देश एकजुट था, भावना उफान पर थी, और मंच पर खड़े थे तीन चेहरे, विदेश सचिव विक्रम मिस्री, कर्नल सोफिया कुरैशी (भारतीय सेना) और विंग कमांडर व्योमिका सिंह (भारतीय वायुसेना). यह वही दिन था जब भारत ने पाहलगाम आतंकी हमले के जवाब में ऑपरेशन सिंदूर के तहत सर्जिकल स्ट्राइक जैसी मिसाइल कार्रवाई को अंजाम दिया. लेकिन इस ऐतिहासिक क्षण में सिर्फ मिसाइलों की गूंज नहीं थी, बल्कि मिस्री की शांत, संयमित और रणनीतिक उपस्थिति ने भी पूरे देश को गौरव से भर दिया.
जब शब्द ही बन गए हथियार
जब पाकिस्तान ने जवाबी हमले किए, तब भी विक्रम मिस्री का रवैया न शांत हुआ, न उत्तेजित हुआ. यह उनकी रणनीति का हिस्सा था. हर शब्द नपा-तुला और संदेश से भरा. शायद यही वजह है कि उन्हें आज की भारतीय कूटनीति का मौन रणनीतिकार कहा जाता है.
कश्मीर की घाटियों से वैश्विक मंच तक
7 नवंबर 1964 को जन्मे विक्रम मिस्री का बचपन श्रीनगर और उधमपुर की गलियों में बीता. वहां की संस्कृति, और साथ ही उभरते संघर्षों ने उन्हें बचपन से ही दक्षिण एशिया की संवेदनशीलता और जटिलता का पाठ पढ़ा दिया. उन्होंने अपनी शुरूआती पढा़ई बर्न हॉल स्कूल और कार्मेल कॉन्वेंट (J&K) किया.
इसके बाद सिंधिया स्कूल, ग्वालियर पढा़ई की. वहीं, इतिहास में स्नातक, हिंदू कॉलेज (DU) किया. उन्होंने करियर की शुरुआत विज्ञापन एजेंसियों (Lintas, Contract) में की, लेकिन 1989 में वह भारतीय विदेश सेवा से जुड़ गए.
तीन प्रधानमंत्रियों के साथ काम करने का गौरव
विक्रम मिस्री उन दुर्लभ अधिकारियों में हैं जिन्होंने तीन अलग-अलग प्रधानमंत्रियों आई.के. गुजराल, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी के निजी सचिव के रूप में कार्य किया. यह उनकी राजनीतिक सूझबूझ और विश्वासनीयता का प्रमाण है.
उनकी कूटनीतिक तैनातियां शामिल हैं
- ब्रसेल्स, ट्यूनिश, इस्लामाबाद, वाशिंगटन डीसी
- डिप्टी हाई कमिश्नर, श्रीलंका
- कॉन्सुल जनरल, म्यूनिख
- राजदूत, स्पेन (2014), म्यांमार (2016), चीन (2019–2021)
चीन में गलवान झड़पों के दौरान भारत का चेहरा रहे मिस्री ने बेहद नाज़ुक परिस्थितियों में संतुलित और सख्त संवाद को अपनाया.
राष्ट्रीय सुरक्षा का संचालन भी संभाला
जनवरी 2022 से जून 2024 तक, उन्होंने उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के रूप में कार्य किया. यहां वह देश की रणनीतिक, रक्षा और खुफिया नीतियों को आकार देने वाले प्रमुख चेहरे बने. 15 जुलाई 2024 को, उन्हें भारत का 35वां विदेश सचिव नियुक्त किया गया. यह नियुक्ति केवल प्रशासनिक नहीं थी, यह भारत की विदेश नीति में गंभीरता, निरंतरता और नेतृत्व क्षमता का संकेत थी.
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