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नासा में वैज्ञानिक रह चुके यूपी के डॉ. सरोज अमेरिका में जगा रहे भारतीयता की अलख

प्रवासी भारतीय हैं डॉ. सरोज मिश्र. उत्तर प्रदेश के एक गांव से निकलकर वह अमेरिका के प्रसिद्ध अंतरिक्ष शोध संस्थान नासा में वैज्ञानिक का सफर तय कर चुके हैं.

Updated on: 11 Jan 2021, 12:37 PM

नई दिल्ली:

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने प्रवासी भारतीय दिवस पर कहा कि प्रवासी भारतीयों ने हर क्षेत्र में अपनी पहचान को मजबूत किया है. प्रधानमंत्री मोदी के बयान के बाद उन तमाम प्रतिभाओं की चर्चा चल निकली है, जो विदेशों में भारतीय मेधा का डंका बजा रहे हैं. ऐसे ही एक प्रवासी भारतीय हैं डॉ. सरोज मिश्र. उत्तर प्रदेश के एक गांव से निकलकर वह अमेरिका के प्रसिद्ध अंतरिक्ष शोध संस्थान नासा में वैज्ञानिक का सफर तय कर चुके हैं. 

जगा रहे भारतीय संस्कृति की अलख
नासा के जॉनसन स्पेस के बाद यूनिवर्सिटीज स्पेस रिसर्च एसोसिएशन नासा में वरिष्ठ वैज्ञानिक और बाद में यूनिवर्सिटी ऑफ ह्यूस्टन में माइक्रो बायोलॉजी प्रोफेसर के तौर पर सेवाएं देने के बाद वर्ष 2017-18 में रिटायर हुए डॉ. सरोज अब अमेरिका में भारतीय संस्कृति की अलख जगाने में जुटे हैं. वह कई सांस्कृतिक संगठनों से जुड़कर अमेरिका में लोगों को भारतीय संस्कृति के बारे में जानकारी दे रहे हैं. ये वही डॉ. सरोज मिश्र हैं, जिनके योगदान का उल्लेख जाने-माने इतिहासकार और आरएसएस विचारक स्व. देवेंद्र स्वरूप अपनी पुस्तक 'सभ्यताओं के संघर्ष में भारत कहां' में कर चुके हैं.

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नासा का रहा अटूट विश्वास
जब 90 के दशक में नासा के वैज्ञानिक डॉ. सरोज कुमार मिश्र को यह पता लगाने के लिए मॉस्को भेजा जा रहा था कि रूसी अंतरिक्ष यात्रियों के बहुत लंबे समय तक अंतरिक्ष के प्रतिकूल पर्यावरण को झेल पाने का रहस्य क्या है? तब देवेंद्र स्वरूप ने वर्ष 1995 में अपने एक लेख में नासा के ह्यूस्टन स्थित जानसन स्पेस सेंटर में माइक्रो बायोलॉजी, इम्युनोलॉजी एवं रिस्क एसेसमेंट सेक्शन के तत्कालीन डायरेक्टर डॉ. सरोज कुमार मिश्र की उपलब्धि को भारत का मस्तक गर्व से ऊंचा करने वाला बताया था.

