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'पाकिस्तान 73 साल बाद भी कश्मीर को रौंद रहा है, न सुधरा था...न सुधरेगा'

कबायलियों के साथ मिले पाकिस्तानी सेना के जवानों ने कश्मीर में जमकर उत्पात मचाया था. इस्लाम का तथाकथित ठेकेदार होने का दावा करने वाले पाकिस्तान की फौज ने सबसे ज्यादा जुल्म कश्मीरी मुसलमानों पर किया था.

Updated on: 17 Oct 2020, 02:31 PM

नई दिल्ली:

'जम्मू-कश्मीर (Jammu Kashmir) के इतिहास का सबसे काला समय 21-22 अक्टूबर 1947 की दरमियानी रात थी, जब इस राज्य पर कब्जा कर तबाह और बर्बाद करने के लिए 'ऑपरेशन गुलमर्ग' लांच किया गया था. उस मनहूस दिन के 73 साल बीत चुके हैं, लेकिन पाकिस्तान (Pakistan) की मंशा आज भी जस की तस है.' यह बयान किसी भारत प्रेमी औऱ पाकिस्तान विरोधी शख्स का नहीं है, बल्कि एक यूरोपीय थिंक टैंक का है, जो पाकिस्तान की बदनीयती को एक बार फिर से उजागर कर रहा है. गौरतलब है कि अक्टूबर 1947 में जम्मू-कश्मीर पर कब्जा करने की बदनीयत के साथ पाकिस्तान सेना ने कबायलियों के वेश में आक्रमण किया था. इस हमले को अंजाम देने वाले पाकिस्तान सेना के मेजर जनरल अकबर खान ने अपनी किताब में भी इसका जिक्र किया है.

यूरोपीय थिंकटैंक ने ताजा की हमले की याद
एएनआई समाचार के मुताबिक यूरोपीय फाउंडेशन फॉर साउथ एशियन स्टडीज ने एक बार फिर पाकिस्तान के उस बर्बर अत्याचार की याद को ताजा किया है जिसमें कश्मीर के 35 हजार से 40 हजार लोगों की मौत हो गई थी. कबायलियों के साथ मिले पाकिस्तानी सेना के जवानों ने कश्मीर में जमकर उत्पात मचाया था. इस्लाम का तथाकथित ठेकेदार होने का दावा करने वाले पाकिस्तान की फौज ने सबसे ज्यादा जुल्म कश्मीरी मुसलमानों पर किया था. थिंकटैंक ने कहा कि यह दिन कश्मीरी पहचान को खत्म करने के सबसे पहले और सबसे भारी दिन के रूप में याद रखा जाएगा. इसी के परिणामस्वरूप संयुक्त राष्ट्र द्वारा तैयार की गई नियंत्रण रेखा अस्तित्व में आई थी. थिंक टैंक के अनुसार मेजर जनरल अकबर खान के आदेश के तहत 'ऑपरेशन गुलमर्ग' की कल्पना अगस्त 1947 में की गई थी.

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कश्मीर पर हमले में शामिल थीं 22 पश्तून जनजातियां
पाकिस्तानी सेना के साथ इस हमले में 22 पश्तून जनजातियां शामिल थीं. वाशिंगटन डीसी में रहने वाले राजनीतिक और रणनीतिक विश्लेषक शुजा नवाज ने 22 पश्तून जनजातियों को सूचीबद्ध किया है जो इस हमले में शामिल थे. मेजर जनरल अकबर खान के अलावा इस हमले की योजना बनाने वालों में पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के करीबी सरदार शौकत हयात खान भी शामिल थे. सरदार शौकत हयात खान ने बाद में एक किताब द नेशन दैट लॉस्ट इट्स सोल में स्वीकार किया कि उन्हें कश्मीर ऑपरेशन का पर्यवेक्षक नियुक्त किया गया था. इस ऑपरेशन के लिए तत्कालीन वित्त मंत्री गुलाम मुहम्मद ने 3 लाख रुपये भी दिए थे. मेजर जनरल अकबर खान ने तय किया था कि 22 अक्टूबर, 1947 को जम्मू कश्मीर पर हमला शुरू किया जाएगा. सभी लश्कर (कबायली लड़ाकों) को 18 अक्टूबर तक एबटाबाद में इकट्ठा होने को कहा गया था.

पहले ही दिन 11 हजार कश्मीरियों का किया नरसंहार
यूरोपीय थिंक टैंक ने कहा कि हमलावरों को रात को सिविल बसों और ट्रकों में ले जाया गया था ताकि कोई खुफिया जानकारी लीक ना हो जाए. घुसपैठियों ने 26 अक्टूबर, 1947 को बारामूला के लगभग 11,000 निवासियों का नरसंहार किया और श्रीनगर में बिजली की आपूर्ति करने वाले मोहरा बिजली स्टेशन को नष्ट कर दिया. इसके बाद शेख अब्दुल्ला ने 1948 में संयुक्त राष्ट्र में आक्रमण का वर्णन करते हुए कहा था कि हमलावरों ने हमारे हजारों लोगों को मार दिया. इनमें ज्यादातर हिंदू और सिख थे. हालांकि कुछ मुसलमान भी मारे गए थे. शेख अब्दुल्ला यह भी बताते हैं कि कबायली हमलावरों ने हजारों की संख्या में लड़कियों का अपहरण किया था. रास्ते में मार-काट मचाते हमलावर राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर के मुहाने तक पहुंच गए थे. 

