बिहार का काला अध्याय : जब लक्ष्मणपुर बाथे खून से नहा गया

Bihar Mahakand: कई के गले काट दिए गए. कई घरों में सात-सात, नौ-नौ लाशें बिछीं थीं. गांव के महेश नामक युवक उस वक्त छह साल का था. मां और बहन की लाशों के बीच दबकर उसकी जान बची.

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Yashodhan Sharma
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Bihar Mahakand: कई के गले काट दिए गए. कई घरों में सात-सात, नौ-नौ लाशें बिछीं थीं. गांव के महेश नामक युवक उस वक्त छह साल का था. मां और बहन की लाशों के बीच दबकर उसकी जान बची.

Patna: साल 1997 बिहार जातीय हिंसा की आग में झुलस रहा था. नक्सली संगठनों और रणवीर सेना के बीच खूनी टकराव से पूरा सूबा दहशत में था. इन्हीं रक्तरंजित दिनों में 1 दिसंबर की रात अरवल जिले के लक्ष्मणपुर बाथे गांव में ऐसा नरसंहार हुआ, जिसने इंसानियत को शर्मसार कर दिया.

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तब बिहार की मुख्यमंत्री राबड़ी देवी थीं. लालू प्रसाद यादव जेल में थे. इसी बीच करीब 100 हथियारबंद रणवीर सेना के लोग सोन नदी पार कर गांव में घुसे. उनके पास बंदूक, तलवार और लाठी-डंडे थे. सबसे पहले उन्होंने नदी पार कराने वाले पांच मल्लाहों की गला रेतकर हत्या कर दी, ताकि कोई गवाह न बचे.

देखते ही देखते गोलियों से भून डाला

इसके बाद सेना के लोग दलित बस्ती की ओर बढ़े. मिट्टी और फूस के बने घरों में परिवार सो रहे थे. देखते ही देखते 53 दलितों – महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों – को गोलियों से भून दिया गया. कई के गले काट दिए गए. कई घरों में सात-सात, नौ-नौ लाशें बिछीं थीं. गांव के महेश नामक युवक उस वक्त छह साल का था. मां और बहन की लाशों के बीच दबकर उसकी जान बची.

अगली सुबह तक पूरा गांव खाली हो चुका था. खून और चीखों से सनी गलियां भयावह मंजर बयान कर रही थीं. घटना की सूचना पर पुलिस और अधिकारी पहुंचे तो लाशें गिनते-गिनते 34 नंबर पर ही कांप उठे. कुल 58 शव बरामद किए गए, जिनमें एक गर्भवती महिला और तीन बच्चे भी थे.

2013 में हाईकोर्ट ने किया बरी

दो दिन तक गांव वाले शव उठाने से इनकार करते रहे. अंततः मुख्यमंत्री राबड़ी देवी गांव पहुंचीं, तब जाकर अंतिम संस्कार हुआ. बाद में जांच हुई, मुकदमे चले. 2010 में निचली अदालत ने 16 को फांसी और 10 को उम्रकैद दी, लेकिन 2013 में पटना हाईकोर्ट ने सबूतों की कमी का हवाला देकर सभी को बरी कर दिया.

कहा गया कि यह नरसंहार 1992 में गया के बथानी टोला और 12 गांवों में भूमिहारों की हत्या का बदला था. यह दौर बिहार की जातीय राजनीति का सबसे काला समय साबित हुआ. 28 साल बीत गए, लेकिन लक्ष्मणपुर बाथे के घाव आज भी हरे हैं. गांव के हर घर में उस रात की चीखें अब भी गूंजती हैं और इंसाफ आज भी अधूरा है.

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