Advertisment

क्या है One China Policy? जानें भारत और दुनिया के अन्य देशों का रुख

वर्ष 1949 में चीनी गृहयुद्ध के अंत में माओत्से तुंग की कम्युनिस्ट ताकतों ने चीन गणराज्य (ROC) की च्यांग काई-शेक की कुओमिन्तांग (KMT) के नेतृत्व वाली सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था.

author-image
Vijay Shankar
New Update
One China Policy

One China Policy ( Photo Credit : File)

Advertisment

ताइवान (Taiwan) को लेकर चीन और अमिरका (America) के बीच चल रही तानतनी को लेकर चीन वन चाइना पॉलिसी (One China Policy) का लगातार जिक्र कर रहा है. हाल ही में अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी (nancy pelosi) ने चीन की धमकियों को न सिर्फ नजरअंदाज किया बल्कि ताइवान (Taiwan) की अपनी यात्रा भी सफलतापूर्वक पूरी की. हालांकि इस दौरान चीन (China) लगातार इस दौरे को लेकर धमकियां भी दी, लेकिन यात्रा पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा. चीन ताइवान को एक कभी भी एक अलग प्रांत के रूप में नहीं देखता है और चीन को उम्मीद है कि ताइवान एक दिन उसके साथ एक हो जाएगा. इस बीच बीजिंग ने ताइवान को मुख्य भूमि के साथ फिर से जोड़ने के लिए बल के संभावित प्रयोग से इनकार नहीं किया है. यह नियमित रूप से किसी भी विदेशी गणमान्य व्यक्तियों की ताइवान यात्रा का विरोध करता है, इस बात पर जोर देता है कि सभी देश वन चाइना पॉलिसी का पालन करें.

क्या है इतिहास ?

वर्ष 1949 में चीनी गृहयुद्ध के अंत में माओत्से तुंग की कम्युनिस्ट ताकतों ने चीन गणराज्य (ROC) की च्यांग काई-शेक की कुओमिन्तांग (KMT) के नेतृत्व वाली सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था. हार चुकी आरओसी सेना ताइवान भागकर चली गई जहां उन्होंने अपनी सरकार बनाई जबकि जीत हासिल कर चुकी कम्युनिस्टों ने चीन में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) के रूप में शासन करना शुरू कर दिया. इन दोनों जगहों पर अलग-अलग शासन चलाया गया. हालांकि इन दोनों जगहों पर एक सांस्कृतिक और भाषाई विरासत समान है. यहां तक कि इन दोनों जगहों पर आधिकारिक भाषा मंदारिन के रूप में बोली जाती है. 

ताइवान को अलग प्रांत नहीं मानता है चीन

पिछले 70 सालों से अधिक समय से बीजिंग ताइवान को एक चीनी प्रांत के रूप में देखता आ रहा है. चीन शुरू से ही ताइवान को एकीकृत करने का संकल्प लेता रहा है. इसे लेकर बीजिंग का रुख यह है कि केवल "एक चीन" है और ताइवान इसका हिस्सा है. शुरू में अमेरिका सहित कई सरकारों ने ताइवान को मान्यता दी क्योंकि उस दौरान कम्युनिस्ट सरकार से नाराजगी थी. हालांकि, इस दौरान राजनयिक फिजाएं बदलीं और अमेरिका ने चीन के साथ संबंध विकसित करने की आवश्यकता को देखते हुए पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) को मान्यता दे दी. वर्ष 1979 में राष्ट्रपति जिमी कार्टर के तहत चीन गणराज्य (ROC) को मान्यता दे दी. अमेरिका ने भी अपना दूतावास ताइपे से बीजिंग में शिफ्ट कर डाला. हालांकि, अमेरिकी कांग्रेस ने ताइवान में महत्वपूर्ण अमेरिकी सुरक्षा और वाणिज्यिक हितों की रक्षा के लिए 1979 में ताइवान संबंध अधिनियम पारित किया. आज तक  अमेरिका भी  "वन चाइना" की पॉलिसी मानता रहा है. अमेरिका पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को चीन की "एकमात्र कानूनी सरकार" के रूप में मान्यता देता है, लेकिन केवल चीनी स्थिति को स्वीकार करता है कि ताइवान चीन का हिस्सा है.

ये भी पढ़ें : चीन से भारी तनाव के बीच ताइवान के शीर्ष मिलिट्री साइंटिस्ट का शव बरामद

क्या है प्रमुख अंतर

ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन द्वारा प्रकाशित एक प्राइमर के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका की वन-चाइना नीति पीआरसी के "वन चाइना" सिद्धांत के समान नहीं है. "वन-चाइना नीति में कई तरह के तत्व शामिल हैं, जैसे कि क्रॉस-स्ट्रेट विवाद समाधान की शांतिपूर्ण प्रक्रिया में अमेरिकी हित और बीजिंग की व्याख्या की तुलना में ताइवान की कानूनी स्थिति को लेकर अलग से व्याख्या. इसमें कहा गया है कि वर्ष 1980 के दशक में अमेरिकी दृष्टिकोण और चीन के संस्करण के बीच अंतर करने के लिए अमेरिका सिद्धांत के स्थान पर "नीति" का उपयोग करने के लिए स्थानांतरित हो गया.

