क्या गैरकानूनी है आलोक वर्मा को हटाने का फैसला ?
सीबीआई में मची ऐतिहासिक अंदरूनी कलह के बीच डायरेक्टर आलोक वर्मा और स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना दोनों को छुट्टी पर भेज दिया है. इसके खिलाफ आलोक वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है.
नई दिल्ली:
सीबीआई में मची ऐतिहासिक अंदरूनी कलह के बीच डायरेक्टर आलोक वर्मा और स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना दोनों को छुट्टी पर भेज दिया है. इसके खिलाफ आलोक वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है. सवाल ये उठ रहा है कि क्या आलोक वर्मा को हटाये जाने का फैसला गैरकानूनी है और अगर सुप्रीम कोर्ट इस फैसले की कानूनी समीक्षा करता है तो विचार के लिए क्या पहलू होंगे.
इस मामले में तीन चीजें सबसे अहम है. पहला, साल 1997 में विनीत नारायण मामले में सुप्रीम कोर्ट का दिया फैसला, दूसरा साल 2013 में सीबीआई को लेकर सरकार का सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामा और तीसरा खुद आलोक वर्मा की याचिका.
साल 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई डायरेक्टर की नियुक्ति को लेकर क्या कहा था
साल 1997 से पहले सीबीआई डायरेक्टर के कार्यकाल को लेकर कोई समयसीमा तय नहीं थी. इस साल विनीत नारायण वाले मामले में दिए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था-
*सीबीआई डायरेक्टर का कार्यकाल कम से कम दो साल का होगा. फिर इस बात का कोई महत्व नहीं रहेगा कि उनकी रिटायरमेंट की उम्र क्या होगी. ऐसा इसलिए भी ज़रूरी है ताकि कोई योग्य अधिकारी को सिर्फ इसलिए सीबीआई डायरेक्टर के पद से वंचित न रखा जाए क्योंकि उसकी रिटायरमेन्ट में दो साल से कम का वक्त बचा है.
*विशेष परिस्थितियों में ज़्यादा महत्वपूर्ण असाइनमेंट के लिए सीबीआई डायरेक्टर का ट्रांसफर सिर्फ सेलेक्शन कमेटी की मंजूरी के बाद होगा. अब इस सेलेक्शन कमेटी में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और चीफ जस्टिस शामिल है.
*सीबीआई डायरेक्टर को एजेंसी के अंदर काम के बंटवारे और जांच के लिए टीम गठित करने की पूरी आजादी होगी.
आगे चलकर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लोकपाल एक्ट में भी जगह दी गई, जिसमें सीबीआई डायरेक्टर की नियुक्ति का ज़िक्र है
सीबीआई को लेकर सरकार ने क्या हलफनामा दायर किया
साल 2013 में मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई को लेकर हलफनामा दायर किया था, वो भी कम दिलचस्प नहीं है. दरसअल, कोयला घोटाले में सीबीआई की जांच के तरीके से नाराजगी जाहिर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसे पिंजरे में बन्द तोता करार दिया था. इसके जवाब में केंद्र सरकार ने हलफनामा दायर कर कोर्ट को आश्वस्त किया था कि सीबीआई के कामकाज को सरकार के दखल से बचाने के लिए पूरी व्यवस्था की गई है.
सरकार ने इस हलफनामे में कहा था-
*सीबीआई डायरेक्टर की नियुक्ति पैनल के जरिये होगी जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता के अलावा चीफ जस्टिस शामिल होंगे.
*सीबीआई डायरेक्टर का कार्यकाल दो साल से कम नहीं होगा. इसके अलावा सीबीआई डायरेक्टर का ट्रांसफर बिना सेलेक्शन कमेटी की मंजूरी के नही होगा.
*सबसे अहम ये कि सीबीआई डायरेक्टर को सीवीसी की सिफारिश पर राष्ट्रपति के आदेश के जरिये ही हटाया जा सकेगा. वो भी सीबीआई डायरेक्टर के खिलाफ ग़लत आचरण की गम्भीर शिकायत मिलने पर.
*इसके अलावा सरकार ने बताया था कि एक रिटायर्ड जजों के पैनल होगा जो सीबीआई के डायरेक्टर समेत अन्य अधिकारियों के खिलाफ शिकायतों की जांच करेगा.
और पढ़ें : CBI रिश्वत कांड: विपक्ष ने कहा-सरकार ने सीबीआई की आजादी में ठोंकी आखिरी कील
आलोक वर्मा ने याचिका में क्या कहा है-
आलोक वर्मा ने अपनी याचिका में विनीत नारायण मामले में दिए फैसले का हवाला देते हुए कहीं न कही सीबीआई में सरकारी दखल की ओर इशारा किया है.
आलोक वर्मा ने याचिका में कहा है-
*सीबीआई से उम्मीद की जाती है कि वो एक स्वतंत्र और स्वायत एजेंसी के तौर पर काम करेगी. लेकिन ऐसे हालात को नहीं टाल जा सकता. जब उच्च पदों पर बैठे लोगों से संबंधित जांच की दिशा सरकार की मर्जी के मुताबिक न हो. हालिया दिनों में ऐसे केस आये जिनमे जांच अधिकारी से लेकर जॉइंट डायरेक्टर/ डायरेक्टर तक किसी खास एक्शन तक सहमत थे, लेकिन सिर्फ स्पेशल डायरेक्टर की राय उसे लेकर सबसे अलग थी.
*सीवीसी, केंद्र ने रातोंरात मुझे सीबीआई डायरेक्टर के रोल से हटाने का फैसला लिया और नए शख्स की नियुक्ति का फैसला ले लिया जोकि गैरकानूनी है.
*सरकार का ये कदम DSPE एक्ट के सेक्शन 4-b के खिलाफ है, जो सीबीआई डायरेक्टर की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए दो साल का वक्त निधार्रित करता है.
*DSPE एक्ट के सेक्शन 4 A के मुताबिक सीबीआई डायरेक्टर की नियुक्ति प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और CJI की कमेटी करेगी. सेक्शन 4b(2) में सीबीआई डायरेक्टर के ट्रांसफर के लिए इस कमेटी की मंजूरी ज़रूरी है. सरकार का आदेश इसका उल्लंघन करता है.
*इससे पहले सुप्रीम कोर्ट भी सीबीआई को सरकार के प्रभाव से मुक्त करने की बात कर चुकाहै. सरकार के इस कदम से साफ है कि सीबीआई को DOPT से स्वतंत्र करने की ज़रूरत है.
*मुझे संस्थान(CBI) के अधिकारियों पर पूरा भरोसा है, और इस तरह का गैरकानूनी दखल अधिकारियों के मनोबल को गिराता है.
और पढ़ें : CBI रिश्वतकांड: सरकार की सफाई- CVC के साथ नहीं कर रहे थे सहयोग, CBI ने निष्पक्ष जांच का दिया भरोसा
अब सरकार के लिए क़ानूनी मुश्किल का सबब सिर्फ आलोक वर्मा की याचिका ही नहीं है, प्रशांत भूषण भी सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर रहे है, जिसमे सीबीआई डायरेक्टर को लेकर सुप्रीम कोर्ट के 1997 के फैसले और सरकार के हलफनामे का भी हवाला होगा और इसके चलते शुक्रवार को होने वाली सुनवाई में सरकार के लिए आलोक वर्मा को हटाने के फैसले को सही साबित करना आसान नहीं होगा.
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