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मुलायम परिवार का समाजवाद और यूपी विधानसभा चुनाव - ऐ दिल है मुश्किल

मुलायम परिवार में मुलायम सब की सुनते हैं, लेकिन करते अपने मन की हैं। लेकिन जैसे ही वो किसी फैसले पर पहुंचते हैं उनके बेटे और यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश बगावत का झंडा बुलंद कर देते हैं।

Updated on: 18 Oct 2016, 10:01 AM

नई दिल्ली:

मुलायम परिवार में मुलायम सब की सुनते हैं, लेकिन करते अपने मन की हैं। वो बहुत ही सख्त नेता हैं। लेकिन जैसे ही वो किसी फैसले पर पहुंचते हैं उनके बेटे और यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश बगावत का झंडा बुलंद कर देते हैं। मुलायम पिघल जाते हैं। 

मुलायम नेता हैं मगर हैं तो इंसान ही। जिस बेटे को अपने हाथों से ताज पहनाया हो उसका दिल कैसे तोड़ें। जिस बेटे को सत्ता की कमान अपने हाथ से सौंपी हो, उस कलेजे के टुकड़े को कैसे दूर कर दें। 

वो तो गुस्से में बोल गये कि अगला चुनाव जीते तो अखिलेश के अलावा मुख्यमंत्री के दूसरे उम्मीदवार भी होंगे। इसके पीछे उनका विश्वास ही होगा कि अगला चुनाव उनकी पार्टी फिर जीत रही। इस गला-काट राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के सारे गुणा-भाग के बाद जो बचता है वो है नेता का विश्वास कि पब्लिक अब भी उसके साथ है। वो हार कर भी ये विश्वास नहीं खोना चाहता। आप और हम इसे भ्रम कह सकते हैं।

बहरहाल, लोकतंत्र की भी यही पुकार है। नेता वो हो जो सर्वसम्मति से चुना जाये। किसी की बपौती थोड़ी न है। और फिर जब कुनबा इतना बड़ा हो तो सिर्फ एक बेटे की ही हमेशा क्यों सुनी जाये? और सिर्फ इसलिये सुनी जाये कि वो मुख्यमंत्री है और उसकी पत्नी सांसद। कतई नहीं। 

मुलायम किसी को भी मुख्यमंत्री या सांसद बनाने की कूवत रखते हैं। उस दिन भी तो यही कहा था उन्होंने कि वो ही पार्टी हैं। किसी को भ्रम नहीं होना चाहिये। या यूं कहिये बेटे को बोल रहे थे कि भ्रम न पालना। मैं हूं तो तुम हो। वर्ना तुम गुम हो। लेकिन चूंकि बेटा उन्ही का है इसलिये पिता के तेवर को भांप गया। बोला अकेले प्रचार कर लूंगा। इस पूरी कवायद में परिवार के आचार ( जो भी है, आखिर सत्तारूढ़ पार्टी है और सत्तारूढ़ पार्टी के भी आचार होते हैं ) और उसकी संहिता की जो धज्जियां उड़ी सो उड़ी, इन सब के बीच ये भ्रम भी टूटा कि परिवार सर्वोपरि है। 

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अखिलेश ने आभास दिलाया कि सत्ता ज़रूरी है। मुलायम भी तो यही कह रहे थे। बस समझने वाले थोड़े गुमराह हो गये थे। और, कोई ज़रूरी नहीं कि बेटा अगर मुख्यमंत्री हो तो पिता गुस्सा भी ज़ाहिर नहीं कर सकता। गुस्से का इज़हार करना भी लोकतांत्रिक है। और एक पूर्व मुख्यमंत्री और पार्टी सुप्रीमो का अपने मुख्यमंत्री बेटे पर गुस्सा दिखाना भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया की एक महान मिसाल है। मुलायम सिंह लोकतंत्र की मर्यादा निभाने में पूरा विश्वास करते हैं। 

