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आर्कटिक का बढ़ता तापमान और भारत पर इसका असर डरा रहा है

समुद्र क्षेत्र में बर्फ की कमी से मॉनसून के उत्तरार्ध यानी सितंबर-अक्टूबर में भारी बरसात देखी गई. कम होती बर्फ और अरब सागर के बढ़ते तापमान से नमी बढ़ी और भारी बरसात का सामना कुछ इलाकों को करना पड़ा.

Updated on: 18 Aug 2022, 04:02 PM

highlights

  • आर्कटिक महाद्वीप का तापमान वैश्विक औसत से कहीं तेजी से बढ़ रहा
  • सिर्फ तीन दिनों 18 बिलियन टन बर्फ पिघली, जो खतरनाक स्तर है
  • भारत के तटीय इलाकों समेत मॉनसून के लिए भी गंभीर खतरे की बात

नई दिल्ली:

फिनलैंड के मौसम विज्ञान संस्थान के शोधकर्ताओं का कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एन्वॉयरमेंट जॉर्नल में एक अध्ययन प्रकाशित हुआ है. यह बताता है कि पृथ्वी के अन्य हिस्सों की तुलना में आर्कटिक का तापमान चार गुना तेजी से बढ़ रहा है. आर्कटिक (Arctic) के यूरेशिया हिस्से में तापमान कुछ अधिक तेजी से बढ़ रहा है. रूस के उत्तर में बैरेंट्स समुद्र और नॉर्वे की तरफ का तापमान वैश्विक औसत से सात गुना अधिक तेजी से बढ़ रहा है. इसके अलावा 2021 में अमेरिका की जियोफिजिकल यूनियन और 2022 के जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स भी चेतावनी भरा संकेत दे रहे हैं कि आकर्टिक का विस्तार वैश्विक औसत अनुपात की तुलना में चार गुना अधिक दर से हो रहा है. इसके पहले भी हुए शोध चेताते आए कि आर्कटिक का तापमान दो से तीन गुना तेजी से बढ़ रहा है. हालांकि हालिया शोध बताते हैं कि आर्कटिक क्षेत्र तेजी से बदल रहा है और बेहतरीन से बेहतरीन जलवायु मॉडल भी आर्कटिक में बदलाव की दर और उसकी सटीक भविष्यवाणी करने में सक्षम नहीं हैं. 

क्या है आर्कटिक का विस्तार और क्यों हो रहा
पृथ्वी की सतह के लंबे समय से गर्म होने से वैश्विक तापमान बढ़ रहा है. आधुनिक मानव इतिहास के औद्योगिक दौर से भी पहले से मानव क्रियाकलापों से पृथ्वी के औसत तापमान में 1.1 फीसदी की वृद्धि हो चुकी है. यह बदलाव समग्र पृथ्वी रूपी ग्रह पर हो रहे हैं. इस कड़ी में पृथ्वी की सतह और हवा के तापमान समेत कुल विकिरण के अनुपात में अंतर से उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पर बड़े बदलाव देखने में आते हैं. इस घटना को ध्रुवीय विस्तार कहा जाता है. ये सबसे ज्यादा उत्तरी अक्षांश पर देखने में आते है और इन्हें आर्कटिक एम्प्लीफिकेशंस कहते हैं. वैश्विक तापमान के लिए जिम्मेदार तमाम कारक इसके लिए भी जिम्मेदार हैं. हालांकि आइस-एल्बीडो, लैप्स रेट, वाष्पीकरण और सागर के तापमान इनमें प्रमुख है. बर्फ और खासकर समुद्री बर्फ में प्रकाशानुपात को प्रदर्शित करने की सबसे ज्यादा क्षमता होती है. सरल शब्दों में कहें तो सूर्य के विकिरण को यह पानी और जमीन की तुलना में कहीं ज्यादा प्रतिबिंबित करते हैं. आर्कटिक के मामले में वैश्विक तापमान में वृद्धि से समुद्र की बर्फ तेजी से घट रही है. जब समुद्र की बर्फ पिघलती है, तो आर्कटिक महासागर सूर्य का अधिक विकिरण अवशोषित करता है, जिससे विस्तार में बदलाव आ रहा है. लैप्स दर यानी जिस दर से ऊंचाई पर तापमान गिरता है, तापमान में वृद्धि होने से लगातार कम हो रही है. अध्ययन बताते हैं कि आइस एल्बीडो और लैप्स रेट की वजह से क्रमशः 40 फीसदी और 15 फीसदी ध्रुवीय विस्तार हो रहा है. 

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क्या कहते हैं पहले के अध्ययन
तमाम अध्ययन वैश्विक दर की तुलना में आर्कटिक विस्तार की अलग-अलग दर बताते हैं. ऐसे में आर्कटिक विस्तार के कारणों पर काफी बहस हो सकती है. कुछ अध्ययन कहते हैं कि 21वीं सदी के शुरू होने से पहले से आर्कटिक का तापमान वैश्विक दर की तुलना में दो गुना था. फिर 2019 में वैश्विक तापमान पर अंतर सरकारी पैनल ने स्पेशल रिपोर्ट ऑन द  ओशन एंडक्रायोस्फेयर के रूप में बदले आंकड़ों के साथ संशोधित रिपोर्ट पेश की. इसके मुताबिक बीते दो दशकों में ही आर्कटिक के ऊपर हवा के तापमान में वैश्विक औसत के मुकाबले दो गुना से ज्यादा की वृद्धि हुई. मई 2021 में आर्कटिक मॉनीटरिंग एंड एसेसमेंट प्रोग्राम (एएमएपी) ने चेताया कि आर्कटिक क्षेत्र पृथ्वी की तुलना में तीन गुना अधिक तेजी से गर्म हो रहा है. यही नहीं, गर्मी के मौसम में समुद्री बर्फ के पूरी तरह से गायब हो जाने की आशंका 10 गुना बढ़ गई है. इसमें चेतावनी दी गई कि आधुनिक इतिहास के औद्योगिक दौर से पहले के तापमान में यदि 2 फीसदी का भी इजाफा हुआ तो समुद्री बर्फ को पिघलने से नहीं रोका जा सकेगा. रिपोर्ट में भी यह भी कहा गया कि आर्कटिक क्षेत्र में औसत वार्षिक तापमान पृथ्वी ग्रह के 1 डिग्री सेल्सियस की तुलना में 3.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है. हालांकि हालिया अध्ययन बताते हैं कि आर्कटिक विस्तार में 1986 और 1999 में जबर्दस्त बदलाव देखने में आया, जब औसत अंतर 4.0 तक पहुंच गया. यानी पृथ्वी के अन्य हिस्सों की तुलना में आर्कटिक के तापमान में 4 गुना अधिक वृद्धि हुई. 

