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मुलायम परिवार में ये उत्तराधिकार की लड़ाई है, पिक्चर अभी बाकी है!

राजनीतिक पार्टियां प्रेस कॉन्फ्रेंस क्यों बुलाती है। अव्वल तो मकसद होता है प्रोपोगेंडा। प्रोपोगेंडा केवल झूठ नहीं होता

Updated on: 26 Oct 2016, 07:05 AM

नई दिल्ली:

राजनीतिक पार्टियां प्रेस कॉन्फ्रेंस क्यों बुलाती है। अव्वल तो मकसद होता है प्रोपोगेंडा। प्रोपोगेंडा केवल झूठ नहीं होता। झूठ को सच करने का अदभुत खेल होता है। जो अंदरखाने चल रहा है, वो बाहर नहीं बताया जाता। और जो बाहर मंच पर बताया जाता है वो सच मान लेना इस बात पर निर्भर करता है कि आपको कहानी सुनना कितना पसंद है।

मुलायम ने भी एक कहानी सुनाई। एकता की कहानी। परिवार की एकता की कहानी। कुनबे के सभी धड़ों के साथ रहने की कहानी। दोस्ती की कहानी। जनाधार की कहानी। बिना जनाधार वाले नेताओं की कहानी। बेटे और पिता की कहानी जिसके मुख्य पात्र वे खुद हैं। कुनबे के खास लोग ज़ाहिरा तौर पर एकता की मिसाल बन कर मूर्ति की तरह बैठे दिखे। ये बताने की कोशिश थी कि एकता की ऐसी अदभुत मिसाल इससे पहले स्वतंत्रता आंदोलन में गांधीजी की अगुवाई में असहयोग आंदोलन के दौरान दिखी। और उसके बाद अब – मुलायम की प्रेस कॉन्फ्रेन्स में। बस नेताजी अपने नाराज़ सुपुत्र अखिलेश को इस प्रेस कॉन्फ्रेन्स में बुलाना भूल गये।

पिक्चर परफेक्ट होते होते रह गई। मगर नेताजी के मुताबिक सब ठीक है। जो जैसा है वो ठीक है। कुछ गड़बड़ था ही नहीं। वो जो परिवार में उठा-पटक चल रही है दरअसल वो सब पंचतंत्र की मनघड़ंत लोक कथाएं हैं जिनसे सीख तो ली जा सकती है मगर उन्हे सच मान लेना इतिहास के साथ बेमानी है। दरअसल परिवार के इस ताजे महाभारत में उसके इतिहास, भूगोल और अस्तित्व पर सवाल खड़ा कर दिया है।

परिवार में जब सब ठीक था तो वो सब क्यों हुआ जो हुआ। चाचा शिवपाल क्या चाहते हैं। भतीजा अखिलेश क्यों नाराज़ है। और जिसे वो बाहरी मानता है उसे चाचा और पापा अपना मानते हैं। क्यों। वो कौन लोग हैं जो कैबिनेट में हैं मगर अखिलेश जिन्हे निकालने को इतने उतावले रहते हैं। उनकी अपने चाचा से अनबन क्यों है। अगर परिवार एक है तो चाचा कैबिनेट से बाहर क्यों हैं। और अगर चाचा अपने भतीजे को इतना मानते है तो कल भरी सभा में भतीजे से माइक छीनते हुए ये क्यों बोले – गुंडई नहीं चलेगी।

और अगर भतीजा जो कि राज्य का मुख्यमंत्री है ‘गुंडई’ कर रहा तो पिताजी महाराज चुप क्यों हैं। और अगर बेटा कह रहा कि पार्टी में उसके खिलाफ षड़यंत्र रचा जा रहा तो ये षड़यंत्र कौन और क्यों रच रहा। इन सारे सवालों के जवाब नेताजी और परिवार के मुखिया माननीय मुलायम सिंह ने नहीं दिए। एक बात जो मुलायम सिंह नहीं मान रहे वो ये कि ये पार्टी में उत्तराधिकार की लड़ाई है। और ये लड़ाई पांच साल पहले उस दिन शुरू हो गई थी जिस दिन मुलायम नें अपने प्रिय भाई शिवपाल को नहीं बल्कि अपने बेटे अखिलेश को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया।

शिवपाल आज भी उनके प्रिय हैं। ये मुलायम भी मानते हैं। जैसे मुलायम ये मानते हैं कि अखिलेश मुख्यमंत्री हैं। आगे रहेंगे या नहीं इस कंटीले सवाल से वो बचना चाहते हैं। इसलिए क्योंकि इसका जवाब सीधा या सपाट नहीं। पार्टी में हालिया खेमेबाज़ी के मद्देनज़र इस सवाल का जवाब मुलायम के बस में भी नहीं।