चूंकि मुलायम सिंह परिवार में सबसे वरिष्ठ हैं और समाजवादी भी हैं इसलिये वो अपने मुख्यमंत्री बेटे के अलावा अपने समाजवादी कुनबे के भाइयों की भी सुनते हैं। समाजवाद के संविधान के तहत उन्होने सत्ता का बंटवारा बराबर से किया हुआ है। इसके अलावा उनके छोटे भाई शिवपाल खुद को यादवों के बड़े नेता भी मानते है। अपने बड़े भाई से इतर थोड़े कम समाजवादी हैं मगर भाई की तरह पूरे परिवारवादी। भाई को पूजते हैं। भतीजे पर टूटते हैं। इशारा कर दें तो भतीजे को समाजवाद का मज़ा चखा दें। मगर बड़े भइया की वजह से चुप रहते हैं। 

लोकतंत्र में बोलना ज़रूरी है। और बोल के पीछे हटना भारतीय लोकतंत्र। ये वाइरस शिवपाल को अपने बड़े भाई से मिला है। बोल के पीछे हटना कोई मुलायम से सीखे। शायद इसलिये दुनिया उन्हे यू-टर्न के बेताज बादशाह के नाम से जानती है। पहले समाज की खातिर बोलो और फिर समाजवाद की खातिर उससे पलट जाओ। इसलिये मुलायम लोकतंत्र और समाजवाद में समन्वय बिठाने पर काफी ज़ोर देते हैं। 

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लोकतंत्र और समाजवाद एक दूसरे से कितना मिलते हैं। अव्वल तो ये कि इन दोनों के मानने वालों में से किसी की किसी के प्रति कोई जवाबदेही नहीं होती। नेता की जनता के प्रति तो कतई नहीं। इसलिए इनमें बनती भी है। जब ये दोनों का संगम होता है तो परिवारवाद की उत्पत्ति होती है। वैसे भारतीय राजनीति में परिवारवाद समाजवाद की भी बपौती नहीं। वो द्रौपदी की तरह सब की है। 

 

इसलिये जब बेटे पर बोझ बढ़ जाता है तो वो राग बागी आलापने लगता है। परिवार का एक धड़ा कोरस पकड़ने की कोशिश करता है। अखिलेश पिच तेज़ करते हैं। परिवार सुर नहीं मिला पाता। फिर क्रेसेन्डो में सब मिल कर गाते हैं — ऐ दिल है मुश्किलss। अब आप ये समझते रहिये कि यहां मतलब परिवार को एक रखने से है या पार्टी को चुनाव जिताने से। जो आशावादी होंगे वो पहला या दूसरा मतलब निकालेंगे। निराशावादी तो बस चारो तरफ अंधकार ही देखते हैं। 

सत्ता की इस खींच-तान में परिवार ये भी भूल जाता है कि चुनाव सर पर हैं। शायद यही वजह हो कि परिवार में कलह चरम पर है। शायद जीत से दूर जाने का एहसास। शायद हार का आभास। शायद सत्ता का हाथ से छिटकने का डर। और यदि ये सब नहीं और ये मान लिया जाये कि परिवार जीत के भ्रम में जी रहा तो ऐसी स्थिति और भी खतरनाक है। इस स्थिति में पहुंचने पर गलती करने के चांसेज़ कई गुना बढ़ जाते हैं। नब्बे के दशक में जब से मंडल, कमंडल की राजनीति शुरू हुई यूपी का राजनैतिक माहौल और मैप दोनों तेज़ी से बदला है।

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लगातार दो फुल टर्म सत्ता में बने रहने के दिन जाते रहे। शायद इतिहास की यही कड़वी सच्चाई मुलायम और उनके परिवार को भी साल रही हो। शायद इस फ्रस्टेशन में गलतियां ज्यादा हो रही हैं जिनकी अब कोई परदादारी भी नहीं बची।