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बाहुबली नेता आनंद सिंह Photograph: (NN)
बिहार की राजनीति में बाहुबली नेताओं की अपनी अलग पहचान रही है. इस पहचान के सबसे चर्चित नामों में से एक हैं आनंद मोहन सिंह. सहरसा जिले के पंचगछिया गांव से निकलकर छात्र राजनीति से लेकर लोकसभा तक का सफर और फिर एक संवेदनशील हत्या मामले में दोषसिद्धि का अध्याय, इनकी पूरी कहानी किसी फिल्म से कम नहीं लगती.
इमरेंजसी में भेजे गए जेल
आनंद मोहन का परिवार स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहा. दादा राम बहादुर सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे और यही पारिवारिक पृष्ठभूमि उन्हें बचपन से ही राजनीति और आंदोलन की जमीन पर खड़ा कर गई. छात्र जीवन में ही उन्होंने लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में हिस्सा लिया. इमरजेंसी के दौरान जेल भी भेजे गए. इसी दौर में उनकी छवि एक लड़ाकू, मुखर और सत्ता के खिलाफ खड़े होने वाले युवा नेता की बनी.
समाजवादी क्रांतिकारी सेना का किया गठन
1978 में कर्पूरी ठाकुर सरकार द्वारा लागू आरक्षण नीति से आनंद मोहन असहमत हुए. दूसरी तरफ उस समय बिहार में वर्गीय संघर्ष तेज था और कम्युनिस्ट संगठनों से कई जगह तनाव की घटनाएं सामने आती थीं. इसी माहौल में उन्होंने समाजवादी क्रांतिकारी सेना नामक समूह बनाया, जिसमें अगड़ी जातियों के युवा शामिल होते थे. समय के साथ इस संगठन पर कई हिंसक घटनाओं में शामिल होने के आरोप लगे. पुलिस ने कई मामलों में उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज कीं और वह कुछ समय अंडरग्राउंड भी रहे.
गरीब और कमजोर लोगों के बीच छा गए
80 के दशक के अंत तक उनकी लोकप्रियता स्थानीय इलाकों में तेजी से बढ़ी. साल 1990 में उन्होंने जनता दल के टिकट पर महिषी से विधानसभा चुनाव जीता. बाहुवली छवि के बावजूद जनता के बीच उनकी पकड़ मजबूत होती गई. वह गरीब और कमजोर वर्ग के लोगों की मदद की छवि के साथ राजनीति में आगे बढ़ते रहे.
पहले फांसी फिर उम्रकैद की मिली सजा
राजनीतिक सफर का सबसे विवादित मोड़ 5 दिसंबर 1994 को आया. मुजफ्फरपुर में गोपालगंज के जिलाधिकारी जी. कृष्णैया की हत्या से पूरे राज्य में हड़कंप मच गया. यह मामला राष्ट्रीय चर्चाओं में आया. पुलिस जांच में आरोप लगा कि यह हमला एक उग्र भीड़ ने किया और उस भीड़ को उकसाने में आनंद मोहन की भूमिका रही. लंबी सुनवाई और गवाहियों के बाद 2007 में कोर्ट ने उन्हें दोषी करार दिया और फांसी की सजा सुनाई. इसके बाद में यह सजा उम्रकैद में बदली गई.
16 साल की कैद के बाद भी लोकप्रियता कम नहीं
लगभग 16 साल की कैद ने उनकी राजनीतिक गतिविधियों को भले सीमित कर दिया, पर उनकी लोकप्रियता खत्म नहीं हुई. जेल में रहते हुए भी उनसे मिलने वालों की कमी नहीं थी. कई लोग उन्हें गरीबों का सहारा बताकर आज भी समर्थन करते हैं. उनके समर्थकों की नजर में वह अब भी एक ऐसे नेता हैं जो अपने समुदाय और जरूरतमंदों के लिए आवाज उठाते रहे.
पत्नी और बेटे की राजनीति में एंट्री
जेल से रिहाई के बाद वह फिर सक्रिय राजनीति में लौटे, हालांकि सजा होने की वजह से चुनाव लड़ने पर पाबंदी है. उनकी पत्नी लवली आनंद और बेटे चेतन आनंद फिलहाल राजनीतिक रूप से आगे बढ़ रहे हैं. बिहार की सियासत में वह अब भी प्रभाव रखने वाले नेताओं में गिने जाते हैं.
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