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Maharashtra में एक हिंदू पुरुष के दो महिलाओं से शादी करने पर हंगामा है बरपा... क्यों समझें कानून को

1955 में हिंदू विवाह अधिनियम के पारित होने के साथ ही हिंदुओं के बीच शादी-विवाह से जुड़े कानून अमल में आ गए थे. यह विवाह अधिनियम हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म का पालन करने वालों पर लागू होता है.

Updated on: 05 Dec 2022, 08:49 PM

highlights

  • महाराष्ट्र में पारिवारिक रजामंदी से जुड़वां बहनों से शादी के बाद भी दूल्हे पर केस दर्ज
  • हिंदू विवाह अधिनियम किसी जीवनसाथी के जीवित रहते नहीं देता शादी की इजाजत

नई दिल्ली:

महाराष्ट्र (Maharashtra) में एक पुरुष से शादी (Marriage) करने वाली दो जुड़वां युवतियों का वायरल वीडियो सुर्खियों में है. दूल्हे और दुल्हन के परिवारों की सहमति से हुई इस शादी के बावजूद दूल्हे के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई गई है. रिपोर्ट के अनुसार अकलुज पुलिस स्टेशन में दूल्हे के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 494 यानी पति या पत्नी के जीवित रहते फिर से शादी करने के तहत एक गैर-संज्ञेय अपराध दर्ज किया गया है. भारतीय संविधान (Indian Constitution) का अनुच्छेद 21 और 1948 में अपनाए गए मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा का अनुच्छेद 16 लड़का-लड़की के विवाह के अधिकार को स्वीकारते हैं. भारत (India) में विवाह को नियंत्रित करने वाली कोई एक समान कानून (Marriage Laws) संहिता नहीं है, बल्कि अलग-अलग धर्म अलग-अलग कानूनों का पालन करते हैं. हिंदुओं के लिए 1955 से हिंदू विवाह अधिनियम, मुसलमानों के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम 1937, ईसाइयों के लिए भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम 1872 और पारसियों के लिए पारसी विवाह और तलाक अधिनियम 1936 है. 1954 का विशेष विवाह अधिनियम उन लोगों के बीच विवाह के लिए पारित किया गया था, जो किसी विशेष धार्मिक परंपरा से नहीं जुड़े थे.

द्विविवाह पर क्या कहता है हिंदू विवाह अधिनियम?
1955 में हिंदू विवाह अधिनियम के पारित होने के साथ ही हिंदुओं के बीच शादी-विवाह से जुड़े कानून अमल में आ गए थे. यह विवाह अधिनियम हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म का पालन करने वालों पर लागू होता है. इस अधिनियम में शादी करने की क्षमता बताई गई है और इन शर्तों का उल्लेख धारा 5 में किया गया है. इसके मुताबिक शादी के समय कोई जीवनसाथी जीवित नहीं होना चाहिए. इसका मतलब यह निकलता है कि हिंदू संस्कृति द्विविवाह प्रथा को बढ़ावा नहीं देती है. इसके अलावा शादी के समय दूल्हे और दुल्हन को दिमागी तौर पर स्वस्थ होना चाहिए. शादी के लिए खुलेमन से स्वीकृति देनी चाहिए और किसी जीवनसाथी को पागल नहीं होना चाहिए. शादी के समय लड़का-लड़की की उम्र कम से कम 21 वर्ष होनी चाहिए. साथ ही उन्हें किसी भी स्तर पर एक-दूसरे से संबंधित नहीं होना चाहिए, जो एक निषिद्ध संबंध का गठन करे. उनके बीच चचेरे भाई-बहन का रिश्ता भी नहीं होना चाहिए. अधिनियम की धारा 17 में द्विविवाह में सजा का प्रावधान है. भारतीय कानून की एक रिपोर्ट के अनुसार, 'इस अधिनियम के लागू होने के बाद दो हिंदुओं के बीच कोई भी विवाह खारिज माना जाएगा यदि इस तरह की शादी की तारीख में किसी भी पक्षकार का पति या पत्नी जीवित था. इसके साथ ही भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 494 और 495 के प्रावधान भी कानून सम्मत कार्रवाई के लिए ऐसी शादी पर लागू होंगे.

