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दिल्ली के खूनी दरवाजा का स्वतंत्रता आंदोलन से क्या है नाता?

दिल्ली में कई ऐतिहासिक दरवाजे हैं जिनका मुगलकाल में निर्माण हुआ था. लेकिन खूनी दरवाजा का मुगलिया इतिहास और स्वतंत्रता संग्राम से खास रिश्ता है. खूनी दरवाजा का नाम पहले लाल दरवाजा था. लेकिन लंबे समय से यह खूनी दरवाजा के नाम से ही जाना जाता है.

Updated on: 10 Aug 2021, 04:51 PM

highlights

  • खूनी दरवाजे में हुई थी मुगल शहजादों की हत्या
  • जानिए खूनी दरवाजे का स्वतंत्रता आंदोलन से रिश्ता
  • ऐसे पड़ा लाल दरवाजे का नाम खूनी दरवाजा

नई दिल्ली:

15 अगस्त 1947 के दिन देश को ब्रिटिश दासता से मुक्ति मिली थी. इस वर्ष हम आजादी के 74 वर्ष पूरे कर 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं.  केंद्र सरकार ने स्वतंत्रता के 75वें वर्ष को देश भर में 'आजादी का अमृत महोत्सव' मनाने का निर्णय किया है. देश की आजादी के लिए हमें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है. देश के हजारों -लाखों लोगों ने आजादी के लिए आजीवन जेल में यातनाएं सही, पुलिस की गोली खायी और फांसी के फंदे को चूमा था. देश और दिल्ली में आजादी के दीवानों से जुड़े कई स्थल हैं, कुछ तो अपने पुराने रूप में है और कुछ स्थानों पर स्कूल-अस्पताल आदि बन गए हैं.  ऐसे कई क्रातिकारी और उनसे जुड़े स्थान भी हैं जो गुमनामी के शिकार हैं. आजादी के 75वें साल में हम  दिल्ली और देश के कुछ क्रांतिकारियों और स्थानों को आपके सामने रखेंगे.

दिल्ली में कई ऐतिहासिक दरवाजे हैं जिनका मुगलकाल में निर्माण हुआ था. लेकिन खूनी दरवाजा का मुगलिया इतिहास और स्वतंत्रता संग्राम से खास रिश्ता है. खूनी दरवाजा का नाम पहले लाल दरवाजा था. लेकिन लंबे समय से यह खूनी दरवाजा के नाम से ही जाना जाता है. इतिहास की कई घटनाओं को अपने दामन में छिपाये खूनी दरवाजा अब पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीन है. आईटीओ से पुरानी दिल्ली जाने वाली सड़क यानी बहादुरशाह जफर मार्ग पर के बीचोबीच यह स्थित है. यह दरवाजा मुगलिया सल्तनत के उत्थान-पतन का साक्षी रहा तो स्वतंत्रता संग्राम के नायकों की देशभक्ति से भी अपरिचित नहीं है.

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लाल दरवाजा का नाम खूनी दरवाजा कैसे पड़ा
दिल्ली के बचे हुए 13 ऐतिहासिक दरवाजों में से एक लाल दरवाजा फिरजोशाह कोटला के सामने स्थित है. लालकिले से करीब 1 किमी की दूरी पर मौजूद लाल दरवाजा यानी खूनी दरवाजा का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम यानी 1857 से खास नाता है. दिल्ली के अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर क्रांतिकारियों-सिपाहियों  के भारी दबाव में ही उनका नेतृत्व स्वीकार किया था. कुछ दिनों तक तो दिल्ली बागी सिपाहियों  के कब्जे में रही लेकिन उसके बाद पासा पलट गया. देश के दूसरे भागों से  ब्रिटिश फौज के दिल्ली पहुंचने पर बागी सिपाही कमजोर पड़ गए. अंग्रेज अधिकारी कर्नल विलियम हॉडसन ने हुमायूं के मकबरे में छिपे बहादुरशाह जफर को आत्मसमर्पण करने पर मजबूर किया. इसके अगले दिन ही मुग़ल सल्तनत के तीन शहजादों- बहादुरशाह जफर के बेटों मिर्ज़ा मुग़ल और खिज़्र सुल्तान और पोते अबू बकर को भी समर्पण करने पर मजबूर कर दिया गया.

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लालकिला ले जाते समय जनरल हॉडसन ले की मुगल शहजादों की हत्या

22 सितम्बर 1857 को हुमायूं के मकबरे से लालकिला ले जाते समय जनरल हॉडसन ने तीनों शहजादों की गोली मारकर हत्या कर दी. ब्रिटिश अधिकारी शहजादों की बर्बर हत्या तक ही नहीं रूके, कहा जाता है कि शहजादों के सिर को धड़ से अलग किया और धड़ को कोतवाली के सामने टांग दिया। अंग्रेजों ने बर्बरता की सारी हदों को पार करते हुए शहीद शहजादों के सिर को एक तश्तरी में रखकर बूढ़े बादशाह बहादुरशाह जफर के समाने पेश किया. जिससे बहादुरशाह का हौसला टूट जाये और वह अंग्रेजों के पक्ष में आ जाये. लेकिन ब्रिटिश हुक्मरानों की यह चाल काम नहीं आयी.

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