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Population अब हम हो गए 8 अरब, सामने हैं ये पांच कठिन चुनौतियां

दुनिया की बढ़ती आबादी असमानता, भुखमरी, जलवायु संकट, तेजी से बढ़ता शहरीकरण और वृद्धावस्था जैसी कठिन चुनौतियों को भी लेकर आ रही है.

Updated on: 17 Nov 2022, 09:11 PM

highlights

  • बढ़ती आबादी के साथ चौड़ी होती जा रही है अमीरी-गरीबी की खाई
  • 2050 तक उम्रदराज लोगों की संख्या बच्चों की तुलना में होगी ज्यादा
  • 2019 से 2022 के बीच कुपोषित लोगों की संख्या 150 मिलियन पहुंची

नई दिल्ली:

8 अरब और जनसंख्या (Population) हर पल तेजी से लगातार बढ़ रही है. आबादी के लिहाज से यह एक बड़ा मील का पत्थर है. संयुक्त राष्ट्र (United Nations) के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने इसे वैज्ञानिक सफलताओं और पोषण, सार्वजनिक स्वास्थ्य और साफ-सफाई का वसीयतनामा करार दिया है. इसमें कोई शक भी नहीं है, लेकिन फिर भी हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि जैसे-जैसे हमारी आबादी बढ़ रही है, मानव परिवार के समक्ष पहाड़ जैसी चुनौतियां भी सिर उठा रही हैं. इनमें से पांच तो वास्तव में बेहद गंभीर हैं और समग्र मानवता के लिए बड़ी चुनौती पेश करती हैं. 

असमान दुनिया 
समग्र विश्व में वैश्विक असमानताएं हर गुजरते दिन के साथ बद् से बद्तर हो रही हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक आबादी की आधी गरीब जनता के वयस्कों की क्रय शक्ति महज 2,900 अमेरिकी डॉलर वार्षिक है. इसके उलट शीर्ष 10 फीसदी अमीरों में क्रय शक्ति की दर इसकी 190 गुना से अधिक है. दुनिया के 10 फीसदी अमीरों के पास कुल संपत्ति का 76 फीसदी हिस्सा है और वह समग्र आय का 52 फीसदी हिस्सा अपने साथ ले जाते हैं. आधी गरीब आबादी को महज 8.5 फीसदी से संतोष करना पड़ता है. 10 फीसदी सर्वाधिक अमीर शख्स वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन के लिए 48 फीसदी जिम्मेदार हैं, जबकि इसका सबसे ज्यादा प्रभाव गरीब आबादी पर पड़ता है. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक उत्तरी अमेरिका में रहने वाले लोगों की औसत आय उप सहारा अफ्रीकी देशों के लोगों की तुलना में 16 गुना अधिक है. आज 71 फीसदी वैश्विक आबादी ऐसे देशों में रह रही है, जहां असमानता की खाई दिन दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ रही है. अधिकांश विकसित देशों समेत भारत जैसे मध्य आय वाले देशों में भी आय में अंतर बढ़ रहा है. और तो और, अमीर देशों के लोग गरीब देशों में रह रहे लोगों की तुलना में 30 साल अधिक जीते हैं. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस भी इस बाबत चेतावनी देते हैं, 'वैश्विक स्तर पर जब तक हम अमीर-गरीब की चौड़ी खाई को पाटते नहीं हैं, तब तक हम एक ऐसी 8 अरब आबादी वाली दुनिया में रहने को मजबूर रहेंगे जो तनाव, अविश्वास, संकट और संघर्ष से भरी हुई है.'

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भूखे पेट
वैश्विक स्तर पर 828 मिलियन लोग भुखमरी के शिकार हैं. रूस-यूक्रेन युद्ध ने खाद्य-ऊर्जा संकट को और भी बढ़ाने का काम किया है. विकासशील अर्थव्यवस्थाएं इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुई हैं. 14 मिलियन बच्चे जबर्दस्त कुपोषण झेल रहे हैं. वैश्विक स्तर पर 45 फीसदी बच्चों की मौत का कारण भूख और उससे जुड़े कारण हैं. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक 2019 से 2022 के बीच कुपोषित लोगों की संख्या बढ़कर 150 मिलियन पहुंच चुकी है. भुखमरी का गरीबी से सीधा संबंध है. एक अनुमान के मुताबिक 2021 में अनुमानतः 698 मिलियन लोग यानी कुल आबादी का 9 फीसदी हिस्सा भयंकर गरीबी में रह रहा था. विडंबना यह है कि दुनिया के पास भूखों को खिलाने के लिए पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्ध है. हालांकि इसका एक बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाता है. पैदा होने वाले खाद्यान्नों का एक-तिहाई हिस्सा कभी भी खाया नहीं जाता. इस तरह खाद्यान्न उत्पादन के काम आने वाला पानी, जमीन और ऊर्जा भी बर्बाद हो जाती है. एक अनुमान के मुताबिक पैदा हुई फसल का 14 फीसदी हिस्सा खुदरा बाजार तक पहुंचने में बर्बाद हो जाता है, जबकि 17 फीसदी हिस्सा घरों, रेस्त्राओं और स्टोरों में बर्बाद हो जाता है. 

