J&K: पं नेहरू ने युद्धविराम न मांगा होता, तो पाकिस्तान सबक सीख जाता
यदि नेहरू सरकार ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) से युद्धविराम की मांग करने की गलती नहीं की होती, तो हम पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर और गिलगित-बाल्टिस्तान के लोग भी भारत के स्वतंत्र नागरिक होते.
highlights
- पुरानी बीमारी का इलाज बिल्कुल नए सिरे से होने का समय
- आंखों में आखें डाल करके ही हम कश्मीर की लड़ाई जीत सकेंगे
- पंडित नेहरू की युद्धविराम की मांग ने कमजोर कर दिया पक्ष
नई दिल्ली:
पाकिस्तान (Pakistan) ने 22 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर (Jammu Kashmir) राज्य पर हमला किया था. यह एक ऐसे संघर्ष की शुरुआत थी, जिसमें हजारों लोगों की जान जाती और कुछ अपंग बन जाते और लाखों लोगों का जीवन प्रभावित होता. यह भारत और पाकिस्तान के बीच एक विवाद की शुरुआत भी थी, जो आज भी जारी है. उस समय से भारत अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के गलियारों के माध्यम से कश्मीर मुद्दे को शांतिपूर्वक हल करने का प्रयास करता रहा है. हर बार संयुक्त राष्ट्र (United Nations) के मंच पर गतिरोध खत्म होता है और फिर शुरू हो जाता है. भारत को एक बार फिर से इसके समाधान का संकल्प लेने के लिए मजबूर होना पड़ा है.
भारत के लिए अभी है बेहतरीन मौका
इस बीच पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान और उसकी जासूसी एजेंसी आईएसआई के साथ मिलकर काम कर रहे धार्मिक आतंकवादी संगठनों ने दंगा को जीवित रखा है, जिसे पाकिस्तान कश्मीर में चल रहे काल्पनिक जन अलगाववादी आंदोलन के सबूत के रूप में विश्व समुदाय के सामने पेश करता है. आज जब लड़ाई तेज हो गई है, लश्कर और अफगानिस्तान से लौट रहे अन्य जिहादी आतंकवादी एक बार फिर हमारे क्षेत्र में घुसपैठ करने में कामयाब हो गए हैं और पुंछ में एक चौतरफा भारतीय सैन्य अभियान चल रहा है, जो पहले से ही हमारे 10 लोगों की जान ले चुका हैं और 15 घुसपैठियों के लिए यह अवसर सत्तर साल पुराने संघर्ष को हल करने की दिशा में एक नए दृष्टिकोण की तलाश करता है, जो हलकों में घूमता हुआ प्रतीत होता है.
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भारत-पाकिस्तान का ही विकल्प था रियासतों के पास
1947 में भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन के समय 560 से अधिक रियासतों के भविष्य के लिए जारी दिशा-निर्देशों को 1935 में भारत सरकार अधिनियम कहा गया था, जिसके अनुसार भारतीय (रियासत) राज्य का एक संघ (पाकिस्तान या भारत) में प्रवेश राज्य के शासक के स्वैच्छिक कार्य के अलावा और कुछ नहीं हो सकता. पाकिस्तान सरकार ने जम्मू कश्मीर राज्य के साथ एक द्विपक्षीय समझौता (स्टैंड-स्टिल एग्रीमेंट 15 अगस्त 1947) किया, जिसके अनुसार पाकिस्तान राज्य की स्वतंत्र स्थिति को स्वीकार करने के लिए बाध्य था. हालांकि उसी वर्ष 22 अक्टूबर को पाकिस्तानी सेना ने भाड़े के कबायली सैनिकों के साथ जम्मू और कश्मीर राज्य पर हमला किया था.
पंडित नेहरू की गलती आज भी भारी
उस समय महाराजा ने एक बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लिया और अपने रियासत का भारत में विलय किया. विलयपत्र पर हस्ताक्षर 26 अक्टूबर 1947 को किए गए. अगली सुबह भारतीय जवान श्रीनगर हवाईअड्डे पर उतरने लगे. जल्द ही पाकिस्तानी घुसपैठियों को पीछे हटने के लिए मजबूर किया गया और पुंछ नदी के पार धकेल दिया गया. यदि नेहरू सरकार ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) से युद्धविराम की मांग करने की गलती नहीं की होती, तो हम पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर और गिलगित-बाल्टिस्तान के लोग भी भारत के स्वतंत्र नागरिक होते.
