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सिर्फ सीमा विवाद तक सीमित नहीं Ladakh, समझें China के सामरिक खेल को

हालिया दौर में लद्दाख विवाद बीजिंग के राजनीतिक उद्देश्यों की बेहद चतुराई से पूरा कर रहा है. पीएम नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भारत का कद वैश्विक मंच पर बहुत बड़ा हो चुका है.

Updated on: 08 Aug 2022, 03:04 PM

highlights

  • शी जिनपिंग लद्दाख का इस्तेमाल घरेलू समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए कर रहे
  • ड्रैगन का इतिहास गवाह उसने हर युद्ध का प्रयोग घरेलू असंतोष दबाने में किया
  • अब एलएसी विवाद के साथ-साथ तिब्बत है भारत-चीन के लिए बहुत बड़ी चुनौती

नई दिल्ली:

कोरोना महामारी ने चीन की अर्थव्यवस्था (Economy) को भी झटका दिया है और अब उसे भी आर्थिक मंदी का सामना करना पड़ रहा है. ऐसे में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) और उसके सर्वोच्च नेता शी जिनपिंग (Xi Jinping) के समक्ष विकराल संकट आ खड़ा हुआ है. 1949 में सरकार में आने के बाद से सीसीपी को आज तक ऐसे गंभीर संकट का सामना नहीं करना पड़ा. 22 मई को नेशनल पीपुल्स कांग्रेस और उसके साथ ही चीनी जन परामर्शदात्री सम्मेलन में सीसीपी के समक्ष इन चुनौतियों ने सिर उठाया था. चीनी जन परामर्शदात्री सम्मेलन वास्तव में बेहद शक्तिशाली राजनीतिक सलाहकार निकाय है. इसमें कोरोना महामारी (Corona Epidemic) से निपटने और लगातार बढ़ते आर्थिक संकट (Economic Slowdown) को लेकर किसी भी तरह के असंतोष को पहले से ही दबाने के प्रयास शुरू कर दिए गए. हालांकि केंद्रीय सैन्य आयोग के अध्यक्ष और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के समक्ष एक भी राजनीतिक चुनौती नहीं है. यह अलग बात है कि अर्थव्यवस्था के ढह जाने की आशंका के बीच चीन के खिलाफ वैश्विक स्तर पर बढ़ती नाराजगी ने चीनी राष्ट्रवाद (Nationalism) को और बढ़ावा दिया है. इसकी वजह यह है कि वैश्विक नाराजगी ने विदेशी खतरों को लेकर चीन के पुराने डर को फिर से उभार दिया है.

एनपीसी के सत्र के निहितार्थ
नेशनल पीपुल्स कांग्रेस में अगले पांच सालों के लिए विकास योजनाओं का खाका खींच उस पर चर्चा की गई. एनपीसी के इस सत्र के आयोजन के जरिये शी जिनपिंग को एक मंच भी उपलब्ध कराया गया, जहां से वह कोरोना महामारी पर घरेलू समेत वैश्विक स्तर पर अपनी बात रख सकते थे. घरेलू मोर्चे के लिहाज से शी जिनपिंग का संदेश परंपरागत परिपाटी के अनुरूप था, तो शी का संबोधन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दृढ़ और आक्रामक ही रहना था. शी के इसी वैश्विक संबोधन के परिप्रेक्ष्य में पूर्वी लद्दाख से सिक्किम के बीच 3,488 किमी लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा के कई बिंदुओं पर विद्यमान गतिरोध को देखा जाना चाहिए. एनपीसी में शी जिनपिंग का यह कदम बहुआयामी रहा. इसने न सिर्फ आर्थिक संकट समेत हांगकांग और ताइवान रूपी घरेलू समस्याओं से चीनी अवाम का ध्यान हटाया, बल्कि शी ने भारत को एक ऐसे खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया, जो पाकिस्तान और हालिया दिनों में नेपाल के खिलाफ रहता है. बीजिंग मानता है कि वुहान से निकली कोरोना महामारी से निपटने में उसके ढुल-मुल रवैये पर भारत ने ही वैश्विक असंतोष को हवा दी. इसके साथ ही पूर्वी लद्दाख में हिंसक संघर्ष में पीएलए के जवानों ने जो आक्रामकता दिखाई वह चीन का सामरिक खेल है, जो सिर्फ वैलियो क्लब और परदे के पीछे सक्रिय चीन विरोधी ताकतों को सबक सिखाने का अंदाज दर्शाता है. चीन ने इस फेर में ग्लोबल टाइम्स के जरिये भारत की छवि सिक्किम और लद्दाख में आक्रमणकारी सरीखी प्रस्तुत की. यही नहीं, ग्लोबल टाइम्स ने भारत पर दबाव बनाने की भी कोशिश की कि वह चीन के खिलाफ अमेरिका संग अपने गठबंधन का नए सिरे से आकलन करे. 

