सरकारी कब्जे से मंदिरों की मुक्ति के खिलाफ दी जा रही दलीलें अब धाराशायी होने लगी हैं. ये अलग बात है कि सरकार हर गुजरते दिन के साथ ज्यादा से ज्यादा मंदिरों को अपने कब्जे में लेने की कोशिश में जुटी है. यहां तक कि हिंदुओं के हितों की हिमायती मानी जाने वाली बीजेपी की सरकारें भी इसमें पीछे नहीं है. उत्तराखंड में चारधाम एक्ट के जरिए और हऱियाणा में चंडीदेवी समेत कई प्रमुख मंदिरों को अपने नियंत्रण में लेकर सरकारों ने ये बता दिया है कि मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने की मुहिम की उसे कितनी परवाह है. हैरान करने वाली बात ये है कि इन राज्यों में भी उसी बीजेपी की सरकार है जो तमिलनाडु और कर्नाटक के चुनाव में मंदिर मुक्ति अभियान का समर्थन करती रही है.
सवाल ये है कि सरकारें मंदिरों पर कब्जे को लेकर इतनी उतावली क्यों दिखती हैं? इस सवाल का जवाब मंदिर मुक्ति अभियान के पक्ष में एक मजबूत दलील बन जाती है. दरअसल, देश के ज्यादतर बड़े मंदिर सरकार कम और सत्ताधारी पार्टियों के कब्जे में ज्यादा हैं. सरकार में आते ही सत्ताधारी पार्टियां मंदिरों के ट्रस्टी और मैनेजमेंट में अपने लोगों को ‘सेट’ करती हैं. ऐसी सियासी नियुक्तियों से आए लोगों की दिलचस्पी मंदिर के बेहतर प्रबंधन में कम और खजाने की हेराफेरी और पार्टी के एजेंडे को आगे बढ़ाने में ज्यादा होती है. मंदिर प्रबंधन में सरकारी नियुक्तियों के साथ एक बड़ी दिक्कत ये भी है कि इन नियुक्तियों में स्थानीय लोगों की तुलना में बाहरी लोग ज्यादा होते हैं. गैर-स्थानीय प्रबंधन ज्यादा जवाबदेह नहीं होता. उन्हें इस बात की चिंता नहीं होती कि खराब प्रबंधन से उनकी छवि को नुकसान होगा. ऐसे में मंदिरों को नियंत्रण में लेने के पीछे बेहतर रख-रखाव और पारदर्शिता का सरकारी दावा बेदम नजर आने लगता है.
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मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण के पक्ष में दूसरी दलील ये दी जाती है कि इसके जरिए सामाजिक न्याय का मसला बहुत हद तक हल हुआ है. ये बात सही भी है. लेकिन मंदिर प्रबंधन में जाती के आधार पर भेदभाव न हो, प्रबंधन में सभी जातियों को प्रतिनिधित्व मिले ये सुनिश्चित करने के लिए सरकार मंदिरों को कब्जे में ले ये जरूरी नहीं है. एक ‘सुपरवाइजरी बॉडी’ इसे आसानी से ‘इनश्योर’ कर सकती है. आखिर देश में हजारों गैर-सरकारी संगठन ऐसे ही तो चल रहे हैं. मंदिरों में सरकारी दखल के पक्षधर बार बार ये भी कहते हैं कि दलितों को अगर कोई मंदिर में प्रवेश से रोकता है तो वो इसकी शिकायत कहां करेंगे. उनसे ये पूछा जाना चाहिए दलितों के मंदिर प्रवेश का मुद्दा सिर्फ बड़े औऱ कमाउ मंदिरों तक ही सीमित है क्या? उन्हें गांव-कस्बों के छोटे मंदिरों में भी तो रोका जा सकता है. ऐसे में वो क्या करेंगे ? जाहिर सी बात है कि जैसे वो वहां पुलिस में इसकी शिकायत कर सकते हैं वैसे ही बड़े मंदिरों में भेदभाव के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जा सकती है. इसके लिए मंदिर प्रबंधन में सकारी आदमी का बैठना जरूरी नहीं है.
अब तीसरी और सबसे जरूरी बात. मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ है. सेक्युलरिज्म का चाहे जो भी परिभाषा आप तय करें. मंदिरों पर सरकार के कब्जे को जायज नहीं ठहराया जा सकता. खासकर तब जबकि ईसाई धार्मिक संस्थानों को खुली छूट मिली हुई हो और मुस्लिम धार्मिक संगठनों पर सरकारी नियंत्रण नहीं के बराबर हो. वक्फ बोर्ड के रूप में जो ढीला-ढाला तंत्र सरकार ने बनाया है उसकी तुलना हिंदु रिलिजिएस एंड चैरिटेबल इंडोमेंट एक्ट 1951 से कतई नहीं की जा सकती है. देश में 15 राज्य ऐसे हैं जो एचआरसीई एक्ट के तहत सिर्फ हिंदू मंदिरों का मैनेजमेंट करते हैं. और इसी प्रबंधन के नाम पर मंदिरों की कमाई का 13-16% सर्विस चार्ज के रूप में वसूल करते हैं जबकि इन्हीं राज्यों के अल्पसंख्यक धार्मिक संस्थान पूरी तरह से आजाद हैं.
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आज देश के करीब 9 लाख मंदिरों में से करीब 4 लाख पर सरकारी नियंत्रण है. सरकार के नियुक्त अधिकारी ये तय करते हैं कि मंदिर अपनी कमाई को किस मद में और कितना इस्तेमाल करेगा. दूसरी तरफ ईसाई और मुस्लिम धार्मिक संस्थान अपनी कमाई को खुलेआम धर्मांतरण की मुहिम में झोंक रहे हैं. पैसों का लालच देकर लोगों का धर्म बदलवाया जा रहा है. ऐसे में सरकार की भूमिका कनवर्जन माफिया के “फेसिलिटेटर” के तौर पर दिखाई देने लगी है.
धर्मनिरपेक्षता को मनमाफिक परिभाषित करके हिदुओं के धार्मिक संस्थानों पर कब्जे की इस नीति के खिलाफ अब जनमानस तैयार होने लगा है. लोग अब ये समझने लगे हैं कि इस देश में सरकारी नियंत्रण की नीति बहुसंख्यक आबादी पर एकतरफा लागू की जाती रही है. हिंदू पर्सनल लॉ में बदलाव से लेकर एचआरसीई एक्ट तक तमाम उदाहरण हैं जब सरकारों ने अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का शर्मनाक खेल खेला. अब ये खेल ज्यादा दिनों तक चल पाएगा इसकी उम्मीद सरकारों को छोड़ देनी चाहिए और मंदिरों को कब्जे से मुक्त करने की दिशा में पहल करनी चाहिए.