दिल के एक कोने में मुलायम का बेटा अखिलेश ही उनका सच्चा उत्ताराधिकारी है। मगर पिछले दिनों जो उसके तेवर थे उससे लगा उसकी बगावत की ताप के जद में कहीं वो खुद न आ जाये। भाई का साथ इतने सालों से है। भाई उन्हे पूजता है। वो भाई ही है जिसने हर ऊंच-नीच में बड़े भाई का साथ दिया। उन्हें उनके पुराने दोस्त अमर सिंह से दोबारा मिलवाया। लेकिन बेटा तो किसी की नहीं सुनता। उसने बाहरी–बाहरी की टर्र-टर्र शुरू कर दी। चाचा से तलवार भांजने निकल पड़ा। मुलायम की प्रेस कॉन्फ्रेन्स में कई सवाल अनउत्तरित रह गये।

सवाल यही उठता है कि अगर बेटे के तेवर परिवार के ईकोसिस्टम से मेल नहीं खाते और फिर भी वो अब तक पद पर बना है तो इसके पीछे एक पिता का सॉफ्ट कॉर्नर ही होगा। सॉफ्ट कार्नर तो उनका शिवपाल और अमर सिंह को लेकर भी है। लेकिन पांच साल शिवपाल मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। अखिलेश से उम्र, एक्सपीरियेंस और राजनीतिक समझ में कहीं अव्वल। फिर भी नेताजी ने मुख्यमंत्री का ताज बेटे अखिलेश को पहनाया।

क्योंकि मुलायम सरीखे मंजे हुए नेता ये मानते हैं कि पार्टियां तो बनती टूटती हैं मगर राज-काज के रास्ते जो पब्लिक के दिलों में उतरता है वही असली नेता कहलाता है। महज़ पार्टी चला लेने भर से भारत में नेता की शख्सियत और फैन फॉलोइंग नहीं तय होती। नेहरू और इंदिरा हों या खुद मुलायम। पार्टियों के मुखिया को कौन याद रखता है। इसलिये 2012 विधानसभा चुनावों में जब पार्टी को भारी जीत मिली तो मुख्यमंत्री बेटा अखिलेश उनकी पहली पसंद था। दावेदारी जिसकी जो भी रही हो।

उम्र की जिस दहलीज़ पर मुलायम है उसमें पुत्र मोह उनको छोड़ता नहीं। शायद बेटे के बगावती सुर से हिल गये हों। सवाल ये नहीं है कि अगला चुनाव मुलायम का परिवार जीतेगा या नहीं। समाजवादी पार्टी तो पिछले पांच दशकों से बनती टूटती रही है। सब लोहिया के चेले और सब का अपना अपना समाजवाद। अखिलेश समाजवाद की समझ रखते हो या नहीं लेकिन अनुमान है कि परिवारवाद की उठा-पटक से वो राजनीतिक दांव पेंच उन्हेंने भली भांति समझ लिए होंगे। उनके कल के भाषण से साफ है कि वो पार्टी में रहें या नहीं लेकिन बेड़ियों को तोड़कर वो अपने आसमान में उड़ने के लिए तड़प रहे हैं। 

इसलिए मुलायम प्रेस कॉन्फ्रेन्स में एकता की 16 मेगापिक्सल की फोटो पेश कर लें, लेकिन इस प्रकरण नें ये तय कर दिया है कि प्रेस कॉन्फ्रेन्स के बाहर ज़मीनी हकीकत कुछ और है। वो एक ऐसा कड़वा सच है जिसे मुलायम को गले में उतारना ही पड़ेगा और नीलकंठ होना पड़ेगा।

लेकिन एक प्रेस कॉन्फ्रेन्स में मुलायम अपने मन की व्यथा कैसे समझायें। कैसे समझायें कि उत्तराधिकार का सवाल प्रेस कॉन्फ्रेन्स में नहीं, विक्रमादित्य मार्ग या कालीदास मार्ग पर नहीं बल्कि लखनऊ की सड़क पर तय होगा। जो सड़क पर उतरने की कूवत रखेगा वही होगा मुलायम का असली उत्तराधिकारी।

मुलायम परिवार के महाभारत की ये पिक्चर जिस मोड़ पर आकर खत्म हुई है उससे ये साफ संकेत मिलता है कि इस कहानी के प्लॉट में एक सीक्वेल की गुंजाइश है।