कोरोना वायरस को लेकर लगातार नई जानकारी सामने आ रही है. वैज्ञानिकों ने जल्द की देश में तीसरी लहर की संभवना जताई है. दुनिया की कई प्रसिद्ध संस्थाओं के संयुक्त शोध में पहली बार पता चला कि अब तक ज्ञात अन्य वायरसों से अलग कोरोना वायरस की असली शक्ति है मनुष्य के रक्त के आरबीसी (रेड ब्लड कोर्प्सिल्स) में पाये जाने वाले प्राकृतिक मोलिक्यूल—बिलीवरडीन और बिलीरुबिन- जो शरीर में बने एंटीबाडीज को भी कोरोना के स्पाइक प्रोटीन के साथ बाइंड करने से रोक देते हैं और स्वयं इस प्रोटीन के साथ जुड़ कर इसे सुरक्षित कर देते हैं. एक शोध में पाया गया कि इस प्रक्रिया में क़रीब 35 -50 प्रतिशत एंटीबाडीज निष्क्रिय हो जाते हैं. मतलब यह कि शरीर में स्वतः या वैक्सीन के ज़रिये बनने वाले एंटीबाडीज का वैसा असर नहीं होता जैसा अन्य बीमारियों के टीकों का होता है.
फ्रांसीसी किर्क इंस्टीट्यूट ने लन्दन की शिक्षण संस्थाओं—इम्पीरियल कॉलेज, किंग्स कॉलेज और यूनिवर्सिटी कॉलेज- के साथ मिलकर क्रायो-एम और एक्स-रे क्रिस्टलोग्राफी का प्रयोग कर वायरस, एंटीबाडीज और बिलीवरडिन के बीच अंतर्क्रियाओं का अध्ययन किया. उन्होंने पाया कि बिलीवरडिन और बिलीरुबिन कोरोना के प्रोटीन स्पाइक को कवर कर इसे स्थिर कर देता है और एंटीबाडीज के लिए इसके साथ बंधने की गुंजाइश काफी कम हो जाती है. यह बिलीवरडिन स्पाइक प्रोटीन के एन-टर्मिनल डोमेन के साथ बांध जाता है और इसे सुरक्षित कर देता है.
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शोध के अनुसार वैसे भी जब वायरस फेफड़ों के रक्त वाहिनियों पर हमला करता है तो इम्यून सेल बढ़ जाते हैं जो बिलीवरडिन मोलिक्यूल में इजाफा करते हैं. यानी एक चक्रीय क्रम पैदा होता है. नतीजा यह होता है कि एंटीबाडीज का बड़ा हिस्सा निष्क्रिय हो जाता है और वायरस फेफड़ों की रक्त कोशिकाओं को क्षतिग्रस्त कर देता जिससे और इम्यून सेल्स बढ़ने लगते हैं. इन दोनों कारणों से आसपास के टिश्यूज में मौजूद बिलीवरडिन और बिलीरुबिन का स्तर बढ़ जाता है. जितना ज़्यादा ये दोनों मोलिक्युल बढ़ते हैं उतना ही वायरस को एंटीबाडीज से छिपने का अवसर मिलता है. यही कारण है कि अन्य सामान्य वायरसों से अलग कोरोना आज पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों के लिए सवा साल बाद भी पहेली बना हुआ है.
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इस शोध-निष्कर्ष के बाद कोरोना के लिए बनाई जाने वाली वैक्सीन के शोधकर्ताओं को अपना नज़रिया बदलना होगा और चिकित्सा/उपचार के तरीक़े में भी व्यापक बदलाव संभव है. कारण: शरीर में मौजूद इस प्राकृतिक तत्व के व्यवहार को बदलना होगा क्योंकि इस तत्व की जितनी ज़्यादा मौजूदगी होगी उतना ही वायरस को सुरक्षा मिलेगी और एंटीबाडीज प्रभावहीन होगा. मूल शोधकर्ता संस्था फ्रांसिस किर्क इंस्टीट्यूट नोबेल पुरस्कार विजेता फ्रांसिस किर्क के नाम पर बना है जिन्होंने सन 1953 में शरीर में डाईओक्सिरिबोन्युक्लेइक एसिड (डीएनए) का आविष्कार किया. इस आविष्कार ने आनुवंशिकी विज्ञान ही नहीं भौतिकी, चिकित्सा और अपराध-अनुसंधान की दुनिया में क्रांति ला दी. नए शोध से संभव है कोरोना के ख़िलाफ़ कोई संजीवनी मिल सके.