logo-image

जानें वो 4 कारण जिसमें राहुल गांधी जाने पर तो कांगेसी मनाने पर अड़े

कहा जा रहा है कि वे किसी भी सूरत में अपने फैसले को वापस नहीं लेना चाहते.

Updated on: 03 Jun 2019, 05:43 PM

नई दिल्ली:

लोकसभा चुनाव 2019 में कांग्रेस मिली करारी हार के बाद राहुल गांधी अपना पद छोड़ने पर अड़े हैं. कहा जा रहा है कि वे किसी भी सूरत में अपने फैसले को वापस नहीं लेना चाहते. ऐसे में कांग्रेस के पुराने दिग्गज नेता अगले कदम पर गहन चिंतन कर रहे हैं. कहा जा रहा है कि राहुल ने अपना मन बना लिया है और उनके पास आ रहे बार-बार के आग्रहों पर वे विचार नहीं करने वाले. कांग्रेस को हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में भारी हार का सामना करना पड़ा है. पार्टी मात्र 52 सीटें जीतने में कामयाब हो सकी, जबकि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने 303 सीटें जीती हैं.

यह भी पढ़ें- सपा के बाद कांग्रेस ने भी पार्टी प्रवक्‍ताओं को लेकर उठाया यह बड़ा कदम

जानें वो 4 कारण जिस पर राहुल अड़े

1-कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का मानना है कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने टिकट वितरण में परिवार को तरजीह दी जबकि उन्हें इससे बचना चाहिए था. सूत्रों के मुताबिक राहुल गांधी पार्टी के पुराने नेता अशोक गहलोत, कमलनाथ और पी. चिदंबरम से काफी खफा हैं, जिन्होंने हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में अपने बेटों को जीत दिलाने की कोशिश की और पार्टी के लिए काम नहीं करते दिखे. हालांकि अब यह माना जा रहा है कि राहुल ने यह स्वीकार कर लिया है कि वे लोकसभा में कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व करेंगे, जहां पार्टी ने इस बार 52 सीटें जीती हैं, जोकि पिछली बार की सीटों की तुलना में केवल 8 ज्यादा है. उनकी मां सोनिया गांधी यूपीए की अध्यक्ष बनी रहेंगी और गांधी परिवार खुद को पार्टी के रोजाना की गतिविधियों से दूर रखेगा.

2-हालिया चुनाव में कांग्रेस 16 राज्यों, दो केंद्रशासित प्रदेशों में अपना खाता तक नहीं खोल सकी. यहां तक की आठ पूर्व मुख्यमंत्री और लोकसभा में पार्टी के नेता भी अपना चुनाव हार गए. कांग्रेस ने पूरे देश में 421 उम्मीदवारों को उतारा था लेकिन इसमें से केवल 52 ही जीत सके. यह लगातार दूसरी बार है, जब पार्टी ने इतना खराब प्रदर्शन किया है. चुनाव में हारने वाले नेताओं में कांग्रेस कार्यकारिणी में शामिल चार नेता भी हैं, जोकि पार्टी के फैसले लेने वाली संस्था है.

3-कांग्रेस के अंदर भले कोई खुल कर न बोले लेकिन अंदरूनी तौर पर राहुल गांधी के नेतृत्व और हालिया चुनाव में उनके प्रचार अभियान के तौर तरीकों पर नेताओं ने सवाल खड़े किए हैं. इन नेताओं को लगता है कि राहुल गांधी को दो आम चुनावों में मौका दिया गया लेकिन पार्टी संतोषजनक प्रदर्शन नहीं कर पा रही. इस बार का चुनाव कांग्रेस के लिए करो या मरो वाला था. माहौल भी इस बार कांग्रेस के पक्ष में जाता दिखा लेकिन परिणाम ठीक उलटे आए. इसके लिए तीन मुद्दे अहम बताए जा रहे हैं जिन पर राहुल गांधी बहुत अच्छा नहीं कर पाए. पहला हिंदुत्व, दूसरा तीन तलाक और तीसरा न्याय योजना. हिंदुत्व पर पार्टी मुखर न हो सकी, तीन तलाक पर विरोध किया गया और न्याय योजना चुनाव के अंतिम क्षणों में प्रोजेक्ट किया गया. लिहाजा पार्टी अथक प्रयास के बाद भी काफी पीछे छूट गई.

