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SSLV अंतरिक्ष के बाजार में ISRO और India का बढ़ाएगा कद

भले ही रविवार को एसएसएलवी का प्रक्षेपण आंशिक तौर पर ही सफल रहा, लेकिन इतना तय है कि आने वाले समय में यह इसरो का प्रमुख लांच व्हीकल (launch Vehicle) होगा. इसके साथ ही यह अंतरिक्ष बाजार में भारत का कद बढ़ाएगा.

Updated on: 08 Aug 2022, 09:56 AM

highlights

  • छोटे सैटेलाइट्स के दौर में इसरो के लिए एसएसएलवी बनेगा लांच व्हीकल
  • फिलहाल तक पीएसएलवी के जरिये अंतरिक्ष में भेजे जाते हैं सैटेलाइट्स
  • एसएसएलवी जल्दी-जल्दी और कम कीमत में भेजेगा छोटे सैटेलाइट्स को

नई दिल्ली:

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के लिए रविवार का दिन बेहद खास था. इस दिन स्मॉल सैटेलाइट लांच व्हीकल (SSLV) का प्रक्षेपण किया गया, जो अपने साथ दो छोटे सैटेलाइट (Satellite) अंतरिक्ष में लेकर गया. एसएसएलवी के इस प्रक्षेपण का बीते कई सालों से इसरो समेत अंतरिक्ष विज्ञानी सांस थामे इंतजार कर रहे थे. हालांकि पिछले तीन सालों में अलग-अलग कारणों से इसका प्रक्षेपण कई बार टला. कोरोना महामारी (Corona Epidemic) तो एक बड़ा कारण था ही, इसरो की ओर से भी कुछ विलंब हुआ. इस कड़ी में रविवार को रॉकेट अपनी पहली फ्लाइट पर रवाना हुआ. इसके साथ दो सैटेलाइट ईओएस-02 और आजादीसैट भी भेजे गए. हालांकि सफल प्रक्षेपण के बाद एसएसएलवी अपने टर्मिनल चरण में डेटा लॉस का शिकार हो गया. हालांकि बाकी केचरणों ने उम्मीद के अनुरूप प्रदर्शन किया था. इसरो का कहना है कि फ्लाइट की टर्मिनल स्टेज में डेटा लॉस हुआ है और वह यह जानने की कोशिश कर रहे हैं आखिर हुआ क्या. एसएसएलवी के इस प्रक्षेपण ने एसएसएलवी रॉकेट को लेकर थोड़ा संशयग्रस्त जरूर कर दिया है, लेकिन इतना तय है कि आने वाले समय में यह इसरो का प्रमुख लांच व्हीकल (launch Vehicle) होगा. 

कम समय और कम लागत में तैयार रॉकेट
इसरो द्वारा तैयार किया गया यह ऐसा रॉकेट है जिसे महज 72 घंटों में 5 से छह लोगों की टीम असेंबल कर सकती है. फिलहाल जो रॉकेट इस्तेमाल में आ रहे हैं, उनकी तुलना में इसकी कीमत दसवां हिस्सा भी नहीं है. यह रॉकेट भारत से हर सप्ताह प्रक्षेपित किया जा सकता है. दूसरे इसके जरिए खासतौर पर छोटे और  माइक्रो सैटेलाइट अंतरिक्ष में भेजे जा सकते हैं. जिसके लिए अभी तक पीएसएलवी का इस्तेमाल होता आया है. गौरतलब है कि आजकल अंतरिक्ष में 90 फीसदी छोटे और माइक्रो सैटेलाइट ही भेजे जा रहे हैं. कह सकते हैं कि ऐसे तमाम कारण हैं, जिनकी वजह से एसएसएलवी को गेमचेंजर कहा जा रहा है. इसकी मदद से भारत के स्पेस सेक्टर में आमूल-चूल बदलाव लाया जा सकेगा. हालांकि रविवार को प्रक्षेपण के पूरी तरह से सफल नहीं होने से इस कड़ी में थोड़ा विलंब जरूर हो सकता है.  

