कभी हरे रंग के थे समुद्र, जापानी वैज्ञानिकों ने किया ऐसा दावा

जापान के शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि एक समय समुद्र का रंग नीला नहीं बल्कि हरा था. उन्होंने इसके पीछे एक बड़ी वजह बताई है.

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Ravi Prashant
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समुद्र ग्रीन था Photograph: (Freepik)

आज हम अपने ग्रह पृथ्वी को अंतरिक्ष से देखें तो वह “नीला ग्रह” नजर आता है, लेकिन जापान के वैज्ञानिकों ने हाल ही में एक चौंकाने वाला दावा किया है. उनके अनुसार, अरबों साल पहले धरती के महासागर नीले नहीं बल्कि हरे रंग के थे. यह दावा प्रतिष्ठित साइंस जर्नल नेचर में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर के आधार पर किया गया है.

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तो क्या सच में समुद्र का रंग हरा था? 

वैज्ञानिकों का कहना है कि आर्कियन युग (लगभग 3.8 से 1.8 अरब साल पहले) के दौरान पृथ्वी के वायुमंडल और महासागर में ऑक्सीजन नहीं थी. उस समय महासागरों में बड़ी मात्रा में घुला हुआ लोहा (Iron - Fe²⁺) पाया जाता था. जैसे ही सूर्य की रोशनी से ऊर्जा प्राप्त करने वाले प्राचीन सूक्ष्मजीवों (ब्लू-ग्रीन अल्गी या सायनोबैक्टीरिया) ने ऑक्सीजन उत्सर्जित करना शुरू किया, वह ऑक्सीजन समुद्री पानी में मौजूद लोहे से प्रतिक्रिया कर ऑक्सीकृत आयरन (Fe³⁺) में बदल गई, जिससे महासागरों का रंग हरा हो गया.

अगर बैक्टीरिया की जेनेटिक बदला जाए?

शोधकर्ताओं ने जापान के Iwo Jima ज्वालामुखी द्वीप के पास मौजूद हरे रंग के पानी का अध्ययन किया, जहां आज भी कुछ बैक्टीरिया हरे पानी में पनपते हैं. इन बैक्टीरिया में phycoerythrobilin (PEB) नामक पिगमेंट पाया जाता है, जो हरे प्रकाश में बेहतर फोटोसिंथेसिस करता है.

वैज्ञानिकों ने प्रयोग में पाया कि अगर इन बैक्टीरिया को जेनेटिक रूप से बदलकर PEB पिगमेंट की मात्रा बढ़ाई जाए, तो वे हरे पानी में और भी तेजी से विकसित होते हैं. यह खोज इस ओर इशारा करती है कि प्राचीन समय में पृथ्वी के महासागर वास्तव में हरे रंग के हो सकते हैं, और यही वो वातावरण था जिसमें प्रारंभिक जीवन विकसित हुआ.

क्या भविष्य में महासागरों का रंग फिर बदल सकता है?

शोध के अनुसार, यह पूरी तरह संभव है. अगर भविष्य में पृथ्वी पर सल्फर की मात्रा बढ़े, तो बैंगनी रंग के महासागर बन सकते हैं. इसी तरह, अगर वैश्विक तापमान तेजी से बढ़ा और वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा घटी, तो लाल या भूरे रंग के महासागर भी बन सकते हैं. वैज्ञानिकों का मानना है कि महासागरों का रंग केवल उनके गहराई या आसमान के प्रतिबिंब से नहीं, बल्कि जीव विज्ञान और रसायन शास्त्र के जटिल तालमेल से बनता है. यह शोध इस बात की भी संभावना जताता है कि अगर हम किसी दूरस्थ ग्रह को हरे रंग का देखें, तो वहां प्रारंभिक जीवन मौजूद होने की संभावना हो सकती है.

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