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चीन का आर्थिक संकट भारत के लिए बन सकता है वरदान, समझें इसकी पूरी गणित

कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए लागू किए गए कड़े लॉकडाउन से चीन की अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ रही है. ऐसे में चीन की अर्थव्यवस्था और उसके बैंकिंग सेक्टर पर मंदी छाने की आशंका जताई जाने लगी है. चीन संकट भारत के लिए एक बड़ा अवसर बन सकता है.

Updated on: 28 Aug 2022, 08:45 PM

highlights

  • चीनी अर्थव्यवस्था की सुस्ती और बैंकिंग सेक्टर का संकट बीजिंग को पड़ने वाला है भारी
  • यह अवसर भारत के लिए चुनौती के साथ-साथ वैश्विक ताकत बनने का अवसर भी दे रहा
  • आत्मनिर्भर भारत खुद को वैश्विक मैन्युफैक्चरिंग हब के तौर पर भी स्थापित कर सकता है

नई दिल्ली:

वैश्विक अर्थव्यवस्था अपने समक्ष विद्यमान आसमान छूती महंगाई और ऊंची ब्याज दरों से मुकाबला करने का अथक प्रयास कर रही है, लेकिन उसके समक्ष एक बड़ा खतरा तेजी से बढ़ रहा है. यह खतरा है चीन (China) की अर्थव्यवस्था और बैंकिंग सेक्टर पर मंदी की आशंका का. ऐसी मीडिया रिपोर्ट्स है कि मंदी के रूप में आसन्न संकट की वजह से चीन में जमाकर्ताओं ने अपना पैसा निकालने के लिए बैंक (Bank Crisis) जाने की रफ्तार बढ़ा दी है. ऐसे में एक बड़ा सवाल यह उठता है कि वैश्विक विकास के इंजन करार दी गई चीनी अर्थव्यवस्था आखिर इस स्थिति को कैसे प्राप्त हुई? साथ ही चीन का यह आर्थिक संकट वैश्विक अर्थव्यवस्था (World Economy) पर क्या प्रभाव डालेगा? उससे भी बड़ा यक्ष प्रश्न यह है कि क्या भारत (India) चीनी संकट के सापेक्ष सामने आने वाले अवसर को भुना वैश्विक आर्थिक स्तर पर अपना कद और बड़ा कर सकेगा? 

वैश्विक अर्थव्यवस्था में चीन का महत्व
2001 में विश्व व्यापार संगठन से जुड़ने के बाद चीन की अर्थव्यवस्था शेष विश्व के साथ एकीकृत हो गई. इसके बाद साल दर साल और चरणबद्ध तरीके से चीन अमेरिका को पीछे छोड़ वैश्विक व्यापार तंत्र की धुरी बन गया. वैश्विक लिहाज से एप्पल और टेस्ला जैसी तमाम बड़ी कंपनियों ने चीन में अपने बड़ा मैन्युफैक्चरिंग आधार खड़ा किया. विश्व निर्यात में चीन की हिस्सेदारी 2001 में 4 फीसदी से बढ़कर 2021 में 15 फीसदी हो गई. दूसरी ओर अमेरिका की हिस्सेदारी इसी अवधि में 12 फीसदी से सिकुड़ कर 8 फीसद पर आ गई. क्रय शक्ति समानता के पैमाने पर भी चीन अमेरिका को पीछे छोड़ वैश्विक अर्थव्यवस्था का अगुआ बनकर उभरा. कोरोना संक्रमण के दौरान वैश्विक अर्थव्यवस्था पर चीन का प्रभाव साफ देखने में आया. बीते सालों में चीन बिजली के उत्पादों की आपूर्ति श्रृंखला का केंद्र बन चुका है. कोरोना महामारी के दौरान बिजली के उत्पादों की मांग में जबर्दस्त उछाल आया, क्योंकि वैश्विक अर्थव्यवस्था बहुत तेजी के साथ डिजिटलाइजेशन को अपना रही थी. यह अलग बात है कि कोविड-19 के कड़े लॉकडाउन की वजह से आपूर्ति में रुकावट आई और चीन से आने वाले बिजली के उत्पादों में बड़े पैमाने पर कमी देखी गई.

