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कभी भी उत्तराखंड में भीषण तबाही ला सकते हैं ये 50 ग्लेशियर

हिमालय क्षेत्र की बात करें तो 8000 से अधिक ग्लेशियर (Glacier) झीलें हैं, जिनमें 200 को खतरनाक की श्रेणी में रखा गया है. अब अगर सिर्फ उत्तराखंड की बात करें तो इस इलाके में 50 से अधिक ग्लेशियर तेजी से आकार बदल रहे हैं.

Updated on: 08 Feb 2021, 11:52 AM

highlights

  • हिमालय क्षेत्र में 8000 से अधिक ग्लेशियर झीलें हैं
  • इनमें 200 को खतरनाक की श्रेणी में रखा गया है
  • उत्तराखंड में 50 ग्लेशियर तेजी से आकार बदल रहे

नई दिल्ली:

उत्तराखंड (Uttarakhand) में रविवार को ग्लेशियर टूटने की एक बड़ी वजह जलवायु परिवर्तन को माना जा रहा है. विशेषज्ञों की मानें तो हिमालय का क्षेत्र अन्य पर्वत श्रंखलाओं की तुलना में कहीं तेजी से गर्म हो रहा है. इस तापमान को बढ़ाने में कंक्रीट-सीमेंट के ढांचों का योगदान भी कम करके नहीं आंका जा सकता है, जिसने लकड़ी की जगह ले ली है. अगर समग्र हिमालय क्षेत्र की बात करें तो 8000 से अधिक ग्लेशियर (Glacier) झीलें हैं, जिनमें 200 को खतरनाक की श्रेणी में रखा गया है. अब अगर सिर्फ उत्तराखंड की बात करें तो इस इलाके में 50 से अधिक ग्लेशियर तेजी से आकार बदल रहे हैं. राज्य सरकार की ओर से 2007-08 में कराए गए विशेषज्ञ कमेटी के अध्ययन में यह निष्कर्ष निकला था. ग्लेशियर से जुड़े खतरों के वैश्विक तापमान से संबंधों के खतरों से आगाह करती है हाय मैप रिपोर्ट, जिसे आईसीआईएमओडी ने तैयार किया है. इसमें कहा गया है कि हिंदू-कुश हिमालय (Himalaya) क्षेत्र में दुनिया के अन्य हिस्सों की तुलना में तेजी से बढ़ रहा है. संभवतः इसी खतरे को पहले से भांप कर चमोली जिले में रैणी के ग्रामीणों ने इसी को लेकर नैनीताल हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी. 

नैनीताल हाईकोर्ट में दायर की थी याचिका
गौमुख ग्लेशियर में झील बनने का मामला केदारनाथ आपदा के बाद 2014 में दिल्ली के अजय गौतम की जनहित याचिका के माध्यम से नैनीताल हाईकोर्ट के समक्ष आया था. इस याचिका में बताया गया है कि उत्तराखंड में ढाई हजार के आसपास ग्लेशियर हैं. 2013 में चौराबाड़ी ग्लेशियर फटने से ही केदारनाथ आपदा आई और बड़े पैमाने पर जनधन की हानि हुई. याचिकाकर्ता ने बताया कि राज्य सरकार द्वारा कराये अध्ययन में पाया गया है कि 50 से अधिक ग्लेशियर तेजी से आकार बदल रहे हैं, मगर इसके बाद भी सरकार द्वारा कदम नहीं उठाए जा रहे हैं. उन्होंने कहा कि यदि सरकार व सरकारी तंत्र नहीं जागा तो यह स्थिति और खराब होगी. उत्तराखंड के ग्लेशियरों से गंगा, यमुना जैसी कई बड़ी नदियां निकलती हैं. इनसे पूरे उत्तर और पूर्वोत्तर भारत की प्यास बुझती है, लेकिन ये ग्लेशियर पर्यावरणीय लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं. पर्यावरणविदों का मानना है कि उत्तराखंड की नदियों पर बड़े बांध बनाना काफी खतरनाक है.

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चमोली तबाही की चेतावनी भी 8 महीने पहले दी थी
7 फरवरी को उत्तराखंड के चमोली जिले में जिस ग्लेशियर के फटने से इतनी बड़ी तबाही आई है, इसकी चेतावनी उत्तराखंड के ही वैज्ञानिकों ने 8 महीने पहले दे दी थी. उन्होंने बताया था कि उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल के कई इलाकों में ऐसे ग्लेशियर हैं, जो कभी भी फट सकते हैं. उन्होंने इस बारे में जम्मू-कश्मीर के काराकोरम रेंज में स्थित श्योक नदीं का उदाहरण दिया था. वैज्ञानिकों ने बताया कि श्योक नदी के प्रवाह को एक ग्लेशियर ने रोक दिया है. इसकी वजह से अब वहां एक बड़ी झील बन गई है. झील में ज्यादा पानी जमा हुआ, तो उसके फटने की आशंका है. यह चेतावनी दी थी देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ जियोलॉजी के वैज्ञानिकों ने. वैज्ञानिकों ने चेताया था कि जम्मू-कश्मीर काराकोरम रेंज समेत पूरे हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियरों द्वारा नदी का प्रवाह रोकने पर कई झीलें बनी हैं. यह बेहद खतरनाक स्थिति है. वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों के अनुसार उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में उत्तरकाशी स्थित यमुनोत्री, गंगोत्री, डोकरियानी, बंदरपूंछ ग्लेशियर के अलावा चमोली जिले में द्रोणगिरी, हिपरावमक, बद्रीनाथ, सतोपंथ और भागीरथी ग्लेशियर स्थित है.