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विवाह कानूनों में समय के साथ सुधार भी हुए
भारतीय संसद ने समय के साथ-साथ समाज के विभिन्न धर्मों में प्रचलित विवाह के रीति-रिवाजों के साथ जुड़ी कुछ सामाजिक बुराइयों के खात्मे के लिए कानून भी बनाए हैं. उदाहरण के तौर पर सती प्रथा, बाल विवाह, तीन तलाक आदि. हिंदुओं के बीच सती एक कुप्रथा थी, जिसमें एक विवाहित व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसकी विधवा से चिता पर बैठ मृत पति के साथ जल जाने की उम्मीद की जाती थी. इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए बनाया गया सती निवारण आयोग अधिनियम 1987 आज भी लागू है. इसका उद्देश्य भारतीय क्षेत्र में कहीं भी सती प्रथा को समाप्त करना है. यह अधिनियम स्वैच्छिक या दबाव बनाकर विधवा को जिंदा जलाने या दफनाने पर रोक लगाता है. इसके साथ ही सती प्रथा के महिमामंडन को भी रोकता है. अधिनियम के अनुसार सती शब्द एक विधवा को उसके मृत पति या अन्य रिश्तेदार के शरीर के साथ जिंदा जलाने या दफनाने के कार्य को निरूपित करता है.

बाल विवाह रोकने के लिए सरकारी पहल और योजनाएं
बच्चों के मानवाधिकार और अन्य अधिकारों के उल्लंघन से बचाने के लिए कई कानून हैं. इनमें 2006 का बाल विवाह निषेध अधिनियम और 2012 का यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम प्रमुख है. गौरतलब है कि हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने महिलाओं के लिए विवाह की आयु बढ़ाकर 21 वर्ष करने की मंजूरी दे दी है. एक संसदीय स्थायी समिति इसके फायदे-नुकसान पर विचार कर रही है. भारत में शादी-विवाह को लेकर विभिन्न धर्मों के पर्सनल लॉ भी हैं. ऐसे में सरकार कानून में संशोधन करना चाहती है. हालांकि सामाजिक कार्यकर्ता और संगठनों का कहना है कि बाल विवाह की प्रथा को समाप्त करने के लिए कानून में सुधार पर्याप्त नहीं होगा. केंद्र सरकार की 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' जैसी योजनाओं के अलावा विभिन्न राज्य सरकारों ने भी लड़कियों की शिक्षा से लेकर उनके स्वास्थ्य देखभाल की कई पहल शुरू की है. इसके साथ ही जागरूकता अभियानों से बाल विवाह में योगदान देने वाले कारणों को दूर करने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं. उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल की 'कन्याश्री' योजना उन लड़कियों को वित्तीय सहायता प्रदान करती है जो उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहती हैं. हालांकि महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि एक अन्य योजना 'रूपश्री' भी बाल विवाह रोकने के लिए एक बेहतर पहल साबित हो सकती है. इस योजना के तहत बेटी की शादी के समय गरीब परिवारों को पश्चिम बंगाल 25,000 रुपए का एकमुश्त भुगतान करती है. बिहार और अन्य राज्यों ने लड़कियों की स्कूल में सुरक्षित आवाजाही साइकिल योजना लागू की है. उत्तर प्रदेश में लड़कियों को वापस स्कूल पढ़ने के लिए लौटने को प्रोत्साहित करने के लिए एक योजना है. विशेषज्ञों की मानें तो बाल विवाह रोकने के लिए जमीनी स्तर पर काम करने की आवश्यकता है.  

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तीन तलाक अब संज्ञेय अपराध
ट्रिपल तालक की इस्लामी प्रथा को 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने गैरकानूनी घोषित कर दिया था. इस व्यवस्था के तहत एक मुस्लिम व्यक्ति तीन बार तलाक... तलाक... तलाक कहकर अपनी पत्नी को तलाक दे सकता था. तीन तलाक प्रथा को रोकने वाले सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से पहले भारत उन कुछ देशों में शामिल था, जहां तीन तलाक की अनुमति थी. प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने मुस्लिम महिलाओं और कार्यकर्ताओं द्वारा इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित करने के अभियान का समर्थन किया और अंततः इसे संज्ञेय अपराध बना दिया.