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'रेडर्स इन कश्मीर' से खुलासा
इस घटना को अपनी किताब 'रेडर्स इन कश्मीर' में सामने लाने वाले मेजर जनरल अकबर खान लिखते हैं कि तत्‍कालीन जम्‍मू कश्‍मीर रियासत के राजा हरि सिंह की मदद करते हुए जम्‍मू में सेना भेजी और फिर देखते ही देखते पासा पलट गया और कबायलियों के भेष में आए पाकिस्‍तान‍ियों को उल्‍टे पांव भागना पड़ा. इस किताब में उन्‍होंने न केवल घाटी में तब हुए संघर्ष में पाकिस्‍तान की भूमिका स्‍वीकार की है, बल्कि इसका ब्यौरा भी दिया है कि पाकिस्‍तान की सियासी हुकूमत और व सैन्‍य प्रतिष्‍ठान किस कदर इसमें संलिप्‍त थे. इसमें उन्‍होंने 26 अक्‍टूबर, 1947 की घटना का जिक्र करते हुए लिखा है, 'पाकिस्‍तानी बलों ने बारामूला पर कब्‍जा कर लिया था और अब 14,000 में से महज 3,000 सैनिक ही जीवित बचे थे. सैनिक श्रीनगर से महज 35 मील दूर थे, जब महाराजा (हरि सिंह) ने दिल्ली से मदद मांगी और बदले में विलय के कागजात भेज दिए.'

लाहौर-पिंडी में रची गई थी साजिश
जम्‍मू कश्‍मीर की राजधानी श्रीनगर पर कब्‍जा करने के पाक‍िस्‍तान के उस अभियान के बारे में विस्‍तृत जानकारी देते हुए मेजर जनरल (से.) खान ने यह भी बताया है कि इसकी साजिश लाहौर और पिंडी में रची गई थी. बकौल खान तब पाकिस्‍तान में सत्‍तारूढ़ मुस्लिम लीग के नेता मियां इफ्तिखारुद्दीन ने उन्‍हें इसके लिए बुलाया था और कश्‍मीर पर कब्‍जे की रणनीति बनाने के लिए कहा था. उन्‍हें सितंबर 1947 की शुरुआत में ऐसा करने के लिए कहा गया था, जिसके कुछ ही दिनों बाद कश्‍मीर में पाकिस्‍तान ने ऑपरेशन को अंजाम दिया.

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पाकिस्तान ने कश्मीरियों को सशक्त करने पर दिया था जोर
खान के मुताबिक, उन्‍होंने 'कश्‍मीर में सशस्‍त्र विद्रोह' शीर्षक से अपनी योजना लिखी. चूंकि इसमें पाकिस्‍तान को खुलकर सामने आने की जरूरत नहीं थी, इसलिए प्रस्‍ताव रखा गया कि कश्‍मीरियों को सशक्‍त करने पर जोर दिया जाना चाहिए. साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि कश्‍मीर की मदद के लिए भारत से सशस्‍त्र नागरिक समूह या सेना न पहुंचे. देश की आजादी के ठीक बाद कश्‍मीर में हुए उथल-पुथल में पाकिस्‍तान के शीर्ष नेतृत्‍व की संलिप्‍तता का जिक्र करते हुए उन्‍होंने कहा है कि तत्‍कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के साथ एक बैठक के लिए उन्‍हें लाहौर बुलाया गया था. 

पाकिस्‍तानी हुक्‍मरानों की भागीदारी
अपनी किताब में उन्‍होंने लिखा है, '22 अक्‍टूबर को पाकिस्‍तानी बलों के सीमा पार करने के साथ ही ऑपरेशन शुरू हुआ. 24 अक्‍टूबर को मुजफ्फराबाद और डोमल पर आक्रमण किया गया, जिसके बाद डोगरा सैनिक पीछे हटने लगे. अगले दिन सैनिकों ने श्रीनगर रोड़ की तरफ बढ़ना शुरू किया और उड़ी में डोगरा सैनिकों पर भारी पड़े. 27 अक्‍टूबर को भारत ने दखल दिया और सैनिक कश्‍मीर भेजे.' उसी दिन शाम को कश्‍मीर के भारत में विलय और भारत के सैन्‍य दखल के ताजा हालात के बारे में जानकारी के लिए पाकिस्‍तान के प्रधानमंत्री ने लाहौर में एक बैठक बुलाई, जिसमें कई शीर्ष राजनीतिक व सैन्‍य अधिकारी शामिल हुए. उस बैठक में अकबर खान भी मौजूद थे, जिन्‍होंने तब प्रस्‍ताव दिया था कि जम्‍मू में सड़क मार्ग को बाधित कर दिया जाए, क्‍योंकि भारतीय सेना इसी से होते हुए श्रीनगर और कश्‍मीर के अन्‍य हिस्‍सों में पहुंचेगी. इसके लिए उन्‍होंने कबायलियों का इस्‍तेमाल करने की सलाह दी थी.