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चीन इस हालिया संकट तक कैसे पहुंचा
कोरोना संक्रमण के मामलों में तेजी आने पर बीजिंग सरकार ने जीरो कोविड-19 नीति अपनाते हुए बीजिंग और शंघाई सरीखे प्रमुख शहरों में कड़ा लॉकडाउन लगाया. परिणामस्वरूप 2022 और 2023 में चीन की अर्थव्यवस्था के धीमी गति से बढ़ने का अनुमान जताया गया. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अप्रैल 2022 में 4.4 फीसदी के चीन की जीडीपी विकास दर के आकलन को जुलाई 2022 में घटाकर 3.3 फीसद कर दिया. इसी तरह 2023 में जीडीपी के विकास दर के अनुमान को भी 5.1 फीसदी से घटाकर 4.6 फीसद पर ला दिया. आईएमएफ ने इसके लिए कहा, 'कोरोना लॉकडाउन और रियल एस्टेट संकट की वजह से 1.1 फीसदी अंकों का संशोधन जीडीपी विकास दर के आकलन में करना पड़ा.'

क्या चीन के संकट के लिए कोविड-19 की मंदी के अलावा और भी कुछ जिम्मेदार
चीन के विद्यमान संकट के बीज 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी के समय ही पड़ गए थे, जब बीजिंग सरकार ने वैश्विक मंदी से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर उद्योगों के लिए प्रोत्साहन पैकेज दिए. इसके तहत सरकार ने बैंकों को निहित गारंटी दे दी कि वह कंपनियों को बड़े पैमाने पर ऋण दें. इस वजह से 2008 में बैंक ऋण में जबर्दस्त उछाल आया. बैंक ऋण का एक बड़ा हिस्सा रियल एस्टेट और प्रॉपर्टी सेक्टर को गया, जिसकी वजह से कीमतों में जबर्दस्त उछाल आया. अर्थशास्त्री लंबे समय से चेताते आ रहे थे कि बैंकों से दिया जा रहा ऋण टिकाऊ नहीं और इसकी परिणिति संकट के रूप में आ सकती है. अक्सर ऐसे संकट का पैमाना करार दिए जाने वाले जीडीपी अनुपात की तुलना में ऋण की दर चीन में सबसे ज्यादा है. 2011 और 2015 सरीखे ऐसे भी दौर कई बार आए जब कीमतों में तेज गिरावट दर्ज की गई. इस दौरान बैंक संकट अवश्यंभावी लग रहे थे, लेकिन सरकार ने अपने प्रयासों से इसे टाल दिया. यहां तक कि कीमतों में वर्तमान में आई गिरावट 2011 और 2015 की तुलना में कम ही है, लेकिन सरकार के कोविड-19 संक्रमण को रोकने के प्रयासों में उलझे रहने से अब यह संकट में तब्दील हो गया है. 

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वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए चीन संकट के मायने
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने 2022 के लिए सिर्फ चीन की विकास दर को कम नहीं किया है, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए भी यह आकलन 3.6 फीसदी से घटाकर 3.2 फीसद कर दिया है. इसके पीछे आईएमएफ ने चीनी अर्थव्यवस्था की गति धीमी पड़ने के साथ रूस-यूक्रेन युद्ध को जिम्मेदार ठहराया है. आईएमएफ ने साफ तौर पर कहा है कि चीनी अर्थव्यवस्था के सुस्त पड़ने का वैश्विक परिदृश्य पर व्यापक असर पड़ेगा. अगर चीन से आपूर्ति में गिरावट आती है, तो इसकी परिणिति उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में उछाल आने के रूप में होगी. ठीक वैसे ही जैसे कोरोना महामारी के दौरान चीन से आपूर्ति कम होने के वक्त हुआ था. चीन के विकास और मांग में गिरावट से अन्य देशों द्वारा आपूर्ति की जाने वाली वस्तुओं और मध्यवर्ती वस्तुओं की मांग में भी कमी आएगी.  इससे मंहगाई का दबाव जरूर कम होगा, लेकिन उन अर्थव्यवस्थाओं के लिए गंभीर संकट खड़ा हो जाएगा, जो चीन के निर्यात पर निर्भर हैं. वैश्विक स्तर पर कम विकास दर का असर वित्तीय बाजारों पर भी पड़ेगा. हालांकि राहत की बात यह कि चीन के व्यापार की तर्ज पर उसका वित्तीय बाजार शेष विश्व के साथ पूरी तरह से एकीकृत नहीं है. ऐसे में इसका प्रभाव व्यापार माध्यमों तक ही सीमित रहेगा. वित्तीय बाजार पर भी इसका असर पड़ेगा, लेकिन बेहद मामूली. यह अमेरिका से उलट स्थिति है, जिसका वित्तीय बाजार शेष विश्व से कहीं ज्यादा एकीकृत है और ऐसी किसी स्थिति में 2008 जैसा परिदृश्य सामने आ सकता है. 

