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नौ लाख साल पहले विलुप्त के कगार पर पहुंच गए थे इंसानों के पूर्वज, शोध में हुआ चौंकाने वाला खुलासा

दुनियाभर के वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन को इंसानों के लिए खतरा बता रहे हैं, लेकिन इसके बचाव के लिए उठाए जा रहे कदम पर्याप्त नहीं है. जलवायु परिवर्तन वर्तमान का मुद्दा नहीं है बल्कि ये सदियों पहले भी इंसानी सभ्यता के लिए खतरा बन गया था.

Updated on: 04 Sep 2023, 12:05 PM

highlights

  • 9 लाख साल पहले खत्म होने वाली थी इंसानी सभ्यता
  • जलवायु परिवर्तन से खत्म हो सकते थे धरती से इंसान
  • पीयर-रिव्यू अकादमिक जर्नल साइंस में प्रकाशित शोध में हुआ खुलासा

 

New Delhi:

धरती पर बढ़ती आबादी दुनिया के लिए चिंता का विषय बनी हुई है. वर्तमान में पृथ्वी पर 800 करोड यानी आठ अरब से ज्यादा इंसान रहते हैं लेकिन एक समय ऐसा भी आया था जब धरती से इंसान का अस्तित्व समाप्त होने के कगार पर पहुंच गया था. दरअसल, 9 लाख 30 हजार साल पहले धरती से हमारे पूर्वज विलुप्त होने के पास पहुंच गए थे. वैज्ञानिकों के एक अंतरराष्ट्रीय समूह ने जेनेटिक डेटा का विश्लेषण करने के लिए बनाई गई एक नई तकनीक से किए गए अध्यन में इस बात का खिलासा किया है.

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ये शोध बीते गुरुवार को पीयर-रिव्यू अकादमिक जर्नल साइंस में प्रकाशित किया गया. जिसमें कहा गया कि 9 लाख 30 हजार साल पहले मानव पूर्वजों को एक गंभीर जनसंख्या बाधा का सामना करना पड़ा था. शोध में ये भी कहा गया है कि ये दौर एक लाख 20 हजार साल तक चला. इस दौरान बच्चे पैदा करने वाले एक लाख इंसानों की संख्या घटकर 1300 से भी कम हो गई थी. शोध में कहा गया कि जनसंख्या में यह भारी गिरावट मानव सभ्यता के अंत का कारण बन सकती थी. जिससे हमारी हमारी प्रजाति कभी भी पृथ्वी पर नहीं चल सकती थी.

सिर्फ बचे थे 1280 बच्चे पैदा करने वाले इंसान

बता दें कि इससे पहले मानव विकास पर पिछले अध्ययनों ने प्लेइस्टोसिन युग में मानव पूर्वजों के बीच जनसंख्या बाधाओं की परिकल्पना को सामने रखा था, लेकिन इस अवधि के मानव जीवाश्म और पुरातात्विक रिकॉर्ड की कमी के कारण वैज्ञानिकों को पर्याप्त सबूत खोजने में मुश्किल हुई थी. लेकिन वैज्ञानिक मध्य प्लेइस्टोसिन अवधि के दौरान मानव आबादी के आकार का अनुमान लगाने में कामयाब रहे. अध्ययन के दो सह-लेखकों, फ्लोरेंस विश्वविद्यालय के मानवविज्ञानी फैबियो डि विन्सेन्ज़ो और रोम के सैपिएन्ज़ा विश्वविद्यालय के जीवाश्म विज्ञानी जियोर्जियो मन्ज़ी का कहना है कि, "फ़िटकोल नामक विधि पूरी तरह से अभिनव है और इसकी अनुमानित सटीकता 95 प्रतिशत है." बता दें कि दुनिया भर के लगभग 50 जनसंख्या समूहों में से 3,154 लोगों के जीनोम नमूनों का चयन कर वैज्ञानिकों ने पिछली आबादी के आकार का अनुमान लगाया और आनुवंशिक सामान का पता लगाने के लिए फिटकोल का उपयोग किया. जो आनुवंशिक संरचना में एक समान थे.

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फ्रेंच नेशनल म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के वरिष्ठ व्याख्याता और मानवविज्ञानी सेलीन बॉन ने बताया, "हमें उन आबादी में मौजूद आनुवंशिक विविधता को देखने की जरूरत है जिनके बीच चयनित व्यक्तियों के पूर्वज रहते थे. आनुवंशिक विविधता जितनी कम होगी, जनसंख्या उतनी ही छोटी होगी." वहीं डि विन्सेन्ज़ो और मन्ज़ी ने कहा कि, मानव आनुवंशिक उत्परिवर्तनों को दोबारा खोजकर और उनकी तुलना करके, नई विश्लेषणात्मक विधि ने वैज्ञानिकों को 1,280 व्यक्तियों की अनुमानित जनसंख्या आकार तक पहुंचने में मदद की, जो "बाद की पीढ़ियों में देखी गई सभी आनुवंशिक परिवर्तनशीलता उत्पन्न करने के लिए आवश्यक उपजाऊ व्यक्तियों की न्यूनतम संख्या" है. इस तरह वैज्ञानिक अपने अध्ययन में इस निष्कर्ष पर पहुंचे के व्यक्तियों के एक छोटे से समूह ने करीब 9 लाख साल पहले हमारे पूर्वजों को अस्तित्व को धरती से मिटने से बचा दिया.

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जलवायु परिवर्तन के चलते संकट में पड़ गई थी इंसानी सभ्यता

जलवायु परिवर्तन इंसानों के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा रहा है. वर्तमान में भी जलवायु परिवर्तन के चलते इंसानों पर इसका असर देखने को मिल रहा है. इस शोध में कहा गया है कि उस दौर में भी जलवायु परिवर्तन के चलते इंसानों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गई थी. जिसका मुख्य कारण ही जलवायु परिवर्तन था. अध्ययन में कहा गया कि, लगभग नौ लाख साल पहले अफ्रीका में अधिक गंभीर ठंड की अवधि और कम बारिश के साथ जलवायु में बदलाव आया था, जिससे रेगिस्तान में इंसान अलग-थलग हो गया. जिसके चलते जीवित रहना चुनौतीपूर्ण हो गया था.