ग्लेशियर झीलों की लगातार बढ़ रही संख्या
2013 की आपदा के बाद से वैज्ञानिक लगातार हिमालय पर रिसर्च कर रहे हैं. देहरादून के भू-विज्ञान संस्थान के शोधकर्ताओं ने एक बड़ी चेतावनी जारी की है. उनके मुताबिक ग्लेशियरों के कारण बनने वाली झीलें बड़े खतरे का कारण बन सकती हैं. 2013 की भीषण आपदा इसका जीता जागता उदाहरण है कि किस तरह से एक झील के फट जाने से उत्तराखंड में तबाही का तांडव हुआ था. वैज्ञानिकों ने श्योक नदी समेत हिमालयी नदियों पर जो रिसर्च किया है वह इंटरनेशनल जर्नल ग्लोबल एंड प्लेनेटरी चेंज में प्रकाशित हुआ है. इस रिपोर्ट में दुनिया के विख्यात जियोलॉजिस्ट प्रोफेसर केनिथ हेविट ने भी मदद की है. इस स्टडी में वैज्ञानिकों ने श्योक नदी के आसपास के हिमालयी क्षेत्र में 145 लेक आउटबर्स्ट की घटनाओं का पता लगाया है. इन सारी घटनाओं के रिकॉर्ड की एनालिसिस करने के बाद ये रिपोर्ट तैयार की है. रिसर्च में पता चला कि हिमालय क्षेत्र की करीब सभी घाटियों में स्थित ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, लेकिन पाक अधिकृत कश्मीर वाले काराकोरम क्षेत्र में ग्लेशियर में बर्फ की मात्रा बढ़ रही है. इसलिए ये ग्लेशियर जब बड़े होते हैं तो ये नदियों के प्रवाह को रोकते हैं. डॉक्टर राकेश भाम्बरी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियर की स्थिति की लगातार निगरानी जरूरी है. हम समय रहते चेतावनी का सिस्टम विकसित करना चाहते हैं. इससे आबादी वाले निचले इलाकों को संभावित नुकसान से बचाया जा सकता है. 

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कुमदन समूह के ग्लेशियर लाए 30 बड़े हादसे
श्योक नदी के ऊपरी हिस्से में मौजूद कुमदन समूह के ग्लेशियरों ने कई बार नदी का रास्ता रोका है. उस दौरान झील के टूटने की कई घटनाएं हुई हैं. जो 146 घटनाएं वैज्ञानिकों ने रिकॉर्ड की हैं, उनमें से 30 बड़े हादसे हैं. इस समय क्यागर, खुरदोपीन और सिसपर ग्लेशियर ने काराकोरम रेंज की नदियों के प्रवाह को कई बार रोक झील बनाई है. इन झीलों के अचानक फटने से पीओके समेत भारत के कश्मीर वाले हिस्से में जानमाल की काफी क्षति हो चुकी है. आमतौर पर बर्फ से बनने वाले बांध एक साल तक ही मजबूत रहते हैं. हाल में सिसपर ग्लेशियर से बनी झील ने पिछले साल 22-23 जून और इस साल 29 मई को ऐसे ही बर्फ के बांध बनाए हैं. ये कभी भी टूट सकते हैं. इसे रोकने के लिए वैज्ञानिकों के पास कोई रास्ता नहीं है. इसके अलावा रुद्रप्रयाग जिले में केदारनाथ धाम के पीछे स्थित चौराबाड़ी ग्लेशियर, खतलिंग, व केदार ग्लेशियर अति संवेदनशील हैं. जहां तक कुमायूं क्षेत्र में कुछ प्रमुख ग्लेशियरों का सवाल है तो पिथौरागढ़ में मिलम ग्लेशियर, काली, नरमिक,  हीरामणी, सोना, पिनौरा, रालम, पोंटिंग व मेओला जैसे ग्लेशियर प्रमुख हैं. वहीं बागेश्वर क्षेत्र में सुंदरढुंगा, सुखराम, पिंडारी, कपननी व मैकतोली जैसे कुछ प्रमुख ग्लेशियर हैं.