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यूएनएससी प्रस्ताव के खिलाफ है पाकिस्तान
13 अगस्त 1948 के यूएनएससी प्रस्ताव के अनुसार इस क्षेत्र में शांति बहाल करने की दिशा में पहला कदम पाकिस्तानी सैनिकों और सभी (अनिवासी) आदिवासी आक्रमणकारियों की वापसी की मांग करता है. क्या पाकिस्तान ने पालन किया? नहीं, आज तक नहीं. यूएनएससी द्वारा निर्धारित शांति बहाली की शर्तो का पालन करने के बजाय पाकिस्तान ने ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम और ऑपरेशन जिब्राल्टर (1965), और कारगिल युद्ध (1999) का संचालन किया. 1990 में पाकिस्तान ने घाटी में सबसे अपमानजनक आतंकवादी अभियानों में से एक का संचालन किया, जिसे अब हम कश्मीर के मूल निवासियों यानी कश्मीरी पंडित के संहार के रूप में जानते हैं. उन्हें निशाना बनाया गया और सताया गया, जिसके कारण कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ. सैकड़ों हजारों कश्मीरी पंडित आज भी आंतरिक रूप से विस्थापित हैं.
भारत के सुपर पॉवर की राह में रोड़ा है कश्मीर मसला
भारत तब तक वैश्विक खिलाड़ी बनने की ओर नहीं बढ़ सकता, जब तक कि कश्मीर मुद्दे का कंकड़ उसके नीचे से नहीं हटा दिया जाता. अब ऐसा लगता है कि एक पुरानी बीमारी का इलाज बिल्कुल नए सिरे से होने का समय आ गया है. सबसे पहले यूएनएससी पाकिस्तान को अपने प्रस्ताव का पालन करने में सक्षम नहीं बना पाया है और इस प्रकार संस्था ने अपने निर्णयों को लागू करने के अधिकार को कम लिया है. दूसरा, विभिन्न भारतीय सरकारों द्वारा कश्मीर मुद्दे के लिए शांतिपूर्ण तरीकों से समझौता करने के लिए किए गए कई प्रयासों ने हमेशा पाकिस्तान को प्रोत्साहित किया है, जिसने हमारी मातृभूमि पर आतंकवादी हमलों के मद्देनजर हमारे संयम बरतने को कमजोरी मान लिया है और अंत में काबुल में सत्ता परिवर्तन ने अफगानिस्तान और भारत द्वारा एक सहयोगी पिनसर अधिनियम के जरिए पाकिस्तान को कुचलने की हमारी संभावनाओं को कम कर दिया है.
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पाकिस्तान को कड़ी टक्कर देने का समय
तब प्रचलित वास्तविकता के तहत हमारे पास कौन से विकल्प बचे हैं? हमें यह महसूस करना चाहिए कि हमारे पास अब तक जो पुराने विकल्प उपलब्ध थे, वे अप्रचलित हो गए हैं. मेरा मानना है कि पाकिस्तान को कड़ी टक्कर देने का समय आ गया है. और सभी मोर्चो पर एक साथ पाकिस्तान को कड़ी टक्कर देना हमारी सफलता की कुंजी होगी इसलिए, जैसा कि पाकिस्तान अपने आर्थिक पतन की चपेट में आने के लिए संघर्ष कर रहा है और ऐसे समय में जब राज्य खुद के साथ युद्ध में है, जैसा कि बाजवा-इमरान ने जासूसी एजेंसी आईएसआई के नए महानिदेशक की नियुक्ति पर कुश्ती की है, हमें बलों को मजबूत करना चाहिए जो खुद को पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान यानी बलूच और सिंधी राष्ट्रवादियों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
कश्मीर पर पाक के झूठ को करना होगा बेनकाब
हमें युद्धविराम को समाप्त करने पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए और पाकिस्तान के भीतर रणनीतिक लक्ष्यों पर हमला करना शुरू करना चाहिए. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमें ऐसे सक्षम विदेशी प्रतिनिधियों को नियुक्त करने के साधन खोजने होंगे जो कश्मीर पर आईएसआई के आख्यान का सक्रिय रूप से सामना कर सकें और विश्व समुदाय को पाकिस्तान के गहरे राज्य द्वारा किए गए अत्याचारों के बारे में सूचित कर सकें जो 22 अक्टूबर 1947 को और उसके बाद से शुरू हुए. केवल साहसिक और नियंत्रित कदम उठाकर और आंखों में आखें डालकर, बुराई का सामना करके ही हम कश्मीर की लड़ाई जीत सकते हैं, एक लड़ाई जो बहुत लंबे समय से बंद है.
(डॉ. अमजद अयूब मिर्जा लेखक और पीओजेके में मीरपुर के मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. वह इस समय ब्रिटेन में निर्वासन में हैं. इस आलेख में उनकी निजी राय है.)
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