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तो इसलिए अखिलेश यादव ने छोड़ी आजमगढ़ लोकसभा सीट

अखिलेश यादव के सामने बड़ी चुनौती है समाजवादी पार्टी को बचाने की. समाजवादी पार्टी को 2012 में विधानसभा चुनाव में बंपर जीत मिली थी. इसके बाद से समाजवादी पार्टी को किसी भी चुनाव में अपेक्षाकृत सफलता नहीं मिली.

Updated on: 23 Mar 2022, 12:02 PM

highlights

  • अखिलेश-आजम ने छोड़ी संसद सदस्यता
  • दोनों ने विधानसभा चुनाव में हासिल की जीत
  • अब लखनऊ में रहकर पार्टी को आगे बढ़ाने की चुनौती

नई दिल्ली:

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने आजमगढ़ लोकसभा सीट से इस्तीफा दे दिया है. उनके साथ ही जेल में बंद आजम खान ने भी रामपुर लोकसभा सीट (Rampur Loksabha Seat) से इस्तीफा दे दिया है. आजम खान पुराने नेता हैं. समाजवादी पार्टी के साथ शुरू से हैं. मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) के भरोसेमंद रहे हैं और समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) का मुस्लिम चेहरा भी हैं. ये अलग बात है कि वो फिलहाल जेल में बंद हैं. उन पर कई मुकदमे दर्ज है. इसके बावजूद उन्होंने यूपी विधानसभा चुनाव 2022 (UP Assembly Election 2022) में जीत दर्ज की. वहीं, अखिलेश यादव की अगुवाई में समाजवादी पार्टी ने वोट फीसद के मामले में बेहतरीन प्रदर्शन किया और अपनी सीटों की संख्या काफी बढ़ाई. लेकिन अब ये दोनों ही नेता लोकसभा की जगह विधानसभा में ही बैठेंगे. ऐसे में लोगों के जेहन में जो सवाल आ रहा है, वो ये, कि दोनों ने सांसदी क्यों छोड़ी? दोनों ने लोकसभा को छोड़कर विधानसभा में बैठने का विकल्प क्यों चुना? तो आईए बताते हैं पूरा गणित...

पार्टी को ढहने से बचाना, खुद को पुनर्स्थापित करने का प्रयास

अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के सामने बड़ी चुनौती है समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) को बचाने की. समाजवादी पार्टी को 2012 में विधानसभा चुनाव में बंपर जीत मिली थी. इसके बाद से समाजवादी पार्टी को किसी भी चुनाव में अपेक्षाकृत सफलता नहीं मिली. 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को सिर्फ 5 सीटें मिली और समाजवादी पार्टी घर परिवार की पार्टी बन कर रह गई थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा को 18 सीटों का नुकसान हुआ था. इसके बाद साल 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी टूट रही थी. भले ही पार्टी सत्ता में थे, लेकिन अखिलेश अकेले पड़ चुके थे. चाचा-पिता के साथ विवाद चल रहा था. चाचा अलग पार्टी बना रहे थे. परिवार वादी पार्टी कही जा रही समाजवादी पार्टी के मुखिया भले ही अखिलेश बन गए थे, लेकिन अपने ही परिवार को न संभाल पाना उनके लिए बड़ी चुनौती बन गया. उन्होंने इसकी भरपाई के लिए सत्ता में रहते हुए कांग्रेस के साथ गठबंधन भी किया, लेकिन पार्टी को 2017 के विधानसभा चुनाव में बुरी हार का सामना करना पड़ा. सपा को सिर्फ 47 सीटों पर जीत मिली. यहां तक कि पार्टी को इतनी भी सीटें नहीं मिली थी कि वो नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी भी सीधे तौर पर हासिल कर सके.