4-राहुल गांधी प्रदेशों में कांग्रेस खेमे को एकजुट करने की भरसक कोशिश करते रहे हैं लेकिन प्रदेश स्तर के अध्यक्षों और वहां के नेताओं में फूट जगजाहिर है. इसका जीता जागता उदाहरण राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली जैसे राज्यों में दिखा. राजस्थान में गहलोत बनाम सचिन पायलट, मध्य प्रदेश में कमलनाथ बनाम दिग्विजय सिंह, हरियाणा में भूपेंदर सिंह हुड्डा बनाम अशोक तंवर और दिल्ली में शीला दीक्षित बनाम अजय माकन के आपसी मतभेद सामने हैं. लाख चाहने के बावजूद राहुल गांधी इसकी काट नहीं निकाल पाए.

जानें वो 4 कारण जिस पर कांग्रेसी अड़े हैं

1-कांग्रेस की हार भले हुई हो लेकिन इसके नेता मानते हैं कि नेहरू-गांधी परिवार की सबसे बड़ी खासियत पार्टी को एकसूत्र में पिरोने की रही है. प्रदेशों के नेता आलाकमान की बात सिर आंखों पर बिठाते हैं और दिल्ली से जो निर्देश पारित हों, उसके मुताबिक आगे का काम होता है. चुनाव जीतने के लिए पार्टी क्या कुछ कर सकती है, नेहरू-गांधी परिवार के अध्यक्ष इसकी रणनीति बखूबी बनाते रहे हैं. सोनिया गांधी ने अपने अध्यक्ष पद काल में पार्टी को बांधे रखा और सरकार भले गठबंधन की बने, उन्होंने इसमें केंद्रीय रोल निभाया. राहुल गांधी इसमें चूक गए लेकिन अब वे इसके 'कोर्स करेक्शन' में जरूर लगे हैं.

2-एक दो दशक पहले की बात करें तो नेहरू-गांधी परिवार के अलावा कांग्रेस की अध्यक्षता जगजीवन राम, के. कामराज, नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी के हाथों में रही. आज की पीढ़ी के नेता इन अध्यक्षों के काम का प्रदर्शन और नेहरू-गांधी परिवार के अध्यक्षों का काम देखते हैं तो उन्हें इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के काम पर ज्यादा भरोसा होता है. इन नेताओं का मानना है कि नेहरू-गांधी परिवार के अलावा कोई और अध्यक्ष बनता है तो पार्टी के अंदर कलह और गुटबाजी ज्यादा होती है जिसका असर कामकाज पर पड़ता है. इससे बचने के लिए कांग्रेस नेता राहुल गांधी में पार्टी का उज्ज्वल भविष्य देखते हैं.

3-राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो राहुल गांधी जैसी अपील किसी और नेता की नहीं है. राहुल गांधी की विशेषता है कि जहां क्षत्रपों से मेलजोल बढ़ाना हो, वहां वे इससे नहीं हिचकते और जहां पार्टी का स्वाभिमान आगे रखना हो, वे उसमें भी पीछे नहीं हटते. तमिलनाडु में उनकी यह रणनीति काम आई और उन्होंने बीजेपी और एडीएमके गठबंधन का सूपड़ा साफ करा दिया. दिल्ली में उन्होंने कांग्रेस का स्वाभिमान आगे रखा और आम आदमी पार्टी को घोर प्रतिद्वंद्वी मानते हुए गठबंधन से इनकार किया. कांग्रेस यहां भले न जीत पाई हो लेकिन दूसरे नंबर पर जरूर रही और आम आदमी पार्टी के वोट शेयर में सेंध लगा दिया.

4-जब बात फंक्शनल ऑटोनमी की आती है तो सबकी निगाहें नेहरू-गांधी परिवार पर टिक जाती हैं. राहुल गांधी के अलावा अगर किसी और नेता को अध्यक्ष बनाया जाए तो सत्ता का विकेंद्रीकरण होगा, अलग अलग पावर सेंटर बनेंगे. इससे सियासी तकरार बढ़ेगी और पार्टी में नेतृत्व का संकट गहराएगा. कांग्रेस नेता इसी टकराव की राजनीति से बचना चाहते हैं और राहुल गांधी को अध्यक्ष पद पर बने देखना चाहते हैं.

अब देखना ये है कि राहुल गांधी अपने मंसूबे में कामयाब होते हैं या पार्टी में उनके शुभचिंतक नेता राहुल गांधी को ही अध्यक्ष पद पर देखना चाहते हैं. कांग्रेस की बागडोर नेहरू-गांधी परिवार से इतर किसी के हाथ जाएगी या राहुल गांधी ही संभालेंगे, इस पर सबकी निगाहें टिकी हैं.