चीनी संकट के भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए मायने
चीन का संकट भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए चुनौती और अवसर दोनों है. बीते कई सालों में भारत का चीन से व्यापार खासकर निर्यात में उछाल आया है. 2013-2014 में भारत के आय़ात में चीन की हिस्सेदारी 10.7 फीसदी थी, जो 2020-21 में बढ़कर 16.6 फीसदी हो गई. इसी अवधि में चीन को भारत से निर्यात का हिस्सा 6.4 प्रतिशत से बढ़कर 7.2 प्रतिशत हो गया. भारत रसायनों, खनिज, ईंधन आदि प्रमुख तौर पर निर्य़ात करता है, जबकि इलेक्ट्रकिल मशीनरी, इलेक्ट्रॉनिक सामान का आय़ात करता है.  चीनी संकट से भारत का ट्रेड सेक्टर प्रभावित होगा, जबकि भारत का निर्यात चीन के लिए ज्यादा जरूरी नहीं है. चीन से होने वाला आय़ात ऊर्जा और विकास के लिए जरूरी है.  हालांकि भारत इस चुनौती को अवसर में बदलकर अन्य देशों से आयात की मांग बढ़ा सकता है. इससे कुछ सालों बाद भारत की चीन पर निर्भरता कम होगी. इस समय का सदुपयोग कर भारत ऐसे उत्पादों को घरेलू स्तर पर बनाने की अपनी क्षमता बढ़ा सकता है. सच तो यह है कि चीन संकट भारत के लिए वैश्विक मैन्युफैक्चरिंग हब बतौर खुद को पेश करने का बड़ा अवसर देता है. भारत के पास बड़ी तादाद में युवा आबादी है, जो रोजगार की तलाश में है. ऐसे में अगर वैश्विक निवेश भारत को ओर आकर्षित होता है, तो हर हर लिहाज से जीत होगी. 

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चीन संकट में छिपे भारत उदय के निहितार्थ
आर्थिक चुनौतियों को अवसर में बदलने के अलावा चीन संकट भारत को एशिया और वैश्विक स्तर पर खुद को बड़ी और महत्वपूर्ण शक्ति बनाने का अवसर भी दे रहा है. श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल जैसी दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्थाएं संकट का सामना कर रही हैं. इनमें से ज्यादातर चीन की मदद पर निर्भर हैं और फिलवक्त चीन के पास अपने ही संकट के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने की चुनौती है.  भारत पाकिस्तान को छोड़कर इन सभी संकटग्रस्त अर्थव्यवस्थाओं की मदद कर रहा है. इस तरह भारत क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ा सकता है. वैश्विक स्तर पर देखें तो तमाम देश चीन के रवैये से खुश नहीं है. फिलवक्त चीन निरंकुशता से काम ले रहा है, जिसने वैश्विक स्तर पर उसके कई आलोचक बना दिए हैं. ऐसे में वैश्विक नेताओं के साथ अपने कूटनीतिक संबंधों को और मजबूती देकर भारत अपनी वैश्विक स्थिति को भी मजबूत बना सकता है.