Maharashtra Politics: एमवीए उद्धव ठाकरे को विपक्ष के नेता के रूप में पेश कर रहा... जानें क्यों
भले ही शिवसेना के तमाम निर्वाचित विधायकों ने पाला बदल शिंदे गुट का दामन थाम लिया हो, लेकिन शिवसेना कार्यकर्ताओं के बीच उद्धव ठाकरे का आधार काफी हद तक बरकरार है. विश्लेषकों का मानना है कि यह भाजपा और एकनाथ शिंदे के लिए एक बड़ी चिंता बन गया है.
highlights
- शरद पवार विपक्ष में रह हमले का नेतृत्व करने के लिए शिवसेना या भाजपा नेताओं को ही चुनते आए हैं
- शिंदे नीत बीजेपी सरकार के खिलाफ राजनीतिक मोर्चे का नेतृत्व उद्धव को देना सोची-समझी रणनीति
- एक बड़ी टूट के बावजूद शिवसेना के आम कार्यकर्ताओं में उद्धव का आधार काफी हद तक बरकरार
नई दिल्ली:
विगत रविवार को छत्रपति संभाजीनगर में आयोजित महा विकास अघाड़ी (Maha Vikas Aghadi) की हालिया रैली में मंच पर रखी एक विशेष कुर्सी ने सभी का ध्यान आकर्षित किया. शिवसेना (Shivsena), कांग्रेस (Congress) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) के गठबंधन से बने महा विकास अघाड़ी के मंच पर सभी नेताओं के लिए एक सरीखी कुर्सियों की उम्मीद की जा रही थी. ऐसे में उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) को अतिरिक्त महत्व देती एक विशिष्ट कुर्सी की व्यवस्था राजनीतिक गलियारों में चर्चा का केंद्र बन गई. इस बारे में जब राकांपा के वरिष्ठ नेता अजीत पवार (Ajit Pawar) से सवाल किया गया, तो उन्होंने कहा कि विशेष कुर्सी की व्यवस्था उद्धव ठाकरे की पीठ में दर्द की समस्या को देखते हुए की गई थी. अजीत पवार का जवाब कितना भी ठोस और तार्किक क्यों न रहा हो, लेकिन यह स्पष्ट हो गया कि उद्धव ठाकरे निश्चित रूप से एमवीए (MVA) के राज्य नेताओं के बीच एक वरिष्ठ राजनेता के सम्मान का आनंद ले रहे हैं. उद्धव ठाकरे के बड़े कद या प्रभाव का अंदाजा इससे भी लगता है कि महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रमुख नाना पटोले (Nana Patole) को जब पता चला कि उनका नाम चुने वक्ताओं की सूची में नहीं हैं, तो वह रैली में ही शामिल नहीं हुए.
शिंदे-बीजेपी सरकार को उद्धव ही सशक्त चुनौती देने वाला चेहरा
छत्रपति संभाजीनगर की रैली में उद्धव ठाकरे के भाषण से पहले एमवीए गठबंधन में शामिल प्रत्येक राजनीतिक दल से सिर्फ दो नेताओं को बोलने की अनुमति दी गई थी. ऐसे में जब कांग्रेस ने रैली वक्ताओं के तौर पर बालासाहेब थोराट और अशोक चव्हाण को चुना, तो माना जाता है कि पटोले रैली में ही नहीं दिखे. राकांपा की ओर से राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता अजीत पवार और धनंजय मुंडे ने विशाल रैली को संबोधित किया. गौरतलब है कि एमवीए गठबंधन ने इस तरह की रैलियां राज्य भर में करने की योजना बनाई है और छत्रपति संभाजीनगर की रैली इस कड़ी में पहली थी. इसके पहले रत्नागिरी के खेड़ और नासिक के मालेगांव में आयोजित शिवसेना (यूबीटी गुट) की सफल रैलियों के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि 40 विधायकों और 12 सांसदों के अलग गुट बनाने के बावजूद उद्धव ठाकरे ही एकमात्र चेहरा है, जो भारतीय जनता पार्टी और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना के खिलाफ राजनीतिक मोर्चे का नेतृत्व करने जा रहे हैं.
सहानुभूति जुड़ी है उद्धव ठाकरे संग
अन्य राजनीतिक संगठनों की तुलना में शिवसेना ठाकरे परिवार से जुड़ी भावनाओं पर मजबूत बनी है. दिवंगत सेना प्रमुख बाल ठाकरे ने शिव सैनिकों को अपने सिद्धांत पर पल्लवित-पोषित किया. उन्होंने भी पार्टी के बजाय व्यक्तिगत वफादारी के आधार पर शिवसेना से जुड़े नेताओं के राजनीतिक करियर को आगे बढ़ाया. शिवसेना के पास कभी भी विचारधारा केंद्रित कोई ठोस योजना नहीं रही. इस कड़ी में 'मराठी भाषी लोगों का महाराष्ट्र' और 'माटी के बेटों' वाली एजेंडा केंद्रित राजनीति अपवाद रहे. बाल ठाकरे ने 90 के दशक में अपना ध्यान मराठी कार्ड से हिंदुत्व विचारधारा में बदला. खासकर जब उन्हें एहसास हुआ कि इस मुद्दे पर उनका संगठन मुंबई और ठाणे की सीमाओं से भी आगे बढ़ सकता है. ऐसा इसलिए भी हुआ कि मराठी कार्ड उत्तर और दक्षिण भारतीयों के रूप में बाहरियों की आमद के कारण मुंबई और ठाणे बेल्ट तक ही सीमित था. इस लिहाज से देखें तो परिवार के प्रति वफादारी और निष्ठा शिवसेना की एकमात्र कारक रही है, जिसने इसे एक परिवार द्वारा संचालित संगठन बना दिया. इसी बुनियाद पर उद्धव ठाकरे 2014 विधानसभा चुनाव में देश भर में मोदी लहर के बावजूद अकेले दम 63 सीटें जीत सके थे. एक अन्य महत्वपूर्ण कारक यह है कि बड़ी संख्या में पार्टी कार्यकर्ता, स्थानीय और निकाय सदस्य अभी भी उद्धव ठाकरे के साथ हैं. इससे स्पष्ट होता है कि उनका संगठनात्मक आधार काफी हद तक बरकरार है.
बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी उद्धव
2014 के राज्य विधानसभा चुनाव परिणाम उद्धव ठाकरे के लिए अनुमोदन की मुहर बन गए, जब उनकी पार्टी अपने दम पर राज्य की राजनीति में नंबर दो बन कर उभरी. इसने भाजपा नेतृत्व को इस सच्चाई को स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया कि वे शिवसेना को नजरअंदाज नहीं कर सकते. व्यवहार और अंदाज में अपने चाचा बाल ठाकरे के साथ कई समानताएं होने के बावजूद राज ठाकरे अपने चचेरे भाई उद्धव को कोई बड़ी चुनौती नहीं दे सके. केवल एक भीड़ खींचने वाले वक्ता के रूप में छोड़कर, वह लगातार चुनावों में पर्याप्त सीटें हासिल करने में विफल रहे. इससे भी उद्धव ठाकरे की राजनीतिक स्थिति और मजबूत हुई है. राज्य की राजनीति में शिवसेना में टूट सरीखी बड़ी उथल-पुथल के बाद भी राज्यव्यापी दौरे पर निकले उद्धव के बेटे आदित्य को लोगों ने हाथों-हाथ लिया. हाल ही में हुए पुणे (कस्बा पेठ) उपचुनाव के दौरान आदित्य के रोड शो में युवाओं को अच्छी भागीदारी रही. माना जाता है कि भाजपा उम्मीदवार पर कांग्रेस उम्मीदवार की जीत में उनका बड़ा योगदान था.
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ठाकरे का हिंदुत्व
उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना को उनके दादा प्रबोधंकर केशव सीताराम ठाकरे की विचारधारा अलग बनाती है, जो हिंदुत्व की 'रूढ़िवादी' रेखा के खिलाफ थे. 1960 के दशक में अंधविश्वास और लोगों में भगवान के डर को थोपने वाले सदियों पुराने रीति-रिवाजों के बारे में उनकी किताबें चर्चा का विषय थीं. दूसरी ओर बाल ठाकरे ने हमेशा कहा कि वह एक निष्क्रिय हिंदू नहीं चाहते, जो केवल मंदिरों में जाने और घंटी बजाने में विश्वास करता हो. संक्षेप में बाल ठाकरे खुद को हिंदुत्ववादी कट्टरपंथी के रूप में स्थापित करने के लिए आरएसएस से एक कदम आगे जाना चाहते थे. हालांकि हालिया दौर में निर्वाचित विधायकों ने पाला बदल शिंदे गुट का साथ पकड़ लिया हो, लेकिन शिवसेना के आम कार्यकर्ताओं के बीच उद्धव का आधार काफी हद तक बरकरार है. विश्लेषकों का मानना है कि यह भाजपा और एकनाथ शिंदे के लिए एक बड़ी चिंता बन गया है. एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू जो उद्धव ठाकरे की मदद कर रहा है वह है मुस्लिम समुदाय के बीच बढ़ा जनाधार. यह मालेगांव में उनकी हाल की रैली के दौरान साफतौर पर देखा गया. मुसलमानों की एक बड़ी आबादी वाली उत्तरी महाराष्ट्र की इस टेक्सटाइल सिटी में बड़ी संख्या में लोग उद्धव ठाकरे को सुनने के लिए उमड़ पड़े थे.
एनसीपी, कांग्रेस की सोची-समझी रणनीति
शरद पवार के नेतृत्व वाली राकांपा और कांग्रेस को लगता है कि भाजपा के हमले का मुकाबला करने के लिए उद्धव विपक्ष का नेतृत्व कर सकते हैं. राजनीतिक हालातों और जमीन को भांपते हुए एक सोची समझी रणनीति लगती है. हाल ही में स्नातक और शिक्षक निर्वाचन क्षेत्रों और पुणे उपचुनाव से राज्य परिषद के चुनावों की सफलता के कारण दोनों पार्टियों ने उद्धव ठाकरे के लिए एक बड़ी जगह छोड़ते हुए मध्यम मार्ग या भूमिका अपनाने का फैसला किया है. पहले भी शरद पवार विपक्ष में रहते हुए हमले का नेतृत्व करने के लिए शिवसेना या भाजपा के लोगों को चुनते आए हैं. 1996 में वह विपक्ष के नेता के रूप में छगन भुजबल थे, जो कुछ साल पहले शिवसेना छोड़कर कांग्रेस में चले आए थे. छगन भुजबल ने ही तत्कालीन शिवसेना-भाजपा सरकार के खिलाफ राजनीतिक हमले का नेतृत्व किया था. इसी तरह 2011 में बीजेपी से एनसीपी में शामिल हुए धनंजय मुंडे को शरद पवार ने 2014 में विधान परिषद में विपक्ष का नेता बनाया था.
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