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छोटे सैटेलाइट्स का दौर और इसरो की महत्वाकांक्षा
काफी लंबे समय से 5 से 1,000 किलोग्राम वजन के छोटे सैटेलाइट्स को पीएसएलवी सरीखे बड़े रॉकेट के साथ भेजा जा रहा था. इस कड़ी में छोटे सैटेलाइट्स को लांचिंग के लिए काफी इंतजार करना पड़ता था. इसकी एक बड़ी वजह यह भी थी कि बड़े, प्राइमरी सैटेलाइट को पहले तरजीह दी जाती थी. इंतजार की घड़ियां इसलिए श्रमसाध्य हो जाती थी कि बदलते दौर में व्यावसायिक संस्थाएं, सरकारी एजेंसियां और विश्वविद्यालय तक अपने-अपने स्तर पर सैटेलाइट बना उन्हें अंतरिक्ष में भेजने की जुगत में है. एक लिहाज से बीते आठ से 10 सालों में छोटे सैटेलाइट का प्रक्षेपण की मांग बहुत तेजी से बढ़ी है. एक अनुमान के मुताबिक आने वाले एक दशक में दसियों हजार छोटे सैटेलाइट अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किए जाएंगे. ऐसे में सैटेलाइट बनाने वाले और ऑपरेटर्स किसी रॉकेट में जगह मिलने का इंतजार नहीं कर सकते. वह भी तब जब उन्हें प्रक्षेपण के लिए बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ती है. ऐसे में एक साथ दुनिया के विभिन्न अंतरिक्ष संगठन एक मुश्त सैटेलाइट रॉकेट से भेजने लगे. इन देशों में भारत भी आता है, जो एक साथ कई सैटेलाइट अंतरिक्ष में भेज चुका है. हालांकि इसके लिए उसने पीएसएलवी का इस्तेमाल किया. छोटे सैटेलाइट की होड़ में स्पेसएक्स के स्टार लिंक या वनवेब सैकड़ों सैटेलाइट को समूह में भेज रहे हैं. इस होड़ में ऐसे रॉकेट की मांग तेजी से उठने लगी, जो कम कीमत में जल्दी-जल्दी अंतरिक्ष में छोटे सैटेलाइट लेकर जा सके. यह इसरो जैसे लंचिंग क्षमता वाली एजेंसियों के लिए भी एक आकर्षक व्यावसायिक अवसर की तरह है.  यही वजह है कि सरकारी और निजी क्षेत्र की कई कंपनियां लाचिंग सेवा देने की दौड़ में शामिल हो गए. भारत जैसे देश में स्पेस सेक्टर अब निजी क्षेत्रों के लिए भी खोल दिया गया है. इसके बाद तीन निजी कंपनियां ऐसे रॉकेट के निर्माण में जुटी हैं, जो छोटे सैटेलाइट को अंतरिक्ष में ले जा सकें. ऐसे में छोटे सैटेलाइट को अंतरिक्ष में भेजने की बढ़ती मांग और इस व्यावसायिक अवसर को लपकने के लिए इसरो ने भी एसएसएलवी का निर्माण किया है. इसरो का मकसद एसएसएलवी के बढ़ते बाजार का हिस्सा बनना है. गौरतलब है कि भारत की एकमुश्त छोटे सैटेलाइट्स भेजने की लागत अमेरिका, यूरोप या चीन के मुकाबले काफी कम आती है. 

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एक साल में 50 से 60 लांच अंजाम देगा एसएसएलवी
इसरो हाल-फिलहाल पीएसएलवी और जीएसएलवी की मदद से 5 से 6 लांच करता है. इन रॉकेट को असेंबल करने में 70 से 80 दिन लग जाते हैं. इसके अलावा इस काम में दर्जनों लोगों की टीम भी लगती है. यही नहीं, प्रत्येक प्रक्षेपण में दसियों मिलियन डॉलर का खर्चा अलग से आता है. यद्यपि इनमें से कई बार व्यावसायिक सैटेलाइट भी अंतरिक्ष में भेजे जाते हैं. हालांकि इसके एवज में जो कीमत मिलती है, वह आने वाली लागत के अनुरूप नहीं होती. ऐसे में एसएसएलवी की सफलता से पूरी की पूरी तस्वीर बदल जाएगी. माना जाता है कि एसएसएलवी तीन दिनों में ही छोटे सैटेलाइट्स को अंतरिक्ष में छोड़ कर लौट आएगा. इसके साथ प्रत्येक लांच का खर्चा भी पीएसएलवी की तुलना में काफी कम आएगा. एसएसएलवी में 500 किलो भार वाले छोटे सैटेलाइट्स को पृथ्वी की सतह से 1000 किमी ऊपर यानी लोअर अर्थ ऑर्बिट में स्थापित कर लौट आने की क्षमता है. यह वह जगह है जहां सैटेलाइट को ज्यादातर स्थापित किया जाता है. सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसरो एसएसएलवी के जरिये लांच रेट को नाटकीय ढंग से बढ़ा सकता है. इसरों के अधिकारियों के मुताबिक एसएसएलवी के जरिये इसरो एक साल में 50 से 60 लांच कर सकता है. दूसर शब्दों में कहें तो हर हफ्ते एक लांच. हाल-फिलहाल इसरो महज से दो से तीन लांच ही साल भर में कर पाता है.