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स्वास्तिक पर हंगामा है क्यों बरपा, बनाने-दिखाने पर कई देशों में हो रही गिरफ्तारियां

ऑस्ट्रेलिया में स्वास्तिक का उपयोग करने वालों पर स्थानीय प्रशासन का कहर टूट रहा है. डेनमार्क में भी डच पुलिस ने उन लोगों का पता लगाने का व्यापक अभियान छेड़ा हुआ है, जिन्होंने हाल ही में स्वास्तिक झंडे का प्रदर्शन किया था.

Updated on: 21 Aug 2022, 07:20 PM

highlights

  • संस्कृत शब्द से उपजा स्वास्तिक भारत में शुभता और कल्याण का प्रतीक है
  • पश्चिम में नाजी विचारधारा और फासीवाद की पहचान बना काला स्वास्तिक
  • कई देशों में स्वास्तिक के प्रयोग को आपराधिक करार दिया जा चुका है

नई दिल्ली:

बीते लगभग दस दिनों से अंतरराष्ट्रीय मीडिया के विभिन्न मंचों पर स्वास्तिक की चर्चा हो रही है. इस प्राचीन प्रतीक का इस्तेमाल एक समय पूरे विश्व में हो रहा था, लेकिन फिर 20वीं सदी में यह नफरत और यहूदी विरोध (Antisemitism) की हत्यारी नाजी विचारधारा के साथ जुड़ा और बदनाम हो गया. कम से कम पश्चिम के देश तो आज की तारीख में स्वास्तिक को नाजी (Nazi) नफरत का प्रतीक चिन्ह बतौर ही देखते हैं. 11 अगस्त को ऑस्ट्रेलिया (Australia) का न्यू साउथ वेल्स दूसरा प्रांत बन कर उभरा, जिसने स्वास्तिक (Swastika) के प्रदर्शन को आपराधिक करार दे दिया. इसके पहले जून में ऑस्ट्रेलिया के विक्टोरिया प्रांत में ऐसा किया गया था. हालांकि न्यू साउथ वेल्स में हिंदू, बौद्ध और जैन समुदाय के लोग शैक्षिक और धार्मिक रीति-रिवाजों में स्वास्तिक का इस्तेमाल कर सकेंगे. इसके पहले 6 अगस्त को डच पुलिस ने स्त्रोए गांव के एक पुल पर स्वास्तिक झंडा फहराने वालों के खिलाफ गहन जांच अभियान छेड़ा हुआ है.  यही नहीं, 3 अगस्त को अमेरिका के वर्जीनिया के एक स्कूल के सुप्रिटेंडेंट को स्वास्तिक छपी टी-शर्ट की डिजाइन और उसके वितरण पर बकायदा क्षमा-याचना करनी पड़ी. 

स्वास्तिक में ऐसा क्या है, जो हो रहा है विरोध
हिंदू, बौद्ध और जैन धर्म को मानने वाले सदियों से अपने धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों और तीज-त्योहारों में स्वास्तिक का इस्तेमाल करते आ रहे हैं. इसके बावजूद यूरोप और अमेरिका का एक बड़ा वर्ग इसे एडोल्फ हिटलर की यहूदी विरोधी, नस्लवादी, फासीवादी और 1933-1945 की थर्ड रैच के प्रतीक रूप में परिभाषित करता है. नाजीवाद के पतन और द्वितीय विश्व युद्ध के खात्मे के बाद जर्मनी और उसके बाद फ्रांस, ऑस्ट्रिया औऱ लिथुआनिया सरीखे अन्य यूरोपीय देशों ने स्वास्तिक पर प्रतिबंध लगा दिया था. यह अलग बात है कि वैश्विक स्तर पर नाजीवाद का समर्थन करने वाले गुट और लोग स्वास्तिक और इसके झंडे का प्रयोग हिटलर (Adolf Hitler) के प्रति समर्थन जताने और अपनी पहचान बतौर आज भी करते आ रहे हैं. 

