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कोरोना लॉकडाउन : अब प्रवासियों को सता रही है बच्चों के भविष्य की चिंता

कोरोना वायरस से ज्यादा भूख के डर से महानगरों से गांवों की ओर लौटे प्रवासियों को अब रोजी रोटी के साथ ही अपने बच्चों के भविष्य की चिंता भी सता रही है.

कोरोना वायरस से ज्यादा भूख के डर से महानगरों से गांवों की ओर लौटे प्रवासियों को अब रोजी रोटी के साथ ही अपने बच्चों के भविष्य की चिंता भी सता रही है.

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Dalchand Kumar
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कोरोना लॉकडाउन : अब प्रवासियों को सता रही है बच्चों के भविष्य की चिंता( Photo Credit : फाइल फोटो)

कोरोना वायरस (Corona Virus) से ज्यादा भूख के डर से महानगरों से गांवों की ओर लौटे प्रवासियों को अब रोजी रोटी के साथ ही अपने बच्चों के भविष्य की चिंता भी सता रही है. इंदौर और पीथमपुर में पिछले करीब 12 साल से फैक्टरियों में मजदूरी कर रही सावित्री बाई, मीरा बाई और सीता बाई को अब यही चिंता दिन रात खाए जा रही है, हमारे बच्चों का क्या भविष्य क्या होगा? हालांकि ये लोग इस बात से खुश हैं कि इन्हें मनरेगा के तहत काम मिल गया है. सावित्री बाई, मीरा बाई, सीता बाई, राजरानी, हरगोविंद कुशवाहा, मोहन रजक, अशोक कुशवाहा एवं राजू प्रजापति, ये उन 22 प्रवासियों में शामिल हैं जो हाल ही में अपने तुलसीपार गांव लौटे हैं.

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रायसेन जिला मुख्यालय से करीब 80 किलोमीटर दूर बेगमगंज जनपद पंचायत के तहत आने वाले तुलसीपार गांव में सावित्री बाई ने ‘भाषा’ से कहा, 'हम सभी इंदौर और पीथमपुर में पिछले करीब 12 साल से फैक्टरियों में काम कर रहे थे. वहां बच्चों को 'इंग्लिश मीडियम' स्कूल में पढ़ा रहे थे. जिंदगी अच्छे से गुजर रही थी, लेकिन कोरोना वायरस के कारण हमें वापस अपने गांव आना पड़ा है.' उन्होंने कहा कि गांव तो लौट आए हैं लेकिन अब हमारे बच्चों के भविष्य का क्या होगा? महाराष्ट्र के पुणे से सिवनी जिले के छपारा लौटे राजमिस्त्री राकेश राठौर की कहानी भी कुछ ऐसी ही है.

राकेश ने बताया, 'मैं पत्नी मोना राठौर के साथ पिछले छह महीने से पुणे में ही था. लॉकडाउन में रोजगार छिन गया. राजमिस्त्री के तौर पर मुझे पुणे में 700 रुपये और मेरी पत्नी को 400 रुपये की दिहाड़ी मिलती थी. चार महीने में जितना रुपया-पैसा जोड़ा था सब लॉकडाउन में खत्म हो गया.' राकेश अपने गांव छपारा तो लौट आए हैं लेकिन उनका कहना है कि यहां ना तो मनरेगा में काम मिल रहा है, ना ही आय का अन्य कोई दूसरा जरिया है. वह कहते हैं कि गांव में ही रह रहे मां बाप के बीपीएल कार्ड से मिले राशन पर ही परिवार का भरण-पोषण चल रहा है.

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इस बीच, मध्यप्रदेश के अपर मुख्य सचिव (पंचायत एवं ग्रामीण विकास) मनोज श्रीवास्तव ने बुधवार को ‘भाषा ’ को बताया, 'अभी तक 14.37 लाख से अधिक मजदूर मध्यप्रदेश में अपने घर वापस आ गये हैं. इनमें से 11.07 लाख से अधिक मजदूरों को उनके घरों में ही पृथक-वास में रखा गया है, जबकि 58,782 मजदूरों को संस्थागत पृथकवास केन्द्रों जैसे पंचायत घरों एवं स्कूलों में रखा गया है.' हैदराबाद से अपनी गर्भवती पत्नी धनवंता बाई एवं दो वर्षीय बेटी को हाथ से बनी लकड़ी की गाड़ी में बिठाकर खींचते हुए, 17 दिन पैदल चलकर बालाघाट जिले के कुंडे मोहगांव में आये प्रवासी मजदूर रामू घोरमारे (32) ने बताया, 'जब हैदराबाद से निकला तो सोचा था कि यहां भूखे मरने से अच्छा है कि गांव चला जाऊं. लेकिन अब यहां आने के बाद कोई काम नहीं मिल रहा है.'