हर साल 22 मीटर पीछे खिसक रहा है गंगोत्री ग्लेशियर
उत्तराखंड में गंगोत्री ग्लेशियर सबसे बड़ा है. यह चार हिमनदों रतनवन, चतुरंगी स्वच्छंद और कैलाश से मिलकर बना है. गंगोत्री ग्लेशियर 30 किलोमीटर लंबा और दो किलोमीटर चौड़ा है. हालिया शोध में यह बात सामने आई है कि गंगोत्री ग्लेशियर पर्यावरण में आए बदलाव के चलते हर साल 22 मीटर पीछे खिसक रहा है. जहां तक सब दूसरे सबसे बड़े ग्लेशियर का सवाल है, तो पिंडारी ग्लेशियर 30 किमीमीटर लंबा और 400 चौड़ा है. यह ग्लेशियर त्रिशूल, नंदा देवी और नंदाकोट पर्वतों के बीच स्थित है. पर्यावरणीय बदलाव की वजह से फिलहाल हर साल ये ग्लेशियर कई मीटर तक पीछे खिसक रहे हैं. अतिसंवेदनशील ग्लेशियरों के टूटने, एकाएक पिघलने से उत्तर भारत में भयावह बाढ़ और तबाही की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. उत्तराखंड में ऐसी करीब 50 ग्लेशियर झीलें खतरनाक स्थिति में हैं और इनका फटना तबाही का सबब बन सकता है.

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दूर से खूबसूरत दिखते ग्लेशियर ला सकते हैं बड़ी आपदा
ग्लेशियर दूर से देखने पर जितने खूबसूरत लगते हैं, असल में उतने ही खतरनाक होते हैं. इनकी चोटी या फिर किनारे की तरफ जाना किसी दुर्घटना को आमंत्रण दे सकता है. दूसरी ओर ग्लेशियर का टूटना या पिघलना ऐसी दुर्घटनाएं हैं, जो बड़ी आबादी पर असर डालती हैं. ग्लेशियर से छोटे स्तर पर भी हादसे हो सकते हैं. कई बार पहाड़ों पर घूमने गए सैलानी ग्लेशियर की चोटी पर पहुंचने की कोशिश करते हैं. ये बर्फीले टावर काफी खतरनाक होते हैं और कभी भी गिर सकते हैं. यहां समझ लें कि ग्लेशियर हमेशा अस्थिर होते हैं और धीरे-धीरे सरकते हैं. ये इतनी धीमी गति से भी होता है जो आंखों से दिखाई न दे. ग्लेशियर के ज्यादा पास खड़ा होना भी हादसा ला सकता है. ग्लेशियर से बर्फ के विशाल टुकड़े गिरने से सैलानियों या स्थानीय लोगों की मौत की कई खबरें आती रहती हैं. ग्लेशियर में कई बार बड़ी-बड़ी दरारें होती हैं, जो ऊपर से बर्फ की पतली परत से ढंकी होती हैं. ये जमी हुई मजबूत बर्फ की चट्टान की तरह ही दिखती है. ऐसी चट्टान के पास जाने पर वजन पड़ते ही ग्लेशियर में मौजूद बर्फ की पतली परत टूट जाती है और व्यक्ति सीधे बर्फ की विशालकाय दरार में जा गिरता है. कहना न होगा कि ये जानलेवा होता है. 

ग्लेशियर पिघलने से हर साल 35 अरब टन पानी जा रहा समुद्र में 
अब बात करते हैं बड़े खतरे यानी ग्लेशियर के पिघलने की. पश्चिम अंटार्कटिका में एक ऐसा ग्लेशियर है, जिसकी बर्फ तेजी से पिघल रही है. इसे थ्वाइट्स ग्लेशियर कहते हैं जिसका आकार ब्रिटेन से भी बड़ा है. ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण ये ग्लेशियर पिघल रहा है, जिससे सालाना 35 अरब टन पानी समुद्र में जा रहा है. अगर समुद्र का जलस्तर इसी तेजी से बढ़ता रहा तो पूरी दुनिया में बाढ़ आ जाएगी. यूनाइटेड नेशंस क्लाइमेट साइंस पैनल ने हालिया अपडेट में बताया कि साल 2100 तक समुद्र का स्तर 26 सेंटीमीटर से 1.1 मीटर तक बढ़ सकता है, जो बेहद खतरनाक है. वैसे ग्लेशियर पिघलने का इंसान के जीवन पर और भी कई तरह से असर दिखता है. जैसे इससे जमीन में जलस्तर बढ़ेगा और फसलें तबाह हो जाएंगी. ग्लेशियर उल्टी तरह से भी असर करता है, जैसे एक ओर तो गर्मी में अपनी सामान्य गति से पिघलना आसपास के लोगों के लिए वरदान होता है क्योंकि इससे उन्हें पानी की आपूर्ति होती है, वहीं इसका पूरी तरह से पिघल जाना पानी की समस्या पैदा कर देता है. एक ओर इससे बाढ़ आ जाती है तो दूसरे मौसम में पानी का संकट आ जाता है. मिसाल के तौर पर साल 2016 में बोलिविया में यही हुआ था, जब वहां का एंडियन ग्लेशियर तेजी से पिघला था.