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हिटलर का प्रतीक कैसे बना स्वास्तिक
सत्ता के शिखर पर पहुंचने के बाद जर्मनी की नाजी पार्टी अपना एक अलग झंडा अपनाना चाहती थी. ऐसा झंडा जो न सिर्फ उसके आंदोलन बल्कि नाजी पार्टी की पहचान बन सके.  एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा 'मीन काम्फ' में लिखा है एक ऐसा झंडा जिसे देखते ही नाजी आंदोलन के प्रति न सिर्फ रुचि जागृत हो, बल्कि एक बिजली सी कौंध जाए. ऐसे में 45 डिग्री कोण पर घड़ी की सुईयों के बढ़ते क्रम में स्वास्तिक या जर्मन भाषा में हकेंक्रेज़ बिल्कुल उपयुक्त लगा. 1920 में हिटलर ने अपनी नाजी पार्टी यानी नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी के प्रतीक के रूप में इसे आधिकारिक तौर पर अपना लिया. हिटलर ने लिखा है कि हर तरह से सोचने-विचारने के बाद नाजी पार्टी के झंडे के लिए इस प्रतीक का चयन किया गया. एक सफेद डिस्क से घिरा एक काला स्वास्तिक, जिसकी पृष्ठभूमि में लाल रंग था. नाजी पार्टी के इस झंडे के लिए चुने गए काला, सफेद और लाल रंग वास्तव में जर्मन साम्राज्य के झंडे से लिए गए थे. जर्मन साम्राज्य का 1918 में पतन हो गया था. हिटलर के मुताबिक यह प्रतीक न सिर्फ आदर्श साम्राज्यवादी अतीत की ओर इशारा देता था, बल्कि राष्ट्रीय समाजवाद की विचारधारा और भविष्य के प्रति आशावाद को भी अच्छे से स्पष्ट करता था. 

नाजी प्रतीक काले स्वास्तिक पर हिटलर की सोच
हिटलर ने लिखा है, 'लाल रंग नाजी आंदोलन की सामाजिक सोच को जाहिर करता था. सफेद रंग राष्ट्रीय विचार और स्वास्तिक जिस मिशन की जिम्मेदारी हमें सौंपी गई है, उसकी विशिष्टता को सामने लाता है यानी आर्यन सभ्यता की विजय के लिए संघर्ष का प्रतीक.' गौरतलब है कि नाजी विचारधारा को मानने वाले स्वयं को श्रेष्ठ जाति यानी आर्यन का वंशज मानते थे. उनका मानना था कि वे सभी अन्य जातियों में श्रेष्ठ है इसलिए वैश्विक परिदृश्य पर सबसे ऊंचा दर्जा रखते हैं. नाजियों के लिए जर्मन लोगों की नस्लीय शुद्धता सर्वोपरि थी. इसके साथ ही अन्य तुच्छ जातियों का खात्मा ही उनका एकमात्र कर्तव्य था. अपनी इस सोच के चलते नाजियों ने यहूदियों को अपना प्रमुख शत्रु माना. साथ ही उन्हें प्रताड़ित और अंततः मारने की कोशिश की. गौरतलब है कि नाजियों के उदय से कई सदी पहले से यूरोप में यहूदी विरोध विद्यमान था.  यह अलग बात है कि हिटलर के थर्ड रैच के दौरान यह अभूतपूर्व शिखर पर पहुंच गया. 

