तालिबान पर डबल गेम खेल रहे रूस और चीन, भारत से उम्मीदें
रूस और चीन के इस दोहरे चरित्र को शेष दुनिया ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन की बैठक से साफ समझ चुकी है.
highlights
- ब्रिक्स और एससीओ की बैठक से सामने आया दोहरा चरित्र
- तालिबान को एक तरफ नसीहत तो दूसरी तरफ पुचकार रहे
- रूस औऱ चीन के इस खेल को दुनिया ने भी समझ लिया
नई दिल्ली:
अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को लेकर रूस और चीन डबल गेम खेल रहे हैं. एक तरफ तो वह अफगानिस्तान (Afghanistan) की जमीन आतंकियों के पोषण के लिए इस्तेमाल नहीं होने की अपील कर समावेशी सरकार की वकालत करते हैं. दूसरी तरफ तालिबान (Taliban) के नुमाइंदों से मेल-मुलाकात के वक्त इन मसलों का जिक्र तक नहीं करते. यही नहीं, रूस (Russia) औऱ चीन (China) बाकी देशों से भी तालिबान की वकालत करते नजर आ रहे हैं. संभवतः यही एक बड़ी वजह है कि अमेरिका समेत बाकी देशों ने भारत (India) पर ही अपना दांव लगाने के बारे में गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया है. इसकी एक बड़ी वजह यही है कि भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जो खुलकर तालिबान के बारे में बोल रहा है. न सिर्फ बोल रहा है, बल्कि अपनी रणनीति भी बना रहा है.
ब्रिक्स-एससीओ से और साफ हुई पिक्चर
गौरतलब है कि रूस और चीन के इस दोहरे चरित्र को शेष दुनिया ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन की बैठक से साफ समझ चुकी है. ब्रिक्स देशों के शिखर सम्मेलन के बाद साझा घोषणा पत्र में दो टूक कहा गया कि अफगानिस्तान को आतंकवाद की शरणस्थली नहीं बनने दिया जाएगा. और तो और, अफगानिस्तान की जमीन का आतंकवादियों की ओर से दूसरे देशों के खिलाफ इस्तेमाल भी नहीं करने दिया जाएगा. यह साझा घोषणा पत्र ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के बीच गहन विचार-विमर्श के बाद जारी किया गया होगा. फिर शंघाई सहयोग संगठन की बैठक के बाद जारी घोषणा पत्र में भारत, पाकिस्तान व अन्य देशों के साथ रूस व चीन की तरफ से कहा गया है कि ये सारे देश एकीकृत, शांतिपूर्ण, लोकतांत्रिक व आतंकवाद से मुक्त अफगानिस्तान का समर्थन करते हैं. यही नहीं, अफगानिस्तान में तालिबान से समावेशी सरकार की मांग भी की गई. इसके बावजूद रूस और चीन इन बैठकों से इतर तालिबान के नुमाइंदों संग गलबहियां करते नजर आए.
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तालिबान के लगातार संपर्क में हैं दोनों देश
यह अलग बात है कि ब्रिक्स या एससीओ के साझा घोषणा पत्र से इतर रूस या चीन की तरफ से कोई ईमानदार कोशिश नहीं दिखती जो बताती हो कि वह तालिबान पर दोनों साझा घोषणा पत्रों के मुताबिक कदम उठाने का कोई दबाव बना रहे हों. गौरतलब है कि तालिबान के प्रति लचीला रुख अपनाने के अलावा ये पाकिस्तान को भी भीतरखाने से समर्थन दे रहे हैं, जो खुलकर तालिबान का पक्ष ले रहा है. जाहिर है रूस-चीन-पाकिस्तान की तिकड़ी अपने-अपने हित साध रही है, लेकिन इससे इस आशंका को बल मिल रहा है कि तालिबान को समर्थन से पिछले दो दशकों में अफगानिस्तान की विकास से जुड़ी उपलब्धियां पानी में मिल सकती है. इसकी एक वजह यही है कि तालिबान शरिया के मुताबिक शासन करने की बात पुरजोर तरीके से कहता आया है. यानी महिलाओं और बच्चों के मानवाधिकारों पर सबसे पहले गाज गिर रही है. ऐसे में भारत ही एकमात्र उम्मीद बचता है जो तालिबान के खिलाफ रणनीतिक साझेदारी को अमल पहनाए.
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