हड़प्पा सभ्यता से 5000 साल पहले कच्छ में इंसानों के रहने के मिले सबूत, शोध में हुआ खुलासा

Study on Kutch: मानव सभ्यता का पता लगाने के लिए आज भी दुनियाभर में तमाम रिसर्च और खोज हो रही हैं. हाल ही में एक ऐसी ही रिसर्च की गई. जो गुजरात के कच्छ में की गई. जिसमें पता चला है कि हड़प्पा सभ्यता से पहले ही कच्छ में इंसानों का वजूद मौजूद था.

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Suhel Khan
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हड़प्पा सभ्यता से 5000 साल पहले कच्छ में इंसानों के रहने के मिले सबूत Photograph: (Social Media)

Study on Kutch: हड़प्पा यानी सिंधु घाटी सभ्यता को भारत की सबसे पुरानी सभ्यता माना जाता है, लेकिन हाल ही में आईआईटी गांधीनगर द्वारा किए गए एक शोध में बात के प्रमाण मिले हैं कि हड़प्पा सभ्यता 5000 साल पहले ही गुजरात के कच्छ में इंसान रहते थे. जहां प्रागैतिहासिक शिकारी-संग्राहक समुदायों का निवास स्थान था. दरअसल, आईआईटी कानपुर, इंटर यूनिवर्सिटी एक्सेलेरेटर सेंटर, दिल्ली और फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी (पीआरएल) अहमदाबाद के विशेषज्ञों के सहयोग से आईआईटीजीएन के शोधकर्ताओं ने अध्ययन किया. जिसमें मिले पुरातात्विक साक्ष्य से इस बात का पता चला है कि कच्छ में हड़प्पावासियों के आने से पहले ही करीब पांच हजार साल पहले ही इंसान पहुंच गया था.

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इस शुरुआती समुदाय मैंग्रोव-प्रधान परिदृश्य में रहते थे और एक महत्वपूर्ण खाद्य स्रोत के रूप में शैल प्रजातियों का सेवन करते थे. इस वातावरण के लिए अनुकूलित थे. इस शोध में शामिल आईआईटी के पृथ्वी विज्ञान विभाग में पुरातत्व विज्ञान केंद्र के एसोसिएट प्रोफेसर वीएन प्रभाकर ने कहा कि, "हालांकि ब्रिटिश सर्वेक्षणकर्ताओं ने पहले इस क्षेत्र में शैल संचय को देखा था, लेकिन इन्हें शैल-मिडन साइट के रूप में नहीं पहचाना गया था, जो मानव उपभोग से छोड़े गए शैलों का ढेर है." उन्होंने कहा कि, "हमारा अध्ययन इन स्थलों की पहचान करने, उनके सांस्कृतिक महत्व की पुष्टि करने और कालानुक्रमिक संदर्भ स्थापित करने वाला पहला अध्ययन है."

कैसे किया गया शोध?

इन पुरातात्विक स्थलों की आयु का निर्धारित करने के लिए शोधकर्ताओं ने एक्सेलेरेटर मास स्पेक्ट्रोमेट्री (AMS) का इस्तेमाल किया. जो शैल अवशेषों से कार्बन-14 (C-14) के रेडियोधर्मी समस्थानिक मूल्यों को मापने के लिए उपयोग की जाने वाली एक विधि है, जिसे सभी जीवित जीवों द्वारा अवशोषित किया जाता है. संस्थान के मुताबिक, मृत्यु के बाद, C-14 का क्षय होना शुरू हो जाता है और हर 5,730 सालों में ये आधा हो जाता है.

शैल नमूनों में शेष मात्रा को मापने से वैज्ञानिकों को जीव की मृत्यु के समय का अनुमान लगाने में मदद मिलती है. क्योंकि वायुमंडलीय सी-14 का स्तर समय के साथ बदलता रहा है, इसलिए परिणामों को ट्री-रिंग डेटा का उपयोग करके कैलिब्रेट किया गया. इसमें कहा गया है कि पेड़ प्रति वर्ष एक रिंग बनाते हैं, और इन ट्री-रिंग अनुक्रमों का मिलान किया जा सकता है और उन्हें हज़ारों वर्षों तक बढ़ाया जा सकता है, जिससे वैज्ञानिकों को वायुमंडलीय सी-14 की सटीक संदर्भ समयरेखा बनाने में मदद मिलती है.

प्रोफेसर प्रभाकर के मुताबिक, "खदीर और आस-पास के द्वीपों से एकत्र किए गए शैल नमूनों का विश्लेषण पीआरएल अहमदाबाद में प्रोफेसर रवि भूषण और जे एस रे के सहयोग से और आईयूएसी, दिल्ली में डॉ. पंकज कुमार की मदद से किया गया." बता दें कि खदीर को हड़प्पा शहर धोलावीरा के स्थल के रूप में जाना जाता है. शोध में पता चला है कि मिडडेन साइटें हड़प्पा युग से काफी पहले की अवधि की हैं, जो इस क्षेत्र में बहुत पहले के समय से मानव बस्ती के दुर्लभ साक्ष्य प्रदान करती हैं.

इसके अलावा शोधकर्ताओं ने ये निष्कर्ष भी निकाला है कि पाकिस्तान और ओमान प्रायद्वीप के लास बेला और मकरान क्षेत्रों में तटीय पुरातात्विक स्थलों के साथ समानताएं भी हैं. जिससे पता चलता है कि इस व्यापक क्षेत्र में शुरुआती तटीय समुदायों ने भोजन संग्रह और अस्तित्व के लिए समान रणनीति विकसित की गई होगी. शैल के बिखराव और जमा के अलावा, जांच दल ने काटने, खुरचने और काटने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले विभिन्न प्रकार के पत्थर के औजारों की भी खोज की.

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IIT archaeological Kutch
      
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