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नाजियों ने 60 लाख यहूदी का किया कत्ल-ए-आम
नाजियों के शासन के दौरान यहूदियों को चुन-चुन कर निशाना बनाया गया. यहूदियों के व्यापार का बहिष्कार किया गया, उनके धर्म स्थलों पर हमला किया गया. सरकारी या प्रशासनिक सेवाओं या अन्य नौकरियों से यहूदियों को वंचित रखा गया. यहूदियों के राजनीतिक अधिकारों में कटौती की गई. उन्हें गैर यहूदियों से विवाह करने की अनुमति नहीं थी. इसके साथ ही यहूदियों की नागरिकता और नागरिक अधिकार तक छीन लिए गए. 1941 से 1945 के बीच नाजियों ने यूरोप में रह रहे लगभग 60 लाख यहूदियों की हत्या की. यहूदियों के अलावा तुच्छ या खतरा साबित होने वाले अन्य जातियों के 50 लाख लोग भी मौत के घाट उतारे गए. इन जातियों में रोमन लोग, स्लाविक वासी, अश्वेत जर्मन, समलैंगिक, विकलांग जर्मन, वामपंथी, समाजवादी, युद्ध में बंदी बनाए गए सैनिक और जेहोवाह के प्रत्यक्षदर्शी शामिल थे. मानवता के खिलाफ कंपा देने वाले ये भयानक अपराध स्वास्तिक झंडे के सामने अंजाम दिए गए.

स्वास्तिक हिंदुओं का पवित्र धार्मिक प्रतीक 
सबसे पहला ज्ञात स्वास्तिक डिजाइन आज के यूक्रेन में एक हाथी दांत पर मिला था, जो 10 हजार ईसा पूर्व का था. इसके अलावा यह प्राचीन प्रतीक मेसोपोटामिया, अमेरिका, अल्जीरिया और सुदूर पूर्व में देखने को मिला. भारत की बात करें तो स्वास्तिक की उपस्थिति सभ्यता के साथ देखने को मिलती है. वास्तव में स्वास्तिक शब्द संस्कृत मूल का है, जिसका अर्थ सौभाग्य या कल्याण है. इसी कारण बीती तमाम सदियों से स्वास्तिक हिंदुओं के लिए शुभता और पवित्रता का प्रतीक माना जाता है. इसके धार्मिक-दार्शनिक अर्थ हैं, जो दिशा के आधार पर इसके प्रस्तुत करने के अंदाज पर निर्भर करते हैं. स्वास्तिक भारत में हर जगह दिखाई देता है. मंदिरों, घरों, वाहनों और घर के प्रवेशद्वार पर यह उकेरा मिल जाएगा. भारत का स्वास्तिक शुभता और पवित्रता का प्रतीक है, जो नाजियों द्वारा इस्तेमाल किए गए काले स्वास्तिक या हकेंक्रेज के ठीक उलट है. भारतीय आमतौर पर लाल, पीले या केसरिया रंग से स्वास्तिक की डिजाइन बनाते हैं और यह दाईं ओर झुकाव भी नहीं रखता है. भारतीय स्वास्तिक के चारों कोनों पर बिंदु लगाने की भी परंपरा है, जो वास्तव में चार वेदों का प्रतिनिधित्व करते हैं. 

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पश्चिम में स्वास्तिक का एक समय ऐसा था रुतबा
स्टीवन हेलर ने अपनी किताब 'द स्वास्तिक सिंबल बियांड रिडेंप्शन' में लिखा है कि पश्चिम को इसका अस्तित्व पता चलने पर उन्होंने भी डिजाइन बतौर इस्तेमाल करना शुरू किया था. वह भी इसे सौभाग्य और स्वस्थ रहने का प्रतीक बतौर देखते थे. 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में कई व्यासायिक घरानों ने अपने-अपने उत्पादों में स्वास्तिक का इस्तेमाल किया. कार्ल्सबर्ग की बीयर की बोतलों के निचले हिस्से में स्वास्तिक होता था, तो तंबाकू और बिस्किट ब्रांड पर भी यह देखने को मिलता था. हेलर के मुताबिक प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 45वीं इंफेंट्री डिवीजन ने नारंगी स्वास्तिक को अपने सैनिकों के कंधों पर शोल्डर पैच की तरह इसे लगाया. हिटलर के उदय से ठीक पहले 1918 में फिनलैंड की एयरफोर्स ने इसे प्रतीक चिन्ह बतौर स्वीकार किया. हालांकि 2020 में कुछ मीडिया रिपोर्ट में दावा किया गया कि फिनलैंड ने इस लोगों को चुपचाप किनारे कर दिया.