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ऐसा करते आए हैं चीनी नेता
पीपुल्स लिबरेशन आर्मी 1960 के एक नक्शे का इस्तेमाल करती है, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री झोउ इन लाई ने पेश किया था. इस नक्शे में लद्दाख में चीन के विस्तारवाद को दर्शाया गया. हालांकि जमीनी स्तर पर इसमें रत्ती भर भी समानता नहीं है. इसमें 1962 और 1999 में कारगिल युद्ध के बाद आए बदलावों को शामिल नहीं किया गया. यह कतई संयोग नहीं है कि शी जिनपिंग लद्दाख में सैन्य बल का इस्तेमाल घरेलू स्तर पर आम जनता का ध्यान हटाने के लिए कर रहे हैं. ठीक वैसे ही जैसे 1962 युद्ध का उपयोग तत्कालीन राष्ट्रपति माओ जेदोंग या माओत्से तुंग ने चीन में पड़े भयंकर सूखे से ध्यान हटाने के लिए किया था. माओ की ग्रेट लीप फॉरवर्ड क्रांति विफल रही थी. एक और चीनी नेता डेंग जियाओपिंग ने 1979 में वियतनाम युद्ध का इस्तेमाल आंतरिक असंतोष को दबाने में किया. इसके बाद ही डेंग ने आर्थिक सुधारों की शुरुआत की. 

लद्दाख विवाद से पूरे हो रहे चीन के राजनीतिक उद्देश्य
हालिया दौर में लद्दाख विवाद बीजिंग के राजनीतिक उद्देश्यों की बेहद चतुराई से पूरा कर रहा है. पीएम नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भारत का कद वैश्विक मंच पर बहुत बड़ा हो चुका है. अमेरिका और एशियान के बाद भारत तीसरा सबसे बड़ा बाजार है और संभव है कि चीन के आर्थिक पुनरुद्धार का जरिया भी बन सके. सैन्य शक्ति बतौर भी देखें तो युद्ध भारत और चीन दोनों के ही हित में नहीं है. ऐसे किसी भी एडवेंचर की बहुत बड़ी आर्थिक और राजनीतिक कीमत दोनों ही देशों को चुकानी पड़ेगी. इस लिहाज से अगर आकलन किया जाए तो पाकिस्तान और नेपाल इस खांचे में फिट नहीं बैठते हैं. और तो और, 2017 में डोकलाम विवाद से भूटान पर कतई कोई फर्क नहीं पड़ा था. 

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भारत को अब हल्के में नहीं ले रहा चीन
सच्चाई तो यह है कि पूर्वी लद्दाख में एलएसी के पास सामरिक लिहाज से महत्वपूर्ण दारबुक श्योक दौलत बेग ओल्डी सड़क हो या मध्य-पूर्वी सेक्टर में सड़कों का निर्माण हो इन सभी को चीन वास्तव में भारत की सैन्य ताकत के लिहाज से बनवा रहा है. गलवान घाटी या पैगोंग त्सो झील के पास भारत-चीन सैनिक आमने-सामने आ चुके हैं. इसके बाद संस्थागत कूटनीतिक और सैन्य स्तर पर दोनों ही देश बातचीत कर तनाव और विवाद को कम करने के प्रयासों में लगे हैं. पश्चिमी और पूर्वी सेक्टर में वास्तविक नियंत्रण रेखा प्राकृतिक तौर पर अपरिभाषित है. ऐसे में भारतीय सेना के पास भी नक्शे के जरिये अपने कब्जे वाले इलाकों को दिखाने का विकल्प खुला हुआ है. यद्यपि चीन अपनी दीर्घकालिक योजना के तहत एलएसी के जरिये भारत को अस्थिर करने की कोशिश कर रहा है. फिर भी नई दिल्ली ऐसे तमाम विवादास्पद मसलों पर खुल कर सामने नहीं आ रहा है. दिल्ली का ऐसा कोई भी कदम उसकी कमजोरी बतौर ही देखा जाएगा. भले ही वह अच्छे से सोच-विचार कर बेहतरी के लिए ही क्यों न उठाया जाए. ऐसे में विभिन्न मसलों को सैन्य कमांडरों और कूटनीति के जानकारों के लिए छोड़ दिया गया है. 

भारत के साथ द्विपक्षीय समस्याएं सामने हैं विद्यमान
विशेषज्ञों के मुताबिक दोनों देशों को वुहान या महाबलीपुरम जैसी मुलाकातों की तरह खुली बातचीत करने की जरूरत है. इसके जरिये बेपटरी संबंधों को पटरी पर लाकर द्विपक्षीय संबंधों को बगैर किसी तीसरे पक्ष के संदेह के आगे बढ़ाया जा सकेगा. हालांकि कहने-सुनने में यह जितना आसान लग रहा है, उतना है नहीं. भारत में निर्वासित जीवन जी रहे 84 साल के तिब्बती नेता दलाई लामा के रूप में एक और चुनौती है, जो दोनों ही के दरवाजे पर दस्तक दे रही है. दलाई लामा के उत्तराधिकारी की अभी तक घोषणा नहीं हुई है. दलाई लामा के बाद दूसरे सबसे बड़े तिब्बती धार्मिक शख्सियत पंचेन लामा अब 31 साल के हो गए हैं और 17 मई 1995 को संदिग्ध तौर पर गायब हो जाने के बाद ऐसी खबरें हैं कि वह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के संरक्षण में रह रहे हैं. यह स्थिति अपने आप में एक बड़ी चुनौती है, जिसका प्रभाव दोनों देशों की संप्रभुत्ता पर पड़ना तय है. ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के पास परस्पर बातचीत के दरवाजे हर समय खुले रखने का एकमात्र विकल्प बचता है. ध्यान रखने वाली बात यह है कि एनपीसी भले ही 28 मई को खत्म हो गई है, लेकिन भारत के साथ चीन की द्विपक्षीय समस्याएं अभी खत्म नहीं हुईं हैं.