिम कैसे निशाना बना रहा रूसी तेल को
अमेरिका और ब्रिटेन द्वारा यूक्रेन युद्ध के नाम पर रूस पर लगाए गए प्रतिबंध वास्तव में सांकेतिक हैं, क्योंकि दोनों ही रूस से तेल नहीं खरीदते हैं. यही वजह रही कि व्हाइट हाउस यूरोपीय संघ पर निर्यात पर प्रतिबंध लगाने का दबाव बनाता रहा, क्योंकि यूरोपीय संघ के सदस्य देश अपने तेल का चौथाई हिस्सा रूस से लेते हैं. इस कड़ी में 5 दिसंबर को रूस से तेल लेकर आखिरी मालवाहक जहाज यूरोप आया था. हालांकि पूर्वी यूरोपीय संघ के कुछ देशों का पाइपलाइन के जरिए तेल की मामूली आपूर्ति हो रही है. प्रतिबंधों के अलावा अमेरिका और सात प्रमुख लोकतंत्रों का समूह रूसी तेल पर प्राइस कैप की तैयारियों में लगा हुआ है. इसके भी निशाने पर बीमाकर्ता और अन्य सेवा प्रदाता होंगे, जो रूस से अन्य देशों को तेल शिपमेंट की सुविधा प्रदान करते हैं. यूरीपोय संघ ने इसी हफ्ते इन्हीं विकल्पों पर आगे बढ़ने की अनुमति दी है. गौरतलब है कि रूसी तेल को दुनिया के अन्य देशों में पहुंचाने वाले ज्यादातर प्रदाता यूरोप से आते हैं. अब उन्हें ही कीमतें अधिक होने पर रूसी तेल खरीदने से रोका जाएगा. 

तेल कटौती, प्राइस कैप और प्रतिबंधों का टकराव संभव
रूसी तेल को प्राइस कैप के दायरे में लाने का उद्देश्य रूसी तेल कम कीमतों पर वैश्विक बाजार तक पहुंचने देना है. हालांकि रूस ऐसी स्थिति में उन देशों या कंपनियों को आपूर्ति ठप करने की धमकी दे चुका है, जो प्राइस कैप को मानेंगी. इसका हासिल परिणाम जो भी निकले, लेकिन इतना तो तय है कि बाजार में रूसी तेल की और कमी हो जाएगी, जिससे कीमतों में इजाफा होगा. इससे तेल उत्पादक कंपनियों के पंप पर आने वाली लागत पर भी असर पड़ेगा, जो बढ़ेंगी. गौरतलब है कि मध्य जून में अमेरिका में गैसोलीन की कीमत 5.02 डॉलर की रिकॉर्ड ऊंचाई पर थी, इसके बाद गिरने लगीं. अब इनकी कीमतों में फिर से इजाफा होने लगा है, जिसने मध्यावधि चुनाव से एक महीने पहले अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के लिए राजनीतिक संकट खड़ा कर दिया है. जो बाइडन को बीते 40 सालों में सबसे ऊंची मुद्रास्फीति दर का सामना करना पड़ा है. पंप प्राइज 3.87 डॉलर प्रति गैलन में अब 9 सैंट की तेजी आई है. इतनी कीमत आम अमेरिकी एक साल पहले चुका रहा था. 

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क्या ओपेक उत्पादन में कटौती से महंगाई बढ़ेगी 
बिल्कुल. दिसंबर तक ब्रेंट क्रूड की कीमत 100 डॉलर प्रति बैरल पहुंच सकती है, जो पहली की गई 89 डॉलर प्रति बैरल की भविष्यवाणी से कहीं ज्यादा होगी. यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि प्रति दिन 20 लाख बैरल की कटौती का हिस्सा केवल कागजों पर है, क्योंकि कुछ ओपेक प्लस देश अपने कोटे का  उत्पादन करने में ही सक्षम नहीं हैं. ऐसे में ओपेक समूह वास्तव में कटौती के दौरान 1.2 मिलियन बैरल तेल की आपूर्ति कर सकेगा. हालांकि इसका भी कीमतों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ना तय है. तेल की कीमतों के बढ़ने से मुद्रास्फीति बढ़ेगी और इस कारण दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं को ब्याज दरें बढ़ानी पड़ेंगी ताकि अर्थव्यवस्था को धाराशायी होने से बचाया जा सके. यह स्थिति यूरोप में ऊर्जा संकट को और बढ़ाएगी, जो बड़े पैमाने पर हीटिंग, बिजली और कारखानों में उपयोग की जाने वाली प्राकृतिक गैस की आपूर्ति में रूसी कटौती से जुड़ा हुआ है. इसके साथ ही दुनिया भर में गैसोलीन की कीमतों में तेज वृद्धि होगी. ईंधन की कीमतें बढ़ने से लोगों के पास खान-पान और किराये पर खर्च करने के लिए कम रकम बचेगी. अन्य कारण भी तेल की कीमतों को प्रभावित करेंगे, इनमें अमेरिका और यूरोप में मंडराती आर्थिक मंदी समेत चीन को कोविड प्रतिबंधों की मियाद भी शामिल है, जिसने ईंधन की मांग में जबर्दस्त कमी लाने में भूमिका निभाई है. 

रूस के लिए इसके क्या हैं निहितार्थ
विश्लेषकों का कहना है कि गठबंधन में गैर-ओपेक सदस्यों में सबसे बड़े उत्पादक रूस को प्राइज कैप से पहले तेल की ऊंची कीमतों से लाभ होगा. यही नहीं यदि रूस डिस्काउंट पर भी तेल बेचता है, तो भी कम से कम उच्च मूल्य स्तर पर कमी शुरू होती है. इस साल की शुरुआत में उच्च तेल की कीमतें पश्चिमी खरीदारों के प्रतिबंधों की वजह से दूर रहने के बावजूद रूस की अधिकांश बिक्री की भरपाई करती रहीं. और तो और रूस आपर्ति के मार्ग में संशोधन कर अपनी परंपरागत पश्चिमी बिक्री के दो-तिहाई को भारत जैसे देश में मौजूद ग्राहकों तक पहुंचाने में भी कामयाब रहा है. हालांकि इसके बाद मॉस्को ने जून में 21 बिलियन डॉलर से जुलाई में 19 बिलियन डॉलर और फिर अगस्त में 17.7 बिलियन डॉलर की कीमतों और बिक्री की मात्रा में गिरावट भी देखी है. रूस के बजट का एक तिहाई हिस्सा तेल और गैस राजस्व से मिलता है, इसलिए प्राइज कैप से राजस्व के प्रमुख स्रोत को और नुकसान पहुंचेगा. इस बीच, प्रतिबंधों और विदेशी व्यवसायों और निवेशकों की वापसी से रूस की शेष अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर तो पड़ने ही लगा है.