उन्होंने कहा, 'अब तक केवल 15 किलो राशन मिला, जो खत्म हो गया है. ऐसे में हिम्मत टूटने लगी है. रोटी मिल जाए, इसलिए लोगों से उधार मांग रहा हूं. अपने साथ बच्चों के भविष्य की भी चिंता है.' घोरमारे हैदराबाद में मिस्त्री था. पुणे से सिवनी जिले के बखारी गांव लौटे एक अन्य मजदूर भूपेंद्र पवार ने बताया, 'छह माह पहले ही पुणे गया था. वहां 600 रुपये मजदूरी मिलती थी, लेकिन गांव लौटने के बाद अब 100 रुपये का काम ढूंढने से भी नहीं मिल रहा है. परिवार में पांच एकड़ की खेती है, लेकिन चार भाइयों समेत आठ लोगों का गुजारा मुश्किल हो रहा है. पथरीले खेतों में फसल भी नहीं लगी है.'

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हैदराबाद से सिवनी जिले के छिंदवाह गांव लौटे महेश राम ने बताया, 'मुझे वहां सोनपपड़ी बनाने वाली फैक्ट्री में भोजन सहित 9,000 रुपये वेतन मिलता था. अब बेरोजगार हूं.' मण्डला जिले के जनपद मोहगांव के ग्राम ठेभा की प्रवासी मजदूर रोहणी बाई (30) अपने पति जीवन सिंह के साथ 15 मई को नागपुर से पैदल पांच दिन का सफर कर अपने गांव ठेभा पहुंची थी. रोहणी कहती हैं, 'मुझे और मेरे पति को रोजगार की जरूरत हैं पर गांव में मनरेगा में हमें काम नहीं मिल रहा है. निर्माण एजेंसी से जब काम मांगने जाते हैं तो कहते हैं कि अभी तुम्हारा नाम नहीं आया है. गांव आने पर मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं. सरकार से अब तक कोई राहत नहीं मिली है.' ग्राम ठेभा के ही एक अन्य प्रवासी मजदूर यमुना सरोते गुजरात के गांधीधाम में धागा बनाने वाली एक कम्पनी में 12,000 रुपये महीना कमा रहे थे लेकिन गांव आकर दोगुने संकट में घिर गए हैं. रोजगार तो है ही नहीं, पेट भी सरकारी अनाज पर किसी तरह भर रहे हैं.

गुजरात के वलसाड़ से जनजातीय झाबुआ जिले के टिकड़ीबोड़िया गांव में लौटे दिलीप बामनिया (32) के संयुक्त परिवार में 18 लोग हैं जबकि खेती की जमीन केवल दो बीघा है. वलसाड़ में भवन निर्माण क्षेत्र में मजदूरी करने वाले बामनिया कहते हैं, 'मुझे मजदूरी के लिये एक न एक दिन वापस गुजरात जाना ही होगा.' वह कहते हैं कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) के तहत काम के लिये अभी तक किसी सरकारी अधिकारी ने उनसे संपर्क नहीं किया है. चार बच्चों के पिता बामनिया के पास फिलहाल इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि वह गुजरात कब तक लौट सकेंगे? उन्होंने कहा, 'अभी तो गुजरात में भी अधिकांश काम-धंधे ठप पड़े हैं. लौटने के लिए सही वक्त का इंतजार करेंगे.'

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हालांकि इंदौर संभाग के आयुक्त (राजस्व) आकाश त्रिपाठी ने बताया, 'संभाग के पांचों आदिवासी बहुल जिलों में हजारों प्रवासी मजदूरों की घर वापसी के मद्देनजर हमने मनरेगा के तहत जल संरक्षण, बुनियादी ढांचा विकास और अन्य क्षेत्रों में ऐसी नयी परियोजनाएं शुरू की हैं जिनमें बड़ी तादाद में कामगारों की जरूरत पड़ती है.' आयुक्त ने बताया कि 24 मार्च को पहले देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा के बाद पांचों जिलों में मनरेगा के तहत एक लाख से ज्यादा नये जॉब कार्ड बनाये गये हैं. इन जिलों में एक अप्रैल से लेकर अब तक कुल 4,48,560 लोगों को इस योजना के तहत रोजगार मुहैया कराया गया है.

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