वन चाइना पॉलिसी पर अन्य देशों का रुख

दुनिया में आज केवल 15 देश ही ROC को मान्यता देते हैं. इनमें बेलीज, ग्वाटेमाला, हैती, होली सी, होंडुरास, मार्शल आइलैंड्स, नाउरू, निकारागुआ, पलाऊ, पराग्वे, सेंट लूसिया, सेंट किट्स एंड नेविस, सेंट विंसेंट एंड द ग्रेनाडाइन्स, स्वाजीलैंड और तुवालु शामिल हैं. यहां तक ​​कि संयुक्त राष्ट्र और विश्व व्यापार संगठन यानी WTO जैसे अंतरराष्ट्रीय अंतर-सरकारी निकाय भी आधिकारिक तौर पर आरओसी को मान्यता नहीं देते हैं.

क्या है भारत का रुख और कैसे आ रहा बदलाव

वर्ष 1950 में जेडोंग के पीआरसी को मान्यता देने वाले पहले गैर-कम्युनिस्ट देशों में शामिल भारत भी वन-चाइना नीति का पक्षधर रहा था. हालांकि, धीरे-धीरे इस नीति में भारत के रुख में भी बदलाव आया है. नई दिल्ली के लिए वन-चाइना नीति न केवल ताइवान पर बल्कि तिब्बत पर भी शासन करती है. जबकि भारत ताइवान या किसी तिब्बती प्राधिकरण को चीन से स्वतंत्र नहीं मानता है, भारत के लिए भारतीय सीमाओं पर चीन की लगातार आक्रामकता पर अपने रुख पर फिर से विचार करने के लिए एक कोलाहल है. वर्षों से, भारत और चीन के नेताओं के बीच बैठकों ने नियमित रूप से एक-चीन नीति की पुष्टि की. हालांकि, भारत ने वर्ष 2010 में तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ की यात्रा के बाद ऐसा करना बंद कर दिया. बीजिंग ने नई दिल्ली को बताया था कि वन चाइना पॉलिसी को दोहराने से दोनों देशों के बीच आपसी विश्वास बढ़ेगा, लेकिन भारत ने चीन की यात्रा करने वाले जम्मू और कश्मीर के निवासियों को सामान्य वीजा के बजाय बीजिंग द्वारा स्टेपल वीजा जारी करने के बाद नीति की फिर से पुष्टि करने से इनकार कर दिया. वर्ष 2014 में जब नरेंद्र मोदी पीएम बने, तो उन्होंने ताइवान के राजदूत चुंग-क्वांग टीएन और केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के अध्यक्ष लोबसंग सांगे को अपने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित किया. पिछले साल, विदेश राज्य मंत्री वी. मुरलीधरन ने राज्यसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए भारत की स्थिति स्पष्ट की थी. उन्होंने कहा, "ताइवान पर भारत सरकार की नीति स्पष्ट और सुसंगत है". उन्होंने जोर देकर कहा कि सरकार व्यापार, निवेश और पर्यटन, संस्कृति और शिक्षा और लोगों से लोगों के आदान-प्रदान के क्षेत्रों में बातचीत को बढ़ावा देती है. राजनयिक कार्यों के लिए ताइपे में भारत का एक कार्यालय है. 

गलवान घटना के बाद भारत-चीन संबंधों में तनाव

भारत-ताइपे एसोसिएशन (ITA) और नई दिल्ली में ताइपे आर्थिक और सांस्कृतिक केंद्र दोनों की स्थापना 1995 में हुई थी. वर्ष 2020 में गलवान संघर्ष के बाद चीन के साथ भारत के संबंध तनावपूर्ण हो गए और नई दिल्ली ने विदेश मंत्रालय में तत्कालीन संयुक्त सचिव (अमेरिका) गौरंगलाल दास को ताइपे में राजदूत के रूप में चुना. मई 2020 में  भाजपा की मीनाक्षी लेखी और राहुल कस्वां ने वर्चुअल मोड के माध्यम से ताइवान के राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन के शपथ ग्रहण में भाग लिया. जबकि नई दिल्ली ताइवान पर एक राजनीतिक बयान नहीं भेजने के बारे में सावधान है. 

Beijing भारत taiwan चीन Nancy Pelosi Tibet वन चाइना पॉलिसी United States INDIA china One China Policy
Advertisment
Advertisment
Advertisment