अमेरिका में 5 पेटेंट
डॉ. सरोज कुमार मिश्र के अमेरिका में पांच पेटेंट हैं. अंतरिक्ष स्टेशन का एनवायरमेंट सिस्टम डिजाइन करने का श्रेय उन्हें मिल चुका है. एक सितंबर 1945 को उत्तर प्रदेश के जौनपुर के एक गांव चुरामनपुर तेलीतारा निवासी प्रख्यात वैद्य पंडित उदरेज मिश्र के घर जन्मे सरोज कुमार मिश्र 70 के दशक में गांव से निकलकर पहले रॉबर्ट कॉख इंस्टीट्यूट वेस्ट बर्लिन फिर अमेरिका पहुंचे और फिर उन्होंने भारतीय प्रतिभा का डंका बजाया. विश्व प्रसिद्ध अमेरिकी अंतरिक्ष शोध संस्थान नासा के जानसन स्पेस सेंटर ह्यूस्टन में वरिष्ठ वैज्ञानिक के पद पर रहते हुए उन्होंने अंतरिक्ष स्टेशन का एनवायरमेंट सिस्टम डिजाइन करने में सफलता हासिल की. उन्हें लगातार तीन बार स्पेस एक्ट एवार्ड मिल चुका है. आज डॉ. मिश्र के सैकड़ों शोध पत्र और किताबें, अनुसंधान कर्ताओं के लिए मार्गदर्शन का काम करतीं हैं.

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ढेरों उपलब्धियां हैं दर्ज
1978 से 1983 तक दुनिया के बहु प्रतिष्ठित शोध संस्थान जर्मन सरकार के अधीन बर्लिन के रॉबर्ट कॉख इंस्टीट्यूट में वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं असिस्टेंट डायरेक्टर पद पर रहते हुए उन्होंने वैज्ञानिक अनुसंधान की दुनिया मे अपना नाम विश्व पटल पर स्थापित किया तथा उसी वर्ष वैज्ञानिकों की वैश्विक पत्रिका 'हूज हू इन द वर्ल्ड' में दुनिया के मशहूर वैज्ञानिकों के बीच अपनी जगह बनाई. वहां से अगली यात्रा में 1984 में मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रहते हुए उन्होंने अपने शोध कार्यों से अमेरिका के वैज्ञानिक समुदाय का ध्यान खींचा था, जिस पर उन्हें नासा से ऑफर मिला. दुनिया के मशहूर अंतरिक्ष संस्थान नासा में वर्ष 1987 से माइक्रो बायोलॉजी स्पेस स्टेट की प्रयोगशाला के डायरेक्टर बने. वर्ष 2000 तक वे नासा में वरिष्ठ वैज्ञानिक के तौर पर कार्य करते रहे. इसके बाद वे यूनिवर्सिटीज स्पेस रिसर्च असोसिएशन नासा में वरिष्ठ वैज्ञानिक तथा ह्यूस्टन विश्वविद्यालय में माइक्रो बायोलॉजी के प्रोफेसर हो गए. उत्कृष्ट सेवाओं की बदौलत उन्हें अमेरिका व जर्मनी में अनेक अंतरराष्ट्रीय सम्मान व पुरस्कार मिले. उनकी पुस्तक 'ए कंसाइज मैनुअल ऑफ पैथोजेनिक ' (माइक्रो बायोलॉजी) अमेरिका के शोध विद्यार्थियों में काफी लोकप्रिय मानी जाती है.

दिल आज भी गांव में बसा है
संघ से जुड़े राम भुवन ने कहा कि डॉ. सरोज प्रखर राष्ट्रवादी हैं. वह भारतीय संस्कृति पर गहन अध्ययन रखते हैं. उनके भतीजे डॉ. मनोज मिश्र का कहना है कि अमेरिका में रहने के बावजूद डॉ. सरोज कुमार मिश्र गांव से हमेशा जुड़े हुए हैं. वाणी में आज भी अवधी की मिठास होती है. वैज्ञानिक होने के बावजूद भारतीय संस्कृति पर उनका गहन अध्ययन और गहरा लगाव है. वह भारतीय संस्कृति को अमेरिका में भी बढ़ावा देने में लगे हैं. हर दो से चार वर्ष पर वह गांव आना और नाते रिश्तेदारों तथा समाज को नहीं भूलते. लोगों का सुख-दुख जानकर वह हमेशा मदद में आगे रहते हैं. फोन कर गांव में खेती-किसानी का हाल लेते रहते हैं. वे रहते भले अमेरिका में हैं, लेकिन दिल आज भी गांव में बसता है.