जलवायु से जुड़ी आपदाएं
जलवायु आपदा एक सच्चाई है, जिसे हम अपने सामने देख रहे हैं.  बढ़ता उत्सर्जन और तापमान बाढ़, तूफान और सूखे जैसी आपदाओं को लाने का कारण बन रहा है. विश्व मौसम विज्ञान संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि बीते 50 सालों से औसतन लगभग हर रोज मौसम, जलवायु या पानी से जुड़ी आपदाएं घट रही हैं. यही नहीं, इनकी वजह से औसतन हर रोज 115 लोगों को जान गंवानी पड़ रही है और 202 मिलियन डॉलर का नुकसान हो रहा है. मानव जनित उत्सर्जन मसलन कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड से वैश्विक तापमान पूर्व औद्योगिक स्तर से 1 डिग्री अधिक बढ़ चुका है. तेजी से बढ़ते शहरीकरण,औद्योगिकीकरण समेत बढ़ती आबादी हमें जलवायु संकट के मुहाने पर ले आई है. इस फेर में यह भी ध्यान रखना होगा कि समय पर चेतावनी मिल जाने की तकनीक में सुधार आने से 1970 से 2019 के बीच जलवायु संबंधी आपदाओं में हताहतों की संख्या में तीन गुना कमी आई है.  

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शहरीकरण एक बड़ी समस्या
एकतरफा शहरीकरण का असर हमारे स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है. वैश्विक स्तर पर 56 फीसदी आबादी यानी 4.4 बिलियन लोग शहरों में रह रहे हैं. 2050 तक शहरों में रहने वाली आबादी की संख्या इसकी दोगुनी होगी. दूसरे शब्दों में कहें तो हर 10 में से 7 लोग शहरों में रह रहे होंगे. बढ़ते शहरीकरण का एक अर्थ किफायती आवास, यातायात के साधनों समेत रोजगार और मूलभूत सुविधाओं की मांग बढ़ने से भी जुड़ा हुआ है. आज एक अरब शहरी गरीब अवैध बस्तियों या झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं. जाहिर है शहरों की बढ़ती आबादी का असर जमीन, पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर भी पड़ता है. विश्व बैंक के मुताबिक वैश्विक स्तर पर 80 फीसदी जीडीपी शहरों से आ रही है. शहरीकरण का अगर बेहतर तरीके से प्रबंधन किया जाए तो उत्पादकता में वृद्धि और प्रयोगधर्मिता से सतत् विकास में महती योगदान दे सकता है. हालांकि एक बड़ी चुनौती है ऐसे शहरों का निर्माण करना है जो हरित, समावेशी और लचीले हों. हमारे नीति नियंताओं को सुनिश्चित करना होगा कि हमारे शहर स्मार्ट होने के साथ-साथ हर लिहाज से लंबे समय तक रहने योग्य भी हों. 

अधिक वृद्ध आबादी
2050 तक समग्र विश्व में उम्रदराज लोगों की संख्या बहुत होगी. 65 या इससे अधिक वय के लोगों की संख्या 5 या 12 की उम्र के बच्चों की तुलना में दोगुनी होगी. 2050 में दीर्घायु होने की वैश्विक संख्या 77.2 साल होगी यानी इससे मृत्यु दर में कमी आएगी. इसका एक अर्थ यह भी है कि उम्रदराज आबादी की संख्या बढ़ने से उनकी देखभाल करने वाले लोगों की संख्या में कमी आएगी. इस वजह से उम्रदराज लोगों की देखभाल का खर्च भी और बढ़ जाएगा. जैसे-जैसे उम्रदराज आबादी बढ़ेगी, वैसे-वैसे वृद्ध लोगों के जनकल्याण से जुड़े कार्यक्रमों समेत स्वास्थ्य देखभाल की सुविधाएं जुटाने में भी तेजी लानी होगी. सामाजिक सुरक्षा और पेंशन योजनाएं भी अधिक मजबूत और व्यापक बनानी होंगी.