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नई दिल्ली के मध्य में इंडिया गेट के उत्तरी हिस्से से कुछ ही दूरी पर स्थित 1, अशोक रोड का 'हैदराबाद हाउस' केवल एक सरकारी भवन नहीं है, बल्कि इतिहास, शान और कूटनीति का दुर्लभ संगम है. कभी यह वह महल था जहां दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति हैदराबाद के आखिरी निजाम मीर उस्मान अली खान की प्रतिष्ठा और वैभव सांस लेता था. आजादी के बाद यह इमारत शांत खड़ी रही, लेकिन समय के साथ यह दोबारा भारत की विदेश नीति के केंद्र में आ गई. व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा के साथ एक बार फिर यह भवन सुर्खियों में है. आइए जानते हैं कि आखिर विदेशी मेहमान भारत आकर हैदराबाद हाउस क्यों जाते हैं. क्या है इसके पीछे का इतिहास.
निजाम की अनोखी मांग और नई दिल्ली में जगह का संघर्ष
1911 में जब अंग्रेजों ने नई दिल्ली को राजधानी घोषित किया, तब देश की कई रियासतों ने यहां अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की कोशिश की पर हैदराबाद के निजाम की इच्छा सबसे अलग थी. वे चाहते थे कि उनका दिल्ली वाला महल वायसराय हाउस (आज का राष्ट्रपति भवन) के बिल्कुल पास बने, ताकि उनकी शान और शक्ति का प्रदर्शन हो सके. अंग्रेज इस मांग को स्वीकार नहीं कर सकते थे. इसलिए उन्होंने केवल पांच रियासतों हैदराबाद, बड़ौदा, पटियाला, जयपुर और बीकानेर को किंग्स वे (अब राजपथ) के छोर पर प्लॉट दिए. इन्हीं में से एक पर 1920 के दशक में हैदराबाद हाउस आकार लेता है.
एक ऐसे अमीर शासक का घर, जिसके पास ‘जैकब डायमंड’ पेपरवेट था
उस समय के निजाम मीर उस्मान अली खान को दुनिया का सबसे अमीर इंसान कहा जाता था. उनके खजानों की कहानियां अब भी लोककथाओं की तरह सुनाई जाती हैं-जैसे मोतियों की इतनी बड़ी मात्रा कि स्विमिंग पूल तक भर जाए, या फिर दुनिया के मशहूर जैकब डायमंड को कागज दबाने के लिए उपयोग करना. स्पष्ट है कि ऐसे व्यक्ति का दिल्ली स्थित निवास साधारण नहीं हो सकता था.
लुटियंस की कारीगरी, तितली के आकार वाला अद्वितीय महल
निजाम ने अपने दिल्ली आवास की डिजाइन एडविन लुटियंस से बनवाई. वही लुटियंस जिनकी कल्पना ने राष्ट्रपति भवन, इंडिया गेट और नई दिल्ली की आत्मा को जन्म दिया. उन्होंने हैदराबाद हाउस को अनोखे ‘तितली आकार’ में डिजाइन किया. बीच में एक विशाल गुंबद और दोनों ओर 55 डिग्री के कोण पर फैले पंखों जैसी दो सममित संरचनाएं.
यह यूरोपीय भव्यता और भारतीय सौंदर्य का अद्भुत मिश्रण था. मुगल शैली के झरोखे, फ्लोरेंटाइन आर्च, मेहराबदार गलियारे और 36 विशाल कमरे, जनाना भी बनाया गया, जिसके चारों ओर 12-15 छोटे कमरे थे. 1920 के दशक में इस इमारत पर 2,00,000 पाउंड खर्च हुए. उस समय के अनुसार अविश्वसनीय रकम.
आजादी के बाद निजाम का पतन और भवन की नई भूमिका
1948 में हैदराबाद के भारत में विलय (ऑपरेशन पोलो) के बाद दिल्ली का यह महल उनके उपयोग में नहीं रहा. धीरे-धीरे यह भारत सरकार के अधीन आ गया और 1974 में विदेश मंत्रालय ने इसे पूरी तरह अपने कब्जे में लेकर नए दौर की शुरुआत की. जो महल कभी निजाम की प्रतिष्ठा का प्रतीक था, वही आगे चलकर भारत की कूटनीति की धड़कन बन गया.
कूटनीतिक शक्ति का केंद्र, जहां दुनिया के नेता मिलते हैं
1970 के बाद से हैदराबाद हाउस भारत के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्रालय के लिए उच्चस्तरीय मुलाकातों का प्रमुख स्थल बन गया. यहां आधिकारिक भोज, द्विपक्षीय वार्ताएं और ऐतिहासिक समझौते होते हैं.
इन विदेशी मेहमानों का गवाह बना हैदराबाद हाउस
बिल क्लिंटन, जॉर्ज बुश, बराक ओबामा, गॉर्डन ब्राउन, शिंजो आबे, शी चिनफिंग, व्लादिमीर पुतिन समेत कई अन्य वैश्विक नेताओं का गवाह हैदराबाद हाउस बन चुका है.
एक इमारत, दो कहानियां, राजसी वैभव और आधुनिक कूटनीति
हैदराबाद हाउस आज भी अपनी शांत दीवारों में दो युगों की कहानी समेटे है. एक वह जिसमें निजाम का साम्राज्य चमकता था और दूसरा वह जिसमें भारत की विदेश नीति आकार लेती है. यह भवन इतिहास के वैभव और आधुनिक शक्ति का अनोखा संगम है स्थिर, शांत और समय का शाश्वत प्रहरी.
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