आर्कटिक के गर्म होने का परिणाम
आर्कटिक विस्तार में बदलाव चक्रीय आधार पर होता है, जिसके पीछे कारण और परिणाम निहित होते हैं. इसे ऐसे समझें कि ग्रीनलैंड पर बिछी बर्फ की चादर तेजी से पिघल रही है. इस कड़ी में समुद्री बर्फ के विस्तार में सन 2000 की तुलना में काफी कमी देखी गई. यह भी देखा गया कि समुद्री बर्फ की पुरानी औऱ मोटी चादरों का स्थान नई और पतली बर्फ की चादरों ने ले लिया. ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर में इस साल 15 से 17 जुलाई के बीच तेज बदलाव देखने में आया. गर्मी में असामान्य तापमान की वजह से बर्फ की 6 बिलियन टन चादर हर रोज पिघली. यानी महज तीन दिनों में 18 बिलियन टन बर्फ अत्यधिक तापमान की वजह से पिघल गई. बर्फ के पिघलने की यह मात्रा पश्चिमी वर्जीनिया को एक फीट पानी में डुबोने के लिए पर्याप्त थी. अंटार्कटिका के बाद ग्रीनलैंड की बर्फ की चादरों में सबसे ज्यादा बर्फ है. इस लिहाज से समुद्र स्तर को बरकरार रखने में इसकी महती भूमिका है. 2019 में समुद्र स्तर के 1.5 मीटर बढ़ने के पीछे यही एकमात्र कारण रहा था. अगर ग्रीनलैंड की बर्फ की चादरें पूरी तरह से पिघल जाएं तो समुद्र का स्तर सात मीटर ऊपर उठ सकता है. यानी प्रमुख तटीय शहर और द्विपीय देश इसकी चपेट में आकर अस्तित्व  देंगे. आर्कटिक महासागर और क्षेत्र के अन्य सागरों का गर्म होना, पानी का अम्लीयकरण, खारेपन के स्तर में बदलाव का सीधा असर जैव विविधता पर पड़ रहा है. इसमें समुद्र में पाई जाने वाली प्रजातियों और उन पर निर्भर प्रजातियां भी शामिल हैं. तापमान में वृद्धि से बरसात भी ज्यादा हो रही है, जिससे हिरणों के लिए काई की उपलब्धता और उस तक पहुंच प्रभावित हो रही है. इसी तरह आर्कटिक के विस्तार में बदलाव से यहां पाए जाने वाले जीव-जंतुओं के लिए भुखमरी की स्थिति आ पहुंची है. आर्कटिक में पर्माफ्रोस्ट (ऐसी जमीन जहां मिट्टी लगातार कम-से-कम दो वर्षों तक पानी जमने के तापमान यानि शुन्य सेंटीग्रेड से कम तापमान पर रही हो.) बदल रहा है, जिसकी वजह से कार्बन और मिथेन का वातावरण में उत्सर्जन अधिक हो रहा है. वैश्विक तापमान में वृद्धि के लिए मुख्यतः इन्हीं दो गैसों को प्रमुख तौर पर जिम्मेदार माना जाता है. 

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भारत पर असर
हाल के सालों में वैज्ञानिक आर्कटिक में आ रहे बदलाओं और उसके महाद्वीप में मॉनसून पर प्रभाव को जानने की कोशिश कर रहे हैं. इन दोनों के बीच संबंध इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं, जब हम देश में अति वाले मौसम देखते हैं. इनका असर पानी और खाद्य सुरक्षा पर भी पड़ता है.  2021 में भारतीय और नॉर्वे के मौसम विज्ञानियों के प्रकाशित अध्ययन के मुताबिर बैरेंट्स-कारा समुद्र क्षेत्र में बर्फ की कमी से मॉनसून के उत्तरार्ध यानी सितंबर-अक्टूबर में भारी बरसात देखी गई. कम होती बर्फ और अरब सागर के बढ़ते तापमान से नमी बढ़ी और भारी बरसात का सामना कुछ इलाकों को करना पड़ा.  वैश्विक मौसम संस्थान की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय तटों पर समुद्री स्तर में औसत वैश्विक स्तर के मुकाबले तेजी से वृद्धि हो रही है. इसकी एक बड़ी वजह ध्रुवीय क्षेत्रों खासकर आर्कटिक में समुद्री बर्फ का तेजी से पिघलना है. ऐसे में यह सिर्फ भारत के लिए ही चिंता का विषय नहीं है, बल्कि इसका असर दक्षिण के सुदूरवर्ती उष्णकटिबंधीय इलाकों पर भी पड़ा तय है.