अक्सर आपने फिल्मों और दुर्गा पूजा में देखा होगा कि बंगाली महिलाएं लाल बॉर्डर वाली साड़ी पहनती हैं. जिसमें वह बला की खूबसूरत लगती है. वहीं दुनियाभर में पहनने वाले हर कपड़े का अपना एक इतिहास होता है. बंगाल की साड़ियों का भी अपना इतिहास है. सफेद रंग की इस साड़ी पर लगा लाल बॉर्डर सादगी के बावजूद भी खूबसूरती में इजाफा कर देता है. आइए आपको इसके पीछे की कहानी बताते हैं.
क्या है इस साड़ी की कहानी
बंगाली साड़ियों को लाल पाड़ साड़ी के नाम से जाना जाता है. सालों पहले इसे बंगाल में कपास और रेशम से तैयार किया जाता है. कारीगर खुद हाथों से इसपर मेहनत करते थे. स्वतंत्रता आंदोलन में भी इस साड़ी ने भूमिका निभाई. वेस्टर्न कल्चर को मना कर पारंपरिक पोशाक को बढ़ावा दिया गया. महिलाएं इस साड़ी को पहन इंडियन आइडेंटिटी दिखाती थीं. लाल पाड़ साड़ी का लाल और सफेद रंग शुभ माना जाता है.
ये है इसकी खासियत
लाल रंग शक्ति को दिखाता है. तो सफेद रंग पवित्रता और नारीत्व का प्रतीक है. लाल और सफेद रंग मां दुर्गा से भी जुड़ा है. इसलिए दुर्गा पूजा में इस साड़ी की अहमियत और भी ज्यादा बढ़ जाती है. पंडाल में ज्यादातर महिलाएं इसी साड़ी को पहन शुभ अवसर में जाती हैं. क्लासिक तरीके से ड्रेप हुई साड़ी और बंगाली साड़ी की ड्रेपिंग में अंतर है. लाल पाड़ साड़ी पहनते वक्त प्ल्लू की प्लीट्स बनाकर उन्हें शोल्डर पर ड्रेप किया जाता है. फिर पल्लू के एक पोर्शन को कमर पर टक किया जाता है. इसके बाद साड़ी के पल्लू के कोने को दूसरे शोल्डर पर पीन अप कर लुक कंप्लीट बनता है.
इस तरीके से होती है तैयार
एक समय पर यह साड़ी बिल्कुल सिंपल हुआ करती थी. और, प्योर फैब्रिक से ही तैयार होती थी. लेकिन समय के कुछ बदलाव आए. अब बंगाली साड़ियों में कई डिजाइन देखने के लिए मिलते हैं. साथ ही जरी, स्टोन और बीड्स वाली डीटेलिंग भी होती है, जो पहले नहीं हुआ करती थी. लेकिन आज भी महिलाएं इस साड़ी को पहनना पसंद करती हैं.
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