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भारत-थाईलैंड के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध, जानें 'सुदूर भारत' का इतिहास

कई यूरोपीय और भारतीय विद्वानों ने दक्षिण-पूर्व एशिया को 'सुदूर भारत', 'ग्रेटर इंडिया', या 'हिंदू या भारतीय राज्य' के रूप में भी उल्लेख किया है. दक्षिण-पूर्व एशिया के भारतीयकरण का गहराई से अध्ययन करने वाले पहले शख्स एक फ्रैंच विद्वान जॉर्ज कोड्स थे.

Updated on: 21 Aug 2022, 04:20 PM

highlights

  • दो हजार साल से भी कहीं ज्यादा पुराने हैं भारत-थाईलैंड के संबंध
  • दक्षिण-पूर्व एशिया के कई देशों पर भारतीय संस्कृतिक की है छाप
  • हिंदू धर्म के कई देवताओं की इन देशों में होती है पूजा-अर्चना

नई दिल्ली:

भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के सांस्कृतिक और व्यावसायिक संबंधों का एक लंबा इतिहास है. भारत की प्राचीन संस्कृति और पाली भाषा में इन देशों को अलग-अलग नाम से पुकारा गया है. मसलन थाईलैंड को ही कथाकोष, सुवर्णभूमि या सुवर्ण द्वीप के नाम से उल्लेखित किया गया. यही वजह है कि भारत-थाईलैंड की नौंवीं ज्वाइंट कमीशन बैठक में भाग लेने गए विदेश मंत्री एस जयशंकर (S Jaishankar) ने बैंकॉक में देवस्थान जाकर दर्शन किए. वास्तव में देवस्थान थाई शाही दरबार का शाही ब्राह्मण कार्यालय है और थाईलैंड (Thailand) में हिंदुओं का आधिकारिक केंद्र. इसीलिए एस जयशंकर देवस्थान गए और दर्शन करने के बाद फ्रा महाराजगुरु विधि से आशीर्वाद लिया. एस जयशंकर का देवस्थान जाना ही बताता है कि भारत-थाईलैंड एक धार्मिक (Religion) और सांस्कृतिक परंपरा को साझा करते हैं. देवस्थान के दर्शन के बाद एस जयशंकर ने ट्वीट में भी दोनों देशों के सांस्कृतिक संबंधों (Cultural Relations) के लंबे इतिहास पर प्रकाश भी डाला.

दक्षिण-पूर्व एशिया में 'ग्रेटर इंडिया' का निर्माण
अगर इतिहास पर नजर डालें तो दक्षिण-पूर्व एशिया शुरू से भारतीय व्यापारियों के आकर्षण का केंद्र रहा है. मसालों, सुगंधित लकड़ियों खासकर चंदन समेत स्वर्ण व्यापार इस वजह से काफी फला-फूला. अगर हालिया दौर को देखा जाए तो कई यूरोपीय और भारतीय विद्वानों ने दक्षिण-पूर्व एशिया को 'सुदूर भारत', 'ग्रेटर इंडिया', या 'हिंदू या भारतीय राज्य' के रूप में भी उल्लेख किया है. दक्षिण-पूर्व एशिया के भारतीयकरण का गहराई से अध्ययन करने वाले पहले शख्स एक फ्रैंच विद्वान जॉर्ज कोड्स थे. उन्होंने ही दक्षिण-पूर्व एशिया के लिए 'सुदूर भारत' शब्द को गढ़ा. इस शब्द के जरिये जॉर्ज ऐसे देशों का जिक्र करते थे, जहां उन्होंने भारतीय सभ्यता सरीखी गतिविधियों को देखा. भौगोलिक तौर पर देखें तो जॉर्ज ने इस शब्द का उल्लेख वियतनाम, लाओस, थाईलैंड, म्यांमार और मलय देशों के लिए किया. संस्कृत, बौद्ध और जैन ग्रंथों से संकेत मिलता है कि भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के संबंध दो हजार साल पुराने हैं. समुद्री यत्राओं और इस माध्यम से होने वाले व्यापार ने भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के पास लाने का काम किया. इतिहासवेत्ता कर्मवीर सिंह ने अपने एक रिसर्च पेपर 'कल्चरल डाइमेंशन ऑफ इंडिया-थाईलैंड रिलेशंसः ए हिस्टॉरिकल पर्सपेक्टिव' में लिखा है कि दक्षिण-पूर्व देश पहुंचे व्यापारी अपने साथ भारतीय धर्म, संस्कृति, परंपराएं, रीति-रिवाज और दर्शन भी ले गए. इन व्यापारियों के साथ ब्राह्मण पुरोहित, बौद्ध भिक्षु, विद्वान और घूमने-फिरने के शौकीन लोग भी यहां पहुंचे. इन सभी लोगों ने दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. कुछ भारतीय व्यापारियों और ब्राह्मणों ने स्थानीय लड़कियों से शादी कर ली और वहीं बस गए. कुछ भारतीयों को स्थानीय शासकों ने अपने दरबार में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों से भी नवाजा.

