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हिंदुत्व की राह से मिलेगी उद्धव को मंजिल! क्यों छिना नाम-निशान, आगे क्या हैं विकल्प

अस्तित्व के संकट से जूझ रहे उद्धव ठाकरे, हिंदुत्व बनेगा ढाल

News Nation Bureau
| Edited By :
20 Feb 2023, 06:06:19 PM (IST)

highlights

  • हिंदुत्व के रास्ते से ही उद्धव ठाकरे को मिलेगी मंजिल?
  • सियासी डगर पर कामयाबी के लिए बनना होगा विकल्प
  •  मिशन 2024 से ही तय हो जाएगी आगे की दशा और दिशा

New Delhi:

महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे राजनीतिक करियर के उस मोड़ पर खड़ें हैं जहां से ना सिर्फ उनकी बल्कि बालासाहेब के हिंदुत्व एजेंडे वाली राजनीतिक की दिशा भी तय होना है. चुनाव आयोग ने पार्टी के चुनाव चिन्ह और शिवसेना नाम पर एकनाथ शिंदे के दावे को हरी झंडी दे दी है. पहले महाराष्ट्र में सरकार गई और अब पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह भी नहीं रहा. अस्तित्व पर संकट के बादल छाए हुए हैं ऐसे में आखिर कैसे हिंदुत्व की डगर पर तय होगा उद्धव ठाकरे का सियासी सफर?

हिंदुत्व का विकल्प करना होगा तैयार
अस्तिव पर गहराए संकट से उबरने के लिए उद्धव ठाकरे को जरूरी है कि वो हिंदुत्व का विकल्प बनें. वैसे उद्धव ठाकरे लगातार यही बोलते आए हैं कि उनका और बालासाहेब ठाकरे का हिंदुत्व एक ही है. लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर हिंदुत्व की छवि के झंडाबरदार होने के बाद भी उन्हें अपनी पार्टी में विरोध झेलना पड़ा और असर यह हुआ है कि पहले पार्टी में बगावत, फिर छूटा अपनों का साथ, फिर गई सरकार और अब छिन गया पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह. उद्धव को सियासी सफर तय करने के लिए बालासाहेब वाली हिंदुत्व की एजेंडे वाली राजनीति पर ही आगे बढ़ना होगा. पार्टी की पिछले दिनों हुई किरकिरी के चलते हिंदुत्व छवि को तगड़ा नुकसान हुआ है. हिंदू वोटरों के लिए बीजेपी ही एक मात्रा बड़ी पार्टी है. अपनी सियासी जमीन मजबूत करने के लिए उद्धव को अपने दल को हिंदुत्व का विकल्प बनाना होगा.  

कौरव और पांडव से तुलना
उद्धव को भरोसा है कि उनके दल को अब तक कोई नुकसान नहीं हुआ है. उन्होंने चुनाव चिन्ह और पार्टी का नाम छिन जाने को भी शिंदे गुट की कमजोरी और चोरी करार दिया है. यही नहीं उद्धव ने इस लड़ाई की कौरव और पांडव की लड़ाई से भी तुलना कर दी है. उद्धव ने कहा है कि, 100 कौरव भी साथ आ जाएं, लेकिन जीत पांडवों की ही होगी.  उद्धव के बयान से ये लगता है कि उनको खुद पर भरोसा तो बहुत है,लेकिन इस भरोसे को नतीजे में बदल पाएंगे तो ही अस्तित्व के संकट से उबर पाएंगे. 

मिशन 2024
वैसे तो उद्धव के लिए हिंदू वोट बैंक ही जीत का पैमाना है, लेकिन अब मामला और भी ज्यादा टक्कर वाला हो चुका है. खासतौर पर मिशन 2024. यानी लोकसभा और विधानसभा दोनों ही चुनावों के लिए उद्धव के सामने सीधी चुनौती बीजेपी है. उद्धव को लोकसभा की 48 सीटों में दो तिहाई सीटों पर जीतने का लक्ष्य तय करना है, यही नहीं विधानसभा में भी 288 सीटों में से 200 से ज्यादा सीटें जीतकर ही वो दोबारा हिंदुत्व का झंडा बुलंद कर पाएंगे. लक्ष्य बहुत बड़ा है और राहों में अड़चनें भी बहुत हैं. बीते चुनाव में बीजेपी को 28 फीसदी वोट मिला था. जबकि शिवसेना के खाते में 19 प्रतिशत वोट आए थे. इस बार शिवसेना के इस आंकड़े को दोगुना से ज्यादा करना होगा. 

हाथ मिलाने से या छोड़ने से बनेगी बात
उद्धव को जल्द ही आगे की दिशा तय करने के लिए ये फैसला लेना होगा कि हिंदुत्व की राह पर बढ़ने के लिए उन्हें पुराने साथियों (महाविकास अघाड़ी) पर भरोसा कायम रखना है  या फिर नए हाथ (राज ठाकरे या फिर दोबारा बीजेपी) मिलाने हैं. इन दोनों ही स्थितियों के अलावा एकला चलो की राह पर भी उद्धव चल सकते हैं. लेकिन ये निर्णय काफी मुश्किलों भरा साबित हो सकता है.  

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क्यों चुनाव आयोग ने छीना चुनाव चिन्ह
चुनाव आयोग ने 78 पन्नों के आदेश में शिवसेना और तीर-कमान के एकनाथ शिंदे के दावे को मंजूरी दी है. तीन सदस्यों वाले आयोग ने पार्टी संविधान के परीक्षण पर टिप्पणी करते हुए कहा कि, 'शिवसेना में 2018 का संशोधन एक व्यक्ति पर विभिन्न संगठनात्मक नियुक्तियां करने की व्यापक शक्तियां प्रदान करता है. यह अलोकतांत्रितक है.' इलेक्शन कमीशन ने तमाम बहुमत के परीक्षण से संबंधित तथ्यों को एनालिसिस किया और ये निष्कर्ष निकाला की शिंदे का समर्थन करने वाले विधायकों की संख्या 2019 के एसेंबली इलेक्शन में शिवसेना के 55 विजयी कैंडिडेट्स के पक्ष का 76 फीसदी है. आयोग के मुताबिक उद्धव के नेतृत्व वाले गुट को केवल 23.5 फीसदी वोट ही मिले हैं. लिहाजा चुनाव चिन्ह और नाम पर एकनाथ शिंदे का दावा सही है. 

आगे की लड़ाई चेहरे या चिन्ह पर
उद्धव ने वैसे तो कह दिया है कि वे सुप्रीम कोर्ट तक जाएंगे और अपने अधिकारों के लिए लड़ेंगे. लेकिन इतिहास पर नजर दौड़ाएं और महाविकास अघाड़ी के सदस्य दल एनसीपी चीफ शरद पवार की सलाह पर जाएं तो उन्हें चेहरे पर चुनाव लड़ना चाहिए. दरअसल शरद पवार ने उन्हें सलाह दी है कि वे कांग्रेस की तरह ही खुद के चेहरे पर चुनाव लड़ें. दरअसल इंदिरा गांधी ने बैल के चिन्ह को छोड़कर नए चिन्ह पंजे पर चुनाव लड़ा और जोरदार जीत हासिल की थी. ऐसे में अब उद्धव के आगे भी दो विकल्प हैं. पुराने चिन्ह को लेकर लड़ाई या फिर अपने चेहरे पर शुरू करेंगे नई जंग.