दिवाली की रात को ‘यक्ष रात्रि’ कहा जाता है क्योंकि कामसूत्र के रचयिता वात्स्यायन ने इसे विशेष आध्यात्मिक रात्रि बताया था. 11वीं शताब्दी में पंडित यशोधर ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि यह कार्तिक अमावस्या की रात है, जो ज्ञान और प्रकाश का प्रतीक है.
आज (20 अक्टूबर) देशभर में दीपावली पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है. दीपावली शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- दीप और आवली. इन दोनों के मिलन से बना अर्थ है ‘दीपों की पंक्ति’ यानी रोशनी की कतार. यही कारण है कि दीपावली को रोशनी का त्योहार भी कहा जाता है. लेकिन क्या आपको पता है कि दीपावली की रात को यक्ष रात्रि भी कहा जाता है. आइए जानते हैं इसके पीछे की वजह.
दीपावली का प्राचीन इतिहास
दीपावली का उद्गम बहुत पुराना है. अनेक शास्त्रों में इसके अलग-अलग नाम और रूप मिलते हैं. कहीं इसे सुखरात्रि, तो कहीं यक्षरात्रि कहा गया है. कामसूत्र के लेखक वात्स्यायन ने दीपावली की रात को यक्षरात्रि बताया है. आगे चलकर यह शब्द जखरति के रूप में प्रचलित हुआ. वहीं, 11वीं शताब्दी में पंडित यशोधर ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि यह कार्तिक अमावस्या की रात है, जो ज्ञान और प्रकाश का प्रतीक है.
दीपावली सिर्फ एक धार्मिक पर्व नहीं है, बल्कि यह ज्ञान, प्रकाश और उत्साह का प्रतीक है. इस दिन जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर को महानिर्वाण प्राप्त हुआ था. उनके अनुयायियों ने दीप जलाकर कहा- “अब जब महावीर ज्ञानरूपी प्रकाश बनकर जा चुके हैं, तो हम दीपों से उस प्रकाश को फैलाएं.”
सिखों में भी दीपावली का विशेष महत्व है. इसी दिन गुरु हरगोविंद जी को ग्वालियर के किले से मुक्ति मिली थी. बौद्ध धर्म और जैन धर्म दोनों में यह दिन ज्ञान और मुक्ति का प्रतीक माना गया है.
दीपावली का सांस्कृतिक महत्व
दीपावली भारत ही नहीं, बल्कि नेपाल, श्रीलंका, भूटान, कंबोडिया, सिंगापुर और थाईलैंड जैसे देशों में भी बड़े हर्षोल्लास से मनाई जाती है. यहां तक कि पाकिस्तान के हिंदू समुदाय भी इस पर्व को पूरे श्रद्धा और विश्वास से मनाते हैं. यह उनकी धार्मिक निष्ठा और भारतीय परंपरा के प्रति सम्मान का प्रतीक है.
लक्ष्मी पूजन का महत्व
दीपावली का केंद्र बिंदु है- माता लक्ष्मी की पूजा. लक्ष्मी जी को श्री, सौभाग्य, समृद्धि और सुख की देवी कहा जाता है. मान्यता है कि जब माता लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं तो घर में धन, धान्य और संतोष का आगमन होता है.
पूजा का सर्वोत्तम समय सायंकाल प्रदोष काल होता है, जब सूर्यास्त के बाद वातावरण शांत और पवित्र होता है. इस समय श्रद्धा और भक्ति से माता लक्ष्मी का पूजन करना चाहिए. अगर संस्कृत मंत्र ज्ञात न हों तो ‘ॐ महालक्ष्म्यै नमः’ का जाप किया जा सकता है. संस्कृत जानने वाले ‘नमस्ते महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते, शंखचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मि नमोऽस्तुते’ मंत्र से पूजा करें. लक्ष्मी जी के साथ भगवान गणेश और मां सरस्वती की पूजा भी की जाती है- गणेश जी बुद्धि और विवेक के प्रतीक हैं. सरस्वती जी ज्ञान की अधिष्ठात्री हैं. इससे धन के साथ-साथ विवेक और ज्ञान का संतुलन बना रहता है.
पूजन सामग्री और भोग
शास्त्रों में किसी विशेष सामग्री या भोग का उल्लेख नहीं है. पूजा भावना और श्रद्धा से की जाती है. गरीब अपनी झोपड़ी में, और अमीर अपने महल में- दोनों समान श्रद्धा से पूजा करें. भगवान भोग नहीं, भावना को स्वीकार करते हैं. गीता में कहा गया है- ‘पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति’ अर्थात जो भक्त मुझे प्रेम से पत्ता, फूल, फल या जल भी अर्पित करता है, मैं प्रसन्न हो जाता हूं. इसलिए जो भी उपलब्ध हो- गन्ना, बाजरा, सिंघाड़ा, बेर या अनाज. वही माता को अर्पित करें.
लक्ष्मी का वास्तविक स्वरूप
पुराणों में कहा गया है कि लक्ष्मी तीन रूपों में विराजती हैं-
1. अन्न में
2. गौमाता के दूध में
3. और शुद्ध भाषा में
इसलिए शुद्ध अन्न, शुद्ध दुग्ध और शुद्ध वाणी का संरक्षण करना ही सच्ची लक्ष्मी उपासना है.
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