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हिंदू उपनिवेशवाद का सिद्धांत
1968 में लिखी 'द इंडियननाइज्ड स्टेट्स ऑफ साउथईस्ट एशिया' किताब में जॉर्ज कोड्स लिखते हैं कि साझे दौर की शुरुआत से परस्पर संबंधों के फलस्वरूप भारतीय राज्यों का निर्माण हुआ. हालांकि उन्होंने पाठकों से भारतीय राज्यों को सही संदर्भों में समझने की वकालत भी की. उन्होंने लिखा, दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीयों के विस्तार की यूरोपीय उपनिवेश से तुलना नहीं की जा सकती है. इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि भारतीय दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों और उनके लोगों से पूरी तरह अनजान नहीं थे. भारत के इन देशों से काफी पहले से व्यापारिक रिश्ते थे. 20वीं सदी की शुरुआत में भारत के राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने दक्षिण-पूर्व एशिया के प्राचीन भारतीय राज्यों को भारत का उपनिवेश करार दिया. उदाहरण के तौर पर इतिहासकार आरसी मजूमदार ने लिखा है, 'हिंदू उपनिवेशवादी अपने साथ अपनी संस्कृति और सभ्यता का पूरा तंत्र लेकर गए. फिर इसे पूरी तरह से स्थानीय लोगों पर लागू कर दिया, जो अभी तक आदिम बर्बरता के दौर से उबर नहीं सके थे.' हालांकि हाल ही में उपनिवेशवाद के इस सिद्धांत को पूरी तरह से खारिज कर दिया गया. इस सिद्धांत को खारिज करने के लिए तर्क दिया गया कि प्राचीन दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों पर भारत का विजय प्राप्त करने या परोक्ष राजनीतिक हस्तक्षेप का बहुत कम प्रमाण मिलता है. 

दो हजार साल से ज्यादा पुराने हैं दक्षिण-पूर्व एशिया से भारत के संबंध
दक्षिण-पूर्व एशिया में पहले भारतीय देश बतौर फुनान का जिक्र आता है, जो आधुनिक कंबोडिया का पूर्वज करार दिया जा सकता है. दूससे देश के नाम पर दक्षिणी वियतनाम का लिन यी का जिक्र आता है. इन दोनों देश का उदय वर्तमान दौर की दूसरी शताब्दी में हुआ. समकालीन दक्षिण पूर्व एशियाई समाज में भारत से हुए परस्पर संबंधों के सांस्कृतिक प्रभाव के कई प्रमाण मिलते हैं. थाईलैंड, मलय प्रदेश और जावा की स्थानीय भाषा में भारतीय संस्कृत, पाली और द्रविडियन सभ्यता के दौरान इस्तेमाल हुए कई शब्दों का मिश्रण देखने को मिलता है. थाई भाषा तो दक्षिणी भारतीय पल्लव वर्णमाला से ली गई लिपि में लिखी गई है. संभवतः दक्षिण-पूर्व एशिया पर भारत का सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभाव धर्म के क्षेत्र में था. इसी वजह से दक्षिण-पूर्व एशिया के इन देशों में शैववाद, वैष्णववाद, थेरावाद, महायान बौद्ध धर्म और फिर कालांतर में सिंहली बौद्ध धर्म प्रचलित हुआ. इतिहासकार कर्मवीर सिंह के मुताबिक, 'राजनीतिक और प्रशासनिक संस्थाएं और विचार खासकर दैवीय अवतार और शासकों में बहुत हद तक भारतीय प्रथाएं देखने को मिलती है. उदाहरण के लिए थाईलैंड के राजा को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है.' यही नहीं, कठपुतली के खेल और रंगमंच पर रामायण और महाभारत की कथाओं का नियमित मंचन होता है. वास्तुकला पर भी भारतीय छाप परिलक्षित होती है. जावा का बोरोबोदुर स्तूप, कबोडिया का अंगकोरवाट मंदिर, वियतनाम का माय सन मंदिर क्षेत्र में भारतीय प्रभाव के बेहतरीन उदाहरण हैं. 