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न पार्टी बचती, न परिवार-'माया मिली न राम'

इसके बाद आया साल 2019 का लोकसभा चुनाव. समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) ने अपना सबसे बड़ा दांव खेला. बीएसपी प्रमुख मायावती के चरणों में अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव का शरणागत हो गईं. लेकिन पार्टी की किस्मत नहीं बदली. बीएसपी ने 10 सीटें जीतीं, तो सपा फिर से 5 सीटों पर ही अटक गई. हां, इस बार परिवार को मिली सिर्फ दो ही लोकसभा सीट. एक मैनपुरी से खुद सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने जीत हासिल की तो दूसरी सीट आजमगढ़ से अखिलेश यादव ने जीती. बाकी परिवार वाले चुनाव हार गए. एक सीट आजम खान ने रामपुर में जीती, तो मुरादाबाद और संभल सीटों पर एस टी हसन और डॉ शफीकुर रहमान बर्क ने चुनाव जीता. इसके तुरंत बाद बीएसपी ने सपा को झटका देते हुए गठबंधन तोड़ दिया. समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव को भी सबक मिल चुके थे. इस बार के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने छोटी-छोटी पार्टियों को भी खूब भाव दिया. रालोद को भी जमकर सीटें दीं. विधानसभा चुनाव हुए. अखिलेश खुद को अगला सीएम मानकर आश्वस्त बैठे थे. दावा कर रहे थे कि योगी आदित्यनाथ को जनता गोरखपुर मठ वापस भेज रही है. लेकिन नतीजे आए तो पैरों तले जमीन खिसक चुकी थी. उनके जो लग्गू-भग्गू उनके आसपास मंडराते रहते थे, वो सब गायब हो चुके थे. ऐसे में अब अखिलेश यादव ने वो कदम उठा लिया, जो उन्हें पहले ही उठा लेना चाहिए था. 

फ्रंट से करेंगे समाजवादी पार्टी को लीड

अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) जिस आजमगढ़ से लोकसभा सांसद (Azamgarh Loksabha MP) थे, वहां सपा ने सभी 12 सीटें जीत ली. मैनपुरी जो अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) का अपना जिला है, वहां से बीजेपी दो विधानसभा सीटें झटक चुकी है. ऐसे में अखिलेश ने आजमगढ़ से लोकसभा सीट छोड़ी है, तो ये अखिलेश यादव का वो दांव है, जिसे वो खुद आखिरी मान कर चल रहे हैं. इसकी पहली वजह तो ये है कि अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) न तो दिल्ली के हो पा रहे थे, न ही आजमगढ़ के. फिर लखनऊ में टिक कर भी वो लखनऊ के नहीं हो पा रहे थे. सारा संघर्ष सिर्फ ट्विटर तक ही सिमट रहा था. अब वो विधायक बने हैं. ये पहली बार है कि वो विधानसभा में बतौर विधायक बैठेंगे. वो नेता प्रतिपक्ष बनेंगे. इसका मतलब है कि उनके पास सुरक्षा से लेकर सुविधा तक, सबकुछ कैबिनेट मंत्री के स्तर का होगा. जिसकी अखिलेश यादव को सख्त जरूरत है. वो पार्टी में बगावत को थाम पाएंगे और ऐसी किसी भी स्थिति को बनने से रोक लेंगे, जिसमें कोई भी नेता सपा में उनके बराबर के कद तक न पहुंच पाए. इसके अलावा वो लखनऊ में रह कर पार्टी की कमान संभालेंगे, तो पूरे प्रदेश में पार्टी को जिंदा रख पाएंगे. विधानसभा में आवाज उठाएंगे, तो पूरे राज्य की जनता सुनेगी. क्योंकि अगर अखिलेश ऐसा न करते, तो अगले लोकसभा चुनाव में सपा के पास तीन भी सांसद बचेंगे, इस बात की भी गारंटी नहीं है. ऐसे में अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) और आजम खान (Azam Khan) की जोड़ी का लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा भले ही एक आम राजनीतिक घटनाक्रम की तरह लिया जा रहा हो, लेकिन ये पूरी तरह से सोच-समझ कर उठाया गया कदम है.