Sheetalnath Bhagwan Chalisa: शाीतलनाथ भगवान की पढ़ेंगे ये चालीसा, विघ्न-बाधाएं होंगी नष्ट और प्राप्त होगी शीतलता

शीतलनाथ भगवान (sheetalnath bhagwan) जैन धर्म के 10वें तीर्थंकर हैं. भगवान शीतलनाथ जैन का चालीसा संसार-सागर में दग्द चित्त को शीतलता प्रदान करता है. उनके चालीसा का पाठ सभी विघ्न-बाधाओं और पाप-ताप का (sheetalnath bhagwan chalisa) नाशक है.

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Megha Jain
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Sheetalnath Bhagwan Chalisa

Sheetalnath Bhagwan Chalisa( Photo Credit : social media )

शीतलनाथ भगवान (sheetalnath bhagwan) जैन धर्म के 10वें तीर्थंकर हैं. भगवान शीतलनाथ का जन्म भद्रिकापुर में इक्ष्वाकु वंश के राजा दृढ़रथ की पत्नी माता सुनंदा के गर्भ से माघ मास कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में हुआ था. इनका वर्ण सुवर्ण जबकि चिह्न कल्प वृक्ष था. उनका चालीसा स्वयं कल्पवृक्ष की तरह है. जो कि सभी मनोकामनाओं की पूर्ति करता है. भगवान शीतलनाथ जैन का चालीसा संसार-सागर में दग्द चित्त को शीतलता प्रदान करता है. उनके चालीसा का पाठ सभी विघ्न-बाधाओं और पाप-ताप का (sheetalnath bhagwan chalisa) नाशक है.

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शीतलनाथ भगवान का चालीसा (shri sheetalnaath chalisa)

शीतल हैं शीतल वचन, चन्दन से अघिकाय ।
कल्पवृक्ष सम प्रभु चरण, है सबको सुखदाय ।
जय श्री शीतलनाथ गुणाकर, महिमा मण्डित.करुणासागर ।
भद्धिलपुर के दृढ़रथ राय, भूप प्रजावत्सल कहलाए ।
रमणी रत्न सुनन्दा रानी, गर्भ में आए जिनवर ज्ञानी ।
द्वादशी माघ बदी को जन्मे, हर्ष लहर उमडी त्रिभुवन में ।
उत्सव करते देव अनेक, मेरु पर करते अभिषेक ।
नाम दिया शिशु जिन को शीतल, भीष्म ज्वाल अध होती शीतल ।
एक लक्ष पूर्वायु प्रभु की, नब्बे धनुष अवगाहना वपु की ।
वर्ण स्वर्ण सम उज्जवलपीत, दया धर्म था उनका मीत ।
निरासक्त थे विषय भोग में, रत रहते थे आत्मयोग मेँ ।
एक दिन गए भ्रमण को वन में, करे प्रकृति दर्शन उपवन भे ।
लगे ओसकण मोती जैसे, लुप्त हुए सब सूर्योदय से ।
देख ह्रदय में हुआ वैराग्य, आतम हित में छोड़ा राग ।
तप करने का निश्चय करते, ब्रह्मार्षि अनुमोदन करते ।
विराजे शुक्रप्रभा शिविका पर, गए सहेतुक वन में जिनवर ।
संध्या समय ली दीक्षा अक्षुष्ण, चार ज्ञान धारी हुए तत्क्षण ।
दो दिन का व्रत करके इष्ट, प्रथमाहार हुआ नगर अरिष्ट ।
दिया आहार पुनर्वसु नृप ने, पंचाश्चर्य किए देवों ने ।
किया तीन वर्ष तप घोर, शीतलता फैली चहुँ ओर ।
कृष्ण चतुर्दशी पौषविरव्याता, कैवलज्ञानी हुए जगत्राता ।
रचना हुई तब समोशरण की, दिव्य देशना खिरी प्रभु की ।
“आतम हित का मार्ग बताया, शंकित चित समाधान कराया ।
तीन प्रकार आत्मा जानो, बहिरातन-अन्तरातम मानो ।
निश्चय करके निज आतम का, चिन्तन कर लो परमातम का ।
मोह महामद से मोहित जो, परमातम को नहीं मानें वो ।
वे ही भव… भव में भटकाते, वे ही बहिरातम कहलाते ।
पर पदार्थ से ममता तज के, परमात्म में श्रद्धा करके ।
जो नित आतम ध्यान लगाते, वे अन्तर- आतम कहलाते ।
गुण अनन्त के धारी है जो, कर्मों के परिहारी है जो ।
लोक शिखर के वासी है वे, परमात्म अविनाशी हैं वे ।
जिनवाणी पर श्रद्धा धरके, पार उतरते भविजन भव से ।
श्री जिनके इक्यासी गणधर, एक लक्ष थे पूज्य मुनिवर ।
अन्त समय गए सम्मेदाचंल, योग धार कर हो गए निश्चल ।
अश्विन शुक्ल अष्टमी आई, मुक्ति महल पहुंचे जिनराई ।
लक्षण प्रभु का ‘कल्पवृक्ष’ था, त्याग सकल सुख वरा मोक्ष था ।
शीतल चरण-शरण में आओ, कूट विद्युतवर शीश झुकाओ ।
शीतल जिन शीतल करें, सबके भव-आताप ।
हम सब के मन में बसे, हरे’ सकलं सन्ताप ।

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