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भारत के थाईलैंड से धार्मिक संबंध
वर्तमान दौर की शुरुआती शताब्दियों में थाईलैंड को ऐतिहासिक तौर पर सियाम के नाम से जाना जाता था, जिस फुनान साम्राज्य का शासन था. छठवीं सदी में फुनान साम्राज्य के पतन के बाद यह बौद्ध साम्राज्य द्वारावती के आधिपत्य में आया. दसवीं सदी में इस पर खमेर शासन हुआ, जिसके भारत के साथ नजदीकी संबंध थे. इतिहासकार कर्मवीर सिंह ने अपने लेख में उल्लेख किया है ईस्वी के वर्तमान दौर या उससे भी पहले के समय से थाईलैंड पर भारतीय सांस्कृतिक प्रभाव था. इसका प्रमाण पुरात्तव, प्राचीन लेखों और अन्य साक्ष्य भी देते हैं. 'ताकुआ-पा में मिला तमिल भाषा  का शिलालेख इस बात की पुष्टि करता है कि दक्षिण भारत के पल्लव राज्य और दक्षिणी थाईलैंड के बीच व्यापारिक संबंध थे. दक्षिण भारत के मणिकर्राम के नाम से लोकप्रिय व्यापारिक समुदाय ने दक्षिणी थाईलैंड में अपनी एक बस्ती बसाई. इसके साथ ही अपना मंदिर और तालाब बनाया. वे वहां एक स्व-निहित कॉलोनी के रूप में बस गए थे.'

हिंदू और बौद्ध धर्म का सह-अस्तित्व
यहां यह जानना भी कम रोचक नहीं है कि 13वीं सदी में सुखोताई युग से भी पहले थाईलैंड में ब्राह्मणवाद और बौद्ध धर्म सह अस्तित्व में रहे. द्वारावती साम्राज्य में मॉन शासकों और फिर खमेर शासकों ने बौद्ध धर्म को प्रश्रय दिया और कई बौद्ध प्रतीकों और धार्मिक मठों का निर्माण किया. इसके साथ ही वे अपने आचार-व्यवहार में ब्राह्मण रीति-रिवाजों और नियम-कायदों को अमल में लाते थे. हिंदू और बौद्ध धर्म का प्राचीन सह अस्तित्व इस तथ्य से भी जाहिर होता है कि आज का आधुनिक दौर का थाईलैंड एक बौद्ध बहुसंख्यक देश है, लेकिन देश में ऐसे कई मंदिर हैं जहां बौद्ध और हिंदू धर्म से जुड़े देवताओं की मूर्ति एक साथ रखी मिल जाएगी. हिंदू धर्म के सर्विविदत देवताओं गणेश, ब्रह्मा, विष्णु और शिव समेत ऐसे देवताओं जो भारत के सामाजिक-धार्मिक परिदृश्य पर सामान्यतः नहीं पूजे जाते हैं जैसे कि इंद्र की पूजा भी थाईलैंड में होती है. 

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थाईलैंड में रामायण बनी सांस्कृतिक अभिवयक्ति का माध्यम
2005 में प्रकाशित किताब 'हिंदुइज्म इन थाई लाइफ' में एसएन देसाई लिखते हैं कि महाकाव्य रामायण की तुलना में हिंदू मूल की किसी भी चीज ने थाई जीवन को गहराई से प्रभावित नहीं किया है. थाईलैंड में रामकीर्ति या रामकिन के नाम से लोकप्रिय रामायण ने आमजन और श्रेष्ठि वर्ग के बीच सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का दर्जा हासिल कर रखा है. बौद्ध मंदिरों की दीवारों पर रामायण से जुड़ी कथाएं उकेरी हुई हैं, तो नाटकों के मंचन और बैले डैंस की प्रस्तुतियों तक में इसकी कथाओं को स्थान दिया जाना आम है. यह तब है जब थाईलैंड में राम की कहानी का कोई पुरातात्विक प्रमाण मौजद नहीं है. हालांकि थाईलैंड के कुछ शहरों में राम के जीवन से जुड़ी किंवदंतियां जरूर प्रचलित हैं. उदाहरण के तौर पर मध्य थाईलैंड के अयुथ्थया  का नाम भगवान राम की जन्मस्थली अयोध्या पर रखा गया है. देसाई लिखते हैं, '13वीं सदी के बाद से कई थाई शासकों ने अपने नाम के साथ राम नाम जोड़ा, जो फिर एक पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाई जाने वाली परंपराबन गई. आज भी थाई राजा के नाम के साथ राम नाम जुड़ा हुआ है.'