Maharashtra से पहले इन राज्यों में Political Crisis, तब क्या हुआ था ?
महाराष्ट्र से पहले लगभग ऐसे ही सियासी मामले ( Maharashtra Political Crisis ) कई राज्यों में सामने आ चुके हैं. इनमें से ज्यादातर मामलों में सुप्रीम कोर्ट, राज्यपाल और स्पीकर से ही समाधान का रास्ता निकला.
highlights
- महाराष्ट्र में जारी राजनीतिक घमासान थमने का नाम नहीं ले रहा है
- विधायकों की बगावत के बाद महाराष्ट्र सरकार संकट से जूझ रही है
- महाराष्ट्र से पहले ऐसे सियासी मामले कई राज्यों में सामने आ चुके हैं
नई दिल्ली:
महाराष्ट्र में बीते कई दिनों से जारी राजनीतिक घमासान ( Maharashtra Political Crisis ) थमने का नाम नहीं ले रहा. सत्तासीन गठबंधन महाविकास आघाड़ी (MVA) का नेतृत्व कर रही शिवसेना ( Shiv Sena) और उसके सहयोगी दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) और कांग्रेस ( Congress) के विधायकों की बगावत के बाद महाराष्ट्र सरकार सियासी संकट से जूझ रही है. ऐसे मामले में विधानसभा स्पीकर और राज्यपाल से मामला सुलझने में देरी देख राजनीतिक पार्टी सुप्रीम कोर्ट का रुख कर लेते हैं. वहीं, आम तौर पर ऐसे मामले में सुप्रीम कोर्ट सदन में बहुमत साबित ( Floor Test) करने की बात कहता है.
महाराष्ट्र से पहले लगभग ऐसे ही सियासी मामले कई राज्यों में सामने आ चुके हैं. इनमें से ज्यादातर मामलों में सुप्रीम कोर्ट, राज्यपाल और स्पीकर से ही समाधान का रास्ता निकला. आइए, महाराष्ट्र से पहले और राज्यों में सामने आए ऐसे ही सियासी उथल-पुथल की घटनाओं के बारे में जानते हैं. साथ ही यह भी जानते हैं कि उन सियासी मामलों का समाधान कैसे निकला.
सबसे चर्चित उत्तर प्रदेश का मामला
साल 1998 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी ने मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को पद से हटा दिया था और लोकतांत्रिक कांग्रेस नेता जगदंबिका पाल को सरकार बनाने के लिए न्योता दे दिया था. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि सत्ता में कौन रहेगा यह तय करने के लिए फौरन फ्लोर टेस्ट कराया जाना चाहिए. इस बीच बीजेपी सरकार को समर्थन दे रही पार्टी के फैसले के खिलाफ 12 विधायकों ने बीजेपी समर्थन वापस ले लिया. दल-बदल विरोधी कानून के अंतर्गत उनके खिलाफ कार्यवाही का केस भी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन था. कोर्ट ने साफ कहा था कि विधानसभा स्पीकर ने फ्लोर टेस्ट के आदेश के बावजूद उसके एक दिन पहले तक विधायकों की अयोग्यता को बरकरार रखा था. वहीं फ्लोर टेस्ट में जीतकर कल्याण सिंह वापस मुख्यमंत्री बने और पाल महज 24 घंटे में ही कुर्सी से बेदखल हो गए.
मध्य प्रदेश का हालिया उदाहरण
कोरोनावायरस से फैली महामारी की शुरुआत के दौरान अप्रैल 2020 में मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार के खिलाफ उनकी ही पार्टी कांग्रेस के 22 विधायकों ने इस्तीफा दे दिया. इसके बाद मध्य प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल लालजी टंडन ने पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को सरकार बनाने के लिए न्योता भेजा. इस मामले में कांग्रेस विधायकों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. सुप्रीम कोर्ट में याचिका देकर दावा किया गया था कि संविधान के अनुच्छेद 174 और 175 के तहत राज्यपाल का बुलावा असंवैधानिक है. सुप्रीम कोर्ट ने कमलनाथ सरकार को फ्लोर टेस्ट में बहुमत साबित करने का आदेश दिया था. पार्टी की अंदरूनी राजनीति के चलते कमलनाथ ऐसा नहीं कर पाए और उन्हें इस्तीफा सौंपना पड़ा.
गोवा में मनोहर पर्रिकर की वापसी
महाराष्ट्र के नजदीकी राज्य गोवा में विधानसभा चुनाव 2017 के बाद भारतीय जनता पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने के राज्यपाल मृदुला सिन्हा के फैसले को चुनौती देते हुए कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई थी. कांग्रेस की दलील थी कि बीजेपी छोटे दलों के समर्थन का दावा कर रही थी लेकिन वे समर्थन नहीं कर रहे थे. कांग्रेस की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 24 घंटे के भीतर फ्लोर टेस्ट करवाने का आदेश दिया. इसमें बीजेपी नेता विजयी हुए और मनोहर पर्रिकर ने फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.
कर्नाटक में फौरन फ्लोर टेस्ट का आदेश
गोवा के बाद महाराष्ट्र के दूसरे राज्य पड़ोसी कर्नाटक में भी साल 2018 में ऐसी सियासी हालत पैदा हुई थी. तब के राज्यपाल वजुभाई वाला ने बीजेपी के बीएस येदियुरप्पा को सरकार बनाने के लिए बुलावा भेजा था. उन्हें बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन की मोहलत दी गई थी. विपक्षी कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. याचिका में दोनों दलों ने दावा किया था कि फ्लोर टेस्ट में देरी से खरीद-फरोख्त और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा. सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर आधी रात को सुनवाई और तीन जजों की बेंच ने तत्काल फ्लोर टेस्ट कराने को कहा था.
