ओबीसी, आदिवासी और ब्राह्मण सीएम चुनकर भाजपा ने लोकसभा चुनाव को लेकर खेला बड़ा दांव
ओबीसी, आदिवासी और ब्राह्मण सीएम चुनकर भाजपा ने लोकसभा चुनाव को लेकर खेला बड़ा दांव
नई दिल्ली:
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान, तीनों राज्यों में मुख्यमंत्रियों के साथ-साथ दो-दो उपमुख्यमंत्रियों का चयन कर भाजपा ने राज्य की स्थानीय राजनीति को तो साधा ही है, लेकिन इसके साथ ही जातीय समीकरण को साध कर 2024 की लड़ाई को भी जीतने की तैयारी शुरू कर दी है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान इन तीनों राज्यों में लोक सभा की कुल 65 सीटें हैं।
मध्य प्रदेश में ओबीसी, छत्तीसगढ़ में आदिवासी और राजस्थान में ब्राह्मण मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने एक तरह से विपक्षी दलों की रणनीति की काट भी तैयार करने की कोशिश की है।
विपक्षी नेता खासतौर से राहुल गांधी, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव जोर-शोर से जातीय जनगणना और ओबीसी आरक्षण का राग अलाप रहे थे और यह माना जा रहा था कि यह लोक सभा चुनाव के लिए विपक्षी गठबंधन का बड़ा चुनावी मुद्दा बन सकता है। वैसे तो शिवराज सिंह चौहान भी ओबीसी समाज से ही आते हैं लेकिन भाजपा ने मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्य में यादव सरनेम वाले ओबीसी नेता मोहन यादव को मुख्यमंत्री बना कर उत्तर प्रदेश और बिहार के यादव मतदाताओं को बड़ा राजनीतिक संदेश देने का प्रयास किया है।
ओबीसी यादव को मध्य प्रदेश का सीएम बनाकर भाजपा ने सबसे बड़ा झटका अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव को दिया है जो अपने-अपने राज्यों में इसी आधार पर लोक सभा चुनाव जीतने की रणनीति बना रहे थे। उत्तर प्रदेश से 80 और बिहार से 40 यानी दोनों राज्यों में कुल मिलाकर 120 लोक सभा सीटें हैं।
छत्तीसगढ़ में आदिवासी नेता विष्णुदेव साय को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने न केवल छत्तीसगढ़ का चुनावी गणित ही साधा है, बल्कि देश भर के विभिन्न राज्यों में फैले 10 करोड़ से ज्यादा आदिवासी लोगों को भी साधने का प्रयास किया है। आदिवासी वोटरों के महत्व का अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि लोक सभा की 543 सीटों में से 47 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं।
ये 47 सीटें असम, गुजरात, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, ओडिशा, राजस्थान, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल सहित 17 राज्यों एवं संघ शासित प्रदेशों में हैं। नॉर्थ ईस्ट के कई राज्यों में इनकी आबादी 75 प्रतिशत से भी ज्यादा है। यह माना जाता है कि आदिवासी वोटर देश की 75 से ज्यादा लोक सभा सीटों पर जीत-हार में महत्वपूर्ण भूमिका तो निभाते ही हैं लेकिन इसके साथ ही 20 के लगभग सीटें ऐसी भी है जहां इनकी तादाद अच्छी-खासी है।
अगड़ी जातियों में से ब्राह्मणों को कुछ दशक पहले तक कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक माना जाता रहा है जिसके बल पर कांग्रेस ने दशकों तक केंद्र से लेकर राज्यों में राज किया लेकिन जैसे-जैसे कांग्रेस का झुकाव मुस्लिमों की तरफ बढ़ता गया, कमंडल की राजनीति के दौर में ब्राह्मण उससे छिटक कर भाजपा के साथ जुड़ते गए। लेकिन ओबीसी राजनीति के इस दौर में अगड़ी जातियां खासकर ब्राह्मण समुदाय अपने आपको कई राज्यों में उपेक्षित महसूस करने लगा था और अगर इस समाज की उदासीनता लोक सभा चुनाव तक बनी रहती तो निश्चित तौर पर इसका खामियाजा भाजपा को उठाना पड़ सकता था लेकिन राजस्थान में ब्राह्मण समाज से आने वाले नेता भजनलाल शर्मा को मुख्यमंत्री चुन कर भाजपा ने देश भर के ब्राह्मण मतदाताओं को एक बड़ा संदेश देने का प्रयास भी किया है।
राजस्थान के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, और दिल्ली सहित देश के कई राज्यों में ब्राह्मण मतदाता जीत-हार में बड़ी भूमिका निभाते हैं। यह सिर्फ अपना वोट ही नहीं देते हैं बल्कि अपने प्रभाव के कारण अन्य जातियों का वोट दिलवाने की भी क्षमता रखते हैं। 2014 और 2019 में ब्राह्मणों सहित अगड़ी जातियों से आने वाले क्षत्रिय और वैश्यों ने भी मोदी की जीत में बड़ी भूमिका निभाई थी और भाजपा एक बार फिर से इन्हें साध कर 2024 में लगातार तीसरी बार केंद्र में सरकार बनाना चाहती है क्योंकि उत्तर भारत या यूं कहें कि हिंदी पट्टी के राज्यों से 230 से ज्यादा सांसद चुन कर आते हैं।
कई विश्लेषक इन तीनों राज्यों में नए मुख्यमंत्रियों के चयन को भाजपा में अटल-आडवाणी के युग के समापन के तौर पर भी देख रहे हैं। हालांकि भाजपा इस विश्लेषण को खारिज करते हुए यह कह रही है कि इसे युग के समापन के तौर देखना ठीक नहीं है। इन दोनों नेताओं द्वारा तैयार की गई नींव पर ही भाजपा आगे बढ़ रही है। इन तीनों राज्यों में भी जब ये नेता (शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह और वसुंधरा राजे सिंधिया) पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तब इनके बारे में भी ऐसा ही कहा गया था। पार्टी ने इस बार भी कार्यकर्ताओं को ही मुख्यमंत्री बनाया है।
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