प्राचीन जर्मनी में भी मिला था स्वास्तिक चिन्ह
सांस्कृतिक इतिहासविद् मैल्कम क्विन ने अपनी किताब 'द स्वास्तिकः कंस्ट्रक्टिंग द सिंबल' में नाजियों के स्वास्तिक की डिजाइन के उद्गम स्थल का उल्लेख किया है. उनके मुताबिक 1871 में जर्मन पुरात्तवविद हेनरिक श्लीमैन को तुर्किए (पुराना नाम तुर्की) के प्राचीन शहर में खुदाई में मिट्टी के1800 से अधिक प्राचीन बर्तन मिले थे. इन पर स्वास्तिक सरीखे प्रतीक उकेरे हुए थे. माना जाता है कि नाजियों के स्वास्तिक की डिजाइन का विचार वही प्राचीन मिट्टी के बर्तन बने. ऐसी डिजाइन जर्मनी में बनने वाले बर्तनों पर भी पाई जाती थी. ऐसे में श्लीमैन ने निष्कर्ष निकाला को जर्मनी वासियों के पूर्वजों के लिए भी स्वास्तिक विशिष्ट धार्मिक प्रतीक रहा होगा. क्विन लिखते हैं कि 19वीं सदी के उत्तरार्ध में यूरोप के विद्वान स्वास्तिक को आर्यन जाति से जोड़ने लगे. उनका मानना था कि शुद्ध आर्यंस ने दूसरी जातियों का न तो खुद पर प्रभाव पड़ने दिया और ना ही उनकी भाषा को अंगीकार किया. यही विचार नाजियों ने अपनाया और खुद को आर्यन जाति से जोड़ श्रेष्ठि बोध से भर गए.

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धुर दक्षिण पंथियों का स्वास्तिक इस्तेमाल इसलिए है खतरनाक
पश्चिम में स्वास्तिक हिटलर की विचार धारा समेत हिंसा और नस्लवाद की अवधारणा का वाहक माना गया है. यही अवधारणा वैश्विक स्तर पर कुछ फ्रिंज समूहों को हिंसा और नस्लवाद के लिए प्रेरित करती है. द्वितीय विश्व युद्ध की भयावहता अब लोगों और देशों की यादों में फीकी पड़ गई हैं. युद्ध के बाद पश्चिम के उदार लोकतांत्रिक देशों ने सर्वसम्मति से 20वीं सदी में कुछ बदलाव लाने का संकल्प जाहिर किया था. उस समय किए गए तमाम दावों और वादों का अपेक्षित परिणाम अभी  हासिल नहीं हो सका है. ऐसे में कई समूह खुद को ठगा हुआ मान रहे हैं. उनका लोकतांत्रिक व्यवस्था से मोहभंग हो चुका है. यूरोप के दक्षिणपंथी पार्टियां इसी असंतोष के बल पर लोकलुभावन वादे कर तेजी से अपनी पकड़ बना रही हैं. कई देशों में दक्षिणपंथी सरकारें अस्तित्व में आ चुकी हैं. इन्होंने प्रवासी विरोधी, नस्लीय, अति राष्ट्रवादी बातें और उसके अनुरूप दावे कर सत्ता हासिल की है. मुस्लिम और प्रवासी विरोधी फ्रांस की धुर दक्षिण पंथी नेता मेरी ली पिन ने 2022 में हुए चुनाव में  89 सीटों पर ऐतिहासिक जीत हासिल की है. हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ऑर्बन 2010 तो ब्राजील के राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो 2019 से फासीवाद की तरफ झुकाव के कथित आरोपों के कारण आलोचनाओं के केंद्र में हैं.