तीन सदस्यीय बेंच ने अपने आदेश में कहा था कि विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों ने अभी तक संविधान की अनुसूची III में निर्दि ष्ट शपथ नहीं ली है. विधानसभा अध्यक्ष का चुनाव होना बाकी है. इस तरह के मामले में, यह तय करने के लिए विस्तृत सुनवाई की जरूरत है कि येदियुरप्पा को सरकार बनाने के लिए बुलाने में राज्यपाल की कार्रवाई कानून में वैध थी या नहीं. इसमें ज्यादा समय लग सकता है और अंतिम निर्णय तुरंत नहीं दिया जा सकता है. इसलिए बहुमत का पता लगाने के लिए बिना किसी देरी के तुरंत फ्लोर टेस्ट करवाया जाए.
अरुणाचल प्रदेश का नबाम रेबिया मामला
साल 2016 में एक ऐसा ही मामला पूर्वोत्तर राज्यों में एक अरुणाचल प्रदेश में सामने आया था. पांच जजों की बेंच ने बागी विधायकों और राज्यपाल की भूमिका पर नबाम रेबिया मामले में सुनवाई की थी. इस मामले में सत्तारूढ़ कांग्रेस के 47 में 21 वि धा यकों ने राज्यपाल से संपर्क कर दावा किया था कि मौजूदा मुख्यमंत्री नबाम तुकी का समर्थन नहीं करने पर उन सबको अपनी सीट से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया जा रहा है. कांग्रेस ने इन विधायकों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने के बाद विधानसभा की सदस्यता के अयोग्य ठहराने की कार्यवाही शुरू की थी.
इसके बाद तत्कालीन राज्यपाल ने विधानसभा का एक सत्र बुलाकर आदेश दिया था कि तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष नबाम रेबिया को हटाने का प्रस्ताव मुख्यमंत्री या कैबिनेट की सिफारिश के बिना एजेंडे का हिस्सा होगा. इन फैसलों को कोर्ट में चुनौती देने पर पांच जजों की बेंच ने कहा था कि राज्यपाल को किसी भी राजनीतिक खरीद-फरोख्त और जोड़-तोड़ से दूर रहना चाहिए. राजनीतिक सवालों को राजनीतिक दलों को ही निपटाने दिया जाना चाहिए. कोर्ट ने अपनी टिप्पणियों के बाद विधानसभा सत्र को स्थगित करने और तत्कालीन स्पीकर को उनके पद से हटाने के प्रस्ता व को पेश करने के फैसले से जुड़े राज्यपाल के पारित आदेशों को रद्द कर दिया था.
उत्तराखंड में हरीश रावत की सरकार
उत्तराखंड हरीश रावत के नेतृ्त्व वाली कांग्रेस सरकार मार्च 2016 में अल्पमत में आ गई थी. कांग्रेस के नौ विधायक बागी होकर बीजेपी में शामिल हो गए थे. मुख्यमंत्री हरीश रावत को बहुमत साबित करने के लिए पांच दिन का समय दिया गया था. उनके फ्लोर टेस्ट से पहले ही केंद्र सरकार ने राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश कर दी थी. तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने स्वीकार भी कर लिया था. हरीश रावत ने राष्ट्रपति के फैसले को नैनीताल हाई कोर्ट में चुनौती दी थी. हाई कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन लगाए जाने को असंवैधानिक करार दिया था. केंद्र सरकार ने हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. सुप्रीम कोर्ट में भी हाई कोर्ट जैसा ही फैसला आया. इसके बाद हरीश रावत सरकार फिर बहाल हो गई.
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झारखंड में सीएम-प्रोटेम स्पीकर का मामला
झारखंड में साल 2005 में बीजेपी ने बहुमत का दावा किया था, इसके बावजूद तत्कालीन राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया था. राज्यपाल ने एक जूनियर विधायक को प्रोटेम स्पीकर के तौर पर आसीन कर दिया था. इसके खिलाफ बीजेपी नेता अर्जुन मुंडा और अजय कुमार झा सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए. कोर्ट ने सुनवाई के बाद तत्काल फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि विधायकों के शपथ ग्रहण यानी विधानसभा सत्र के दूसरे दिन ही फ्लोर टेस्ट करवाया जाए. शिबू सोरेन विधानसभा में अपना बहुमत साबित नहीं कर पाए और नौ दिनों के बाद ही उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा. इसके बाद 13 मार्च, 2005 को एनडीए की सरकार बनी और अर्जुन मुंडा दूसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने.
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महाराष्ट्र और बिहार में और भी कई मिसाल
इन राज्यों के अलावा महाराष्ट्र में ही राज्यपाल ने जब बड़े दल होने के नाते बीजेपी के देवेंद्र फड़णवीस को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया तो शिवसेना ने फ्लोर टेस्ट के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरावाजा खटखटाया. कोर्ट ने 24 घंटे के अंदर फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया. इसके बाद शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस के महाविकास आघाड़ी की सरकार बनी. बिहार में 3 मार्च 2000 को लालू यादव की पार्टी को सबसे ज्यादा सीट मिलने के बावजूद नीतीश कुमार को तत्कालीन राज्यपाल विनोद चंद्र पांडेय ने मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई. बहुमत जुटते नहीं देख आठ दिन बाद ही 